शनिवार, 7 मार्च 2015

स्वप्पन हुए ख़ाक फिर से सवारूँ कैसे



दिल का दर्द पन्नो पे उतारूँ  कैसे
एक आंसू है उसे हर्फ़   बनाऊ कैसे
जलजले उठते है हज़ारों  दिल में 
हर जलजले को एक मोड दिखाऊँ कैसे

उजड़ा है चमन नीड़ बनाऊँ कैसे
हर तरफ शूल ,गुल को खिलाऊँ  कैसे
रौशनी दूर  चिरागों से जो आती थी कभी
बुझ रही  शमा  , बचाऊँ कैसे

हो गए मद्धम ,बुलंद  इरादों के स्वर
हो गए फीके रंग जो होते  थे अजर
बस अब एक   तमन्ना  बाकी  यारो
स्वप्पन हुए ख़ाक फिर से  सवारूँ कैसे

उठते हैं जो गिर कर ,मज़बूत कदम है
हँसते है जो गम पा  के भी  ,उनमे दम है
देते है हवा  सब को जो ,बनके  पैगम्बर
सम्राट मुक़द्दर  के ,बेताज वो हम है.