बुधवार, 31 अगस्त 2011

Chuppee

चुप्पी

समझ नहीं पाया कि क्या राज है
इस चुप्पी में भी गज़ब की आवाज़ है
भीड़ में चुप रहती है
तन्हाई में नागिन सी डसती है
चला जाता हूँ  तो पीछे से बुलाती है
पा कर सामने नज़रे चुराती है
छोड़ जाता हूँ तो तरसती है पकड़ने को
और कभी थाम जो लूं हाथ बढ़ कर के मैं उसका
झटक देती है हाथ ,और आँखे दिखाती है
चुप चुप सी हो जाए तो है उदास यह चुप्पी
शर्माए, घबराए  तो है एहसास यह चुप्पी
तरसाए ,तडपाये तो है प्यास यह चुप्पी
मुस्काये लचक जाए तो है आस यह चुप्पी
वीरानियो में गुम हुई श्मशान यह चुप्पी
साधना से मिल गई तो ज्ञान  यह चुप्पी
मनु मनीषियों की बनी जान यह चुप्पी
हार में भी जीत का सम्मान दे चुप्पी
समझ नहीं पाया कि क्या राज है
इस चुप्पी में भी गज़ब की आवाज़ है

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

vandna

वंदना
अनजाना  पथ था
सघन तिमिर था
एकाकी था
ना  हमसफ़र था
थका थका सा
रुका रुका सा
ढूँढ रहा था
मंजिल अपनी
हिम्मत थी
टूटी जाती थी
साहस था
दम तोड़ चुका था
आशा का दामन
छोड़ चुका था
भूल के अपनी
संचित निधि को
गहन निराशा को
रुख  मोड़ चुका था
उच्श्रीन्ख्लता रो रो कर
अमिट छाप तब
छोड़ चुकी थी
हुआ आगमन
चन्द्र किरण का
चहुँ फ़ैल गया
उज्जवल उजियारा
सत्वर किरने
रजत वरण सी
चीरती जाती
कटुतम अंधियारा
उत्तर दिशी से
बन कर उतरे
देवदूत से
धवल सुधाकर
नीरज के कोमल
 अधरों  पर
मुस्काये और फैल गये
बन कर कुसुमाकर
हरियाली अब
चहुँ और थी
आशा की फैली
चादर में
साहस के मोती
झरते थे
प्रशस्त मार्ग को
रौशन करते
जगमग दीप
जला करते थे
धन्यवाद, हे सुकुमार !
मेरा ,तुझ को
किये समर्पित
हृदय दीप
शत शत नमन
करूं  तुझको







'

Anmol rhsy

अनमोल रहस्य

बादल दिनकर को ढक लें तो क्या सोचा
कि छोड़ दिया चमकना जलते सूरज ने ?
लाख बंद करके  रखो तुम लालो को बोरी में
जगमगाहट हीरों की कभी भी कुछ कम नहीं होती
बाँध कर दरिया को यूं हो गये अभिमानी
रवानी बहते दरिया की कभी भी मंद नहीं होती
बंनाओ लाख चिमनी तुम मोड़ने को रुख धुएं का
ऊपर बढ़ कर उड़ने की फितरत कम नहीं होती
करो तुम लाख कोशिशे करने की पंकिल " नीरज " को
पंक से ऊपर रहने की प्राकृत कम नहीं होती
मुश्किले आती है  जीवन में और आ कर लौट जाती है
छवि  साहसो और शौर्य की कभी धूमिल नहीं होती
ना गिरो गे तो क्या समझो गे कि चढना किसको कहते है
फिसल कर संभल जाने वालो की कीमत कुछ कम नहीं

रविवार, 28 अगस्त 2011

Aashaa

आशा
करता हूँ  अनुरोध यह तुमसे
मत करो पुन्य पाप का लेखा
जीवन के इस जल तरंग में
ना जाने कितने गीत  और बजने  है
चलते चलते यूं रूक जाता
गिरता जो तो संभल नहीं पाता
रज कण  से लिपट नहीं पाता
धूलि ना मस्तक पर धर पाता
करता हूँ अनुरोध यह तुमसे
मत करो हार जीत का विवरण
जीवन  के इस उतार चढाव में
ना जाने कितने जीत और सजने है

virh ki kitaab

विरह की किताब

दिल हुआ जैसे विरह  किताब
उलट पलट  कर पन्ने देखे
पर मिल ना पाया  कोई हिसाब
अंक गणित सब गलत हो गया
लिखे जुल्मे मिट  गये सब
सुरमई आँखों के कुछ सपने
जो रजत सरीखे चमचम करते
उत्सव करते इस जन मंच पर
 अब फीके फीके जान से पड़ते
थक हार सब बैठ चुके हैं
सूनी आँखों के पलक द्वार से
धुन्दले हो कर झर झर झरते
वैरागी मन को समझाते
साथ विरह के झूल  चुके हैं
रचना की रचना में रच कर
पिव रस पी कर भूल चके है
अम्बर से बरसे सुधियाँ तो
करते छंद मकरंद का पान
हास और परिहास को तज कर
पाते  दिल से दिल का अजाब
दिल हुआ जैसे विरह  किताब

शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

ek kanteela jhaad

एक कंटीला झाड़
उगता है
मरुभूमि में
भीषण गर्मी में
तपती रेत
चहु और
नमी तरसती
पानी को
पर झाड़ कंटीला
बड़ा हठीला
मौसम से लड़ता
शुष्क धरा से
वारि बूंदों का
अवशोषण करता
हर अंधड़ को
जम कर सहता
और यह कहता
मैं झाड़ कंटीला
ना मेरा कबीला
पर अलबेला
मरता है
जब सारा मरुथल
जी जाता मैं '
पी कर हाला

yh shahar

यह शहर
एक भयावह चीख
गूंजती है वीथियों से
सुनायी नहीं देती
शहर के लोग बहरे हैं
एक बुलंद आवाज़
उठती है बार बार
बोल नहीं पाती
शहर के लोग गूंगे है
दौड़ता है अपने
इरादों  के साथ
मगर चल नहीं पाता है
शहर  के लोग पंगु है
बुनता है ख्वाब कई
सुनंहले रुपहले
देख नहीं पाता है
शहर के लोग अंधे है
भरता है श्वास कई
ऊँची उड़ान भरने को
उड़ नहीं पाता है
शहर के लोग पंखहीन है
क्यों निवास करता है ?
ऐसे शहर में वह
जीवन कुछ गतिहीन सा
और लोग जहां मुर्दा है



dekh hai kabhi ?

देखा है कभी?
टूटते तारो को
डूबते मझदारो को
बिछड़े किनारों को
कटती पतंग को
उजड़ी  उमंग को
डूबते सूरज को
बिखरते नीरज को
देखा है कभी ?
बहता ही पानी है
श्वसित, जिंदगानी है
भावो का मोल क्या
यथार्थ की जुबानी है
चढ़ते को सलाम है
गिरे तो बस एक कहानी है
देखा है कभी ?
बनते कहानी को
मिटती जिंदगानी को
भीड़ में तन्हाई को
मिलन में जुदाई को
फूल पर धूल को
चुभते हुये शूल को
सिसकती स्मृति को
बेजुबान श्रुति को
देखा है कभी ?
पीतें हैं दर्द यहाँ
लेने को दो सांस
ढोते हैं बोझ यहा
छू लेने को एक आस

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

Himaalye se

हिमालय से
उज्जवल धवल हिमानी मंडित
मुकुट सुशोभित माँ के शीश
सजग प्रहरी उत्तर दिशि के
देता नित  पावन आशीष
उन्नत हिमगिरी से आच्छादित
नव चुम्बन के लिए खड़े
शस्य श्यामला भू किरीट में
मानो हीरक रत्न जड़े
नित्य प्रात: के प्रथम प्रहर में
विदू किरणों की बह धारा
रूप निखारे नित्य स्नान से
धोकर मानो मल सारा
ज्योति जलाने आता सूरज
उछेइश्रव रथ पर आरूड़
कण-कण में भरता उजियाला
करता तिमिर गहनतम दूर
त्रिविद ताप हारी मालिय मिल
गायन नृत्य विहार करे
और देवयानी प्रकृति की
आँगन में अभिसार करे
विविध वरण के पुष्प
और तरु वसन सजे हरियाली के
कंठ सुशोबित गंग माल से
और वक्ष भाग सु वनाली से
पद्मराग मणि मरकत से
भरपूर संपदा का दाता
पूज्य हिमालय अचल अडिग है
सदा हमारा परित्राता
अतुल संपदा है आँचल में
मेघों से करता किल्लोल
सरिताए सर सरित बहाता
लेकिन रहता स्वयं अडोल
उपकृत तुमसे करते विनती
सुरस्वामी हरिराया से
अभिलाषा है हम रहे ना वंचित
सुखद तुम्हारी छाया से

Apne thaakur se !

अपने ठाकुर से
ना देहरी पर शीश  झुके तो
ना मंदिर में दीप जले तो
ना अर्चन में पुष्प चढ़े तो
क्या तुम मुझ को ठुकरा दोगे ?
ना मैं तुम को भोग लगाऊ
ना मंदिर जा प्रसाद चडाऊ
ना मीरा बन कर करू याचना
ना गोपी बन कर तुम्हे रिझाऊ
चर्चा करते कर्म   योग की
उपमा देते योगी धर्म की
अब ना किया जो चिंतन तेरा
तो क्या मुझ को ठुकरा दोगे ?
वत्सल हो तुम यह जग जाहिर
कठिन परीक्षा लेने में माहिर
अवगुण अज्ञानी अनुतीर्ण हुआ तो
क्या  तुम मुझको ठुकरा दोगे ?
चलू उठ कर अब करूं साधना
जगत विदित तेरी आराधना
ठुकराओ या अपनाओ तुम
अविचलित हो करू  मन बांधना
स्वेद बहाऊँ गा कर्मों से
बिखरे मोती तुम चुन लेना
शीश धरो या पग धूलि बनाओ
उचित लगे पुरस्कृत कर देना

बुधवार, 24 अगस्त 2011

do shabad

दो शब्द
जन्म दिवस
की बधाईँ
जैसे
मंगल ध्वनि बजाती
 एक शहनाई
ढेर सारी शुभ कामनाएं
मन के अलाव में
आशा का
दीप जलाए
अनेकानेक शुभाशीष
जीवन जैसे
हो गया विश्वजीत
आभार तुम्हारा
ऐ मित्रो !
सत्कार तुम्हारा
ऐ मित्रो !
शत कोटि नमन
ऐ मित्रो !
किया शब्द सुमन
अर्पित मित्रों ! 

रविवार, 21 अगस्त 2011

Karm Rekha


कर्म रेखा 

प्रयत्न करते हैं 
जब भी 
पढने की
रेखाए हाथो की 
एक चित्र  
उभर आता है 
दूर कही वादियों में
मन का हारिल 
गाता है 
 आस का पंछी 
उड़ते उड़ते 
बीच भंवर में 
डूब जाता है 
वक़्त से पहले 
और वक़्त के बाद 
मिलने का भेद 
समझ में 
आ जाता है 
दूर चिमनी से
उठता धुयाँ 
आसमान में विलीन 
हो जाता है 
नभ पर बनते 
काले बादल 
जल के नहीं 
धुएं के है 
जो बनते है , मिटते हैं 
पर  वृष्टि नहीं करते है 
तब फिर प्रयत्न करते है 
छोटा करने की 
अपनी भाग्य रेखा 
करके लम्बी कर्म रेखा 
सुनिशित है सब कुछ
मगर बस  एक रेखा 
छिप गया सब सार जिसमे 
और वोह है 
कर्म रेखा .........

खत्म करेंगे भ्रष्टाचार ( उन मित्रों के नाम जो सत्य से विचलित हो जाते है कभी कभी )


खत्म करेंगे  भ्रष्टाचार ( उन मित्रों के नाम जो सत्य से विचलित हो जाते है कभी कभी )

क्यों बिकते हो बाज़ारों में 
क्यों अपना मोल लगाते हो 
दो जून का भोजन ही तो है 
क्यों उसको जहर बनाते हो  
 यह देश तुम्हारा भी तो है 
क्यों लेख छापते हो धुन्दले 
क्यों साथ प्रिय है उनका तुम्हे 
विचार जिनके केवल गंदले 
सत्यार्थ करो ,पुरुषार्थ करो 
न कलम पे अत्याचार करो -
लिखो लिखो और खूब लिखो 
और सत्य पे भी उपकार करो 
 गर चल सकते तो साथ चलो 
उन्मूलन करने को भ्रष्टाचार 
केवल लिखने को लिखते हो 
तो बंद करो तुम यह व्यापार
जौहर बहुत है लेखन में 
पूछो  चन्द्र वरदायी से 
भाल देश का किया उनत 
केवल शब्दों की परछाई से 
आल्हा ऊदल के मुक्तक 
शान बढाते हैं अब भी 
बुंदेलों के गीतों पर 
नतमस्तक हो जाते सब भी 
आग्रह मेरा यह तुमसे बस 
ना कलम को हल्का पड़ने दो 
दो साथ सत्य ,सत्याग्रह का 
ना शब्द को अपने बिकने दो 
लिखो, लिखो और खूब लिखो 
अन्ना, भ्रष्ट ,और भ्रष्टा चार 
गर कहें कोई कि झूठ लिखो 
तो हाथ जोड़ कर मानो हार 
बनो उपासक सरस्वती के 
साधक हो , करो प्रचार 
ना झूठ कहा,ना झूठ कहेंगे 
खत्म करेंगे  भ्रष्टाचार 

शनिवार, 20 अगस्त 2011

अन्ना हजारे का आह्वान

अन्ना हजारे का आह्वान 

हर तरफ आग है 
पर ना जाने क्यों 
 मन ठंडा है 
चिंगारी जो सुलगती थी 
राख  हुई जाती है 
यूं तो कहते थे कि
इन्कलाब कोई लायेगे 
आज वक्त की मांग है 
आवाज़ घुटी जाती है 
यूं तो चल दिए हज़ारों मील कई 
आज चलने की आगाज़ है 
चाल मंद हुई जाती है 
हर बार बने शिकार तो 
कोसते थे भ्रष्टता  को 
आज ख़त्म करने की बात है 
जान पस्त हुई जाती है 
नहीं हासिल  होता कुछ भी 
महज़ ख्वाबो से, ख्यालो से 
आओ जुटे हम सब 
इसी आन्दोलन में 
एक बूढी , सशक्त गुहार 
इतिहास  की धूल में 
गर्क  हुई जाती है 

aadmi Kya hai ?


आदमी क्या है ?
एक उमड़ते सैलाब में अपना 
अस्तित्व बचाते हुये एक रूह 
जो दिन रात पिसती है 
हर वक्त खटती है 
भीड़ में , अकेले में 
अपने आप से ही लडती है 
करती है प्रयत्न 
अपने वजूद को
बटोरने का 
टूटे हुए अक्स को 
जोड़ने का 
सिसकियों से बचती है 
छिप छिप  कर रोती है 
अरमानो की चिता पर 
चुपचाप सोती है 
कोलाहल होता है 
तो  बड़े मन से जगती है 
आदमी की भीड़ में 
अपने जैसी रूह को पदने की 
महज़ कोशिश करती है 
सैलाब आता है 
आ कर चला जाता है 
और आदमी ?
अपनी रूह को बचाते बचाते 
किन्ही गुमनाम अंधेरों में 
फिर लुप्त हो जाता है .

तम में दिया जलता है 
भभकता है , टिमटिमाता है 
दिशा के ग्यना से हो बोझिल 
अपनी लो मैं फडफडाता है 
और आदमी ?
पा कर मंजिल उजालों मैं 
हो कर फिर दृद संकल्प 
जोड़ कर टूटे हुये वे बिम्ब 
प्रसन्न चित ,हो प्रफुल्लित 
गमन करता है 
पोंछ अंपने आर्द नयनों को 
एक सुनिषित मार्ग पर 
जिसको कभी वह भूल जाता है 
अस्तित्व की माटी तले 
डाल रखता है सुशुप्त अवस्था  मैं 
और देखता है बाट
बस एक टिमटिमाती लो की 
जो उष्ण करके 
अंकुरित कर  दे 
रूह की विक्षिप्त अवस्था को 
और आदमी ?
चूम ले बढ़ कर 
फिर गुमनाम अंधेरो को 

शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

Tees!!


टीस!
उठती है यूं टीसे दिल में 
जैसे लहरे हो सागर में 
मिटती एक तो बनती दो है 
हलचल करती जीवन तल में 
दिल ही इनका उद्गम स्रोता
दिल ही  इनमे भीग के रोता  
दिल ही इनके संग जागता 
दिल ही   इन में घुस कर सोता 
टीस की टीस पे टीस उठे जब 
अनहत  नाद भी होते मुखरित 
टीसों की तब घंतावलियाँ 
टन-टन टन- टन बज उठती हैं 
मन मब्दिर के एक कोने में 
देवासन सा पा जाती हैं 
अश्रु पुष्प चढाता मन है 
गर्म श्वास से अर्चन करता 
रीते रीते खुले नेत्र से 
इन टीसों का दर्शन करता 
टीस उठे तो जीवन रोता
टीस दबे  तो हर्षित होता 
टीस जगे तो चेतन होता 
टीस मिटे तो बेकल होता 






Kambakht Dil


 कमबख्त दिल!

कमबख्त दिल ही तो नहीं है !
बस एक  मांस का लोथड है 
लब-ढब,लब-ढब करता है 
बस केवल साँसे गिनता है 
ना पीड़ा में पिघलता है 
ना हर्ष में उछलता है 
ना करता है  एहसास कभी 
बस स्वार्थ की आग में जलता है 
मेरी साँसों में मेरा जीवन 
इन  साँसों में एक बासी पन 
झूठ की चादर ओढ़े बैठा 
मानवता को निगलता है 
कमबख्त दिल ही तो नहीं है 
बस एक मांस का लोथड है 

कब धड़का कुछ याद नहीं है 
कब मचला कुछ पता नहीं है 
यंत्र सा चालित हर पल हर क्षण 
कब दहका कुछ ज्ञान नहीं है 
वज्र सा लगता कभी मुझे यह 
नाजुक फूल सा झट झर जाता 
अपना रीना रोता रहता 
पर पीड़ा से मुकुर सा जाता 
तेरा मेरा इसका उसका 
जीवन यापन हो जाता है 
दिल का ढब ही तो बेढब है 
वर्ना सब दुःख ,सुख हो जाता 
कमबख्त दिल ही तो नहीं है 
बस एक मांस का लोथड है 

Janta!!

जनता !!
यह सच है
कि जनता बहुत  ताकत वर है
जब भी चाहे किसी का भी तख्ता पलट सकती है
जनता ने हज़ारों राज बदले है
यह भी सत्य है कि
जनता रूक नहीं सकती
कि जनता झुक नहीं सकती
कभी भी
लेकिन यह भी सत्य है
कि जनता सोच नहीं सकती
गर सोच लिया होता तो
इतना भ्रष्टाचार कैसे सहन करती
करती क्यों इंतजार
किसी ७४ वर्षीय अन्ना हजारे का
एका एक इतना विरोध भ्रष्ट चार का ?
क्या सुप्त था कोई
क्या अब रुष्ट है कोई
क्या नहीं मिलता अपना भाग
इस जुल्म के किनारे  का ?
छोड़ो भेडचाल अब जनता
वास्तविकता में आओ तुम
खुद बनी  इस तंत्र की हिस्सा
खुद अपनी मुश्किल सुलझाओ तुम
क्यों करती हो आगाज़ किसी नेता का
कब तक झेलो गी नेता के अभिनेता का
सोचो समझो और करो फिर आन्दोलन
वरना आने वाला उपहास करेगा जन तन मन



रविवार, 7 अगस्त 2011

rhe slaamat dost


रहे सलामत दोस्त ! 
 
मिल कर तुमसे यह एहसास हुआ
कि जीवन में कितनी प्यास है 
हर दम जो टीसता रहता था 
अब उस  दर्द में मिठास है 
लेता रहता था जो हिसाब 
हरदम अपने गुनाहों का 
करता रहता  था फ़रियाद 
अपनी पनाहों का 
मिल कर तुमसे जान लिया 
कि तू ही मेरी इबादत है 
किया था  जिस दिन का इंतज़ार 
आज वही आयी  कयामत है 
 बहुत  अच्छे हो तुम और 
तुम्हारी  दोस्ती भी अच्छी 
करूं क्या ज़िक्र मैं उसका 
तुम्हारी फितरतें भी अच्छी 
करूं मैं उस घड़ी का साधुवाद 
जब तुमसे मिलना था 
ना था रिश्ता कोई फिर भी 
हमारा साथ जुड़ना था 
 जिया हूँ चंद लम्हों  के साथ 
मैं इक युग भरा जीवन 
करूं महसूस मैं संपूरण
कभी था एक अधूरा मन 
रुखसत हुये  जहान से
तो कोई गम नहीं होगा 
पलकें चैन से मुंद जायेंगी 
कोई भी जख्म  नहीं होगा 
रहे सलामत दोस्त और 
यह दोस्ती तेरी 
बदल डाली जिसने यह 
सारी  तक़रीर ही  मेरी  






शनिवार, 6 अगस्त 2011

Dost ki dosti

दोस्त की दोस्ती !

जुदा हूँ दोस्तों से  पर दोस्ती से नहीं
ऐसा यह खजाना है जिसकी कीमत कोई नहीं
दम भरते है  सब यहा अपनी दोस्ती का ए दोस्त
कागज़ के जैसे फूल ,पर  खुशबू कोई नहीं
कहते थे  देंगे जान भी दोस्ती की खातिर
तैयार है जनाज़ा पर शामिल कोई नहीं
तंगदिली है वक्त की, मत पूछिए दिल की
दिल दोस्ती पे कुर्बान  ,पर वक्त कोई नहीं
करते हैं  हम सलाम इस दोस्ती को दोस्त 
कहते हज़ारों किस्से है ,हमसुखन कोई नहीं
मत पूछिए अब मायने इस दोस्ती के हमसे
यारों की भरी भीड़ है , पर अपना कोई नहीं

शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

timiron kaa Jhurmut


तिमिरों का झुरमुट 

तिमिरों के झुरमुट ने
सुनी प्रकाश की पदचाप 
उतिष्ठित हुई नवाषा 
ले सुरीला आलाप 
जगमगाए जुगनू 
फैल गया उल्लास 
तिमिरों के झुरमुट में
हुआ रौशन आभास 
कदमो की बढ़त ने 
लिया तम का हवाला 
बेअसर किया चुपचाप 
उदासी का हाला 
दर्द का विष पान 
हुआ पीयूष सा मधुरिम 
जीवन का बुझा दीप 
पुन; हो गया टिमटिम 
अब वक़्त के नगमो ने 
किया गुंजित  मधुमास 
तप्त मरुथल  की भी 
जैसे बुझ गयी प्यास 
खो देगा अस्तित्व 
तिमिरों का यह झुरमुट 
छल्कायेगा गागर 
रौशनी का पनघट 




Ni:stabhdta

नि:स्तब्धता !

नि:स्तब्धता रात्री की
बढती रही
निर्विकार
ढूँढती रही
अपनों को
और कभी
अपनों का प्यार
गहराती जाती थी
उतना ही
संग संग रजनी के
कुछ अनमनी सी
कुछ बेकरार
अध्ययन करती
बेजान चित्रों का
कुछ विचित्र
कुछ निराकार
चिंतन  करती
अनन्य वेदनाएं
कुछ त्याज्य
कुछ का
करती अंगीकार

bachpan aur bachpna

कितने बड़े हो कर हम बच्चे ही बना रहना चाहते है .
शायद जो निश्चलता बाल पन में है वह किसी और रूप में नहीं
और तुसलीदास एक प्रसंग में भगवान का उल्लेख करते हुए कहा है
"निर्मल मन जस सो मोहे पावा , मोहे कपट चल छिद्र ना भावा "
बड़े हो कर भी बचपन में जीने वाला शायद बहुत सुखी रहता है और कभी कभी बहुत दुःख का भागी भी  बनता है
क्योकिं सामने वाला उसके बचपन को उसकी बेवकूफी समझ लेता है . और समझे भी क्यों ना ?
इंसान के व्यवहार से ही तो उसकी उम्र का अंदाज़ होता है और अधेड़ अवस्था में आकर भी बच्चो जैसी हरकते करने वाले
उपहास का पात्र ही बनते है . शायद में  भी उन सब में से  एक हूँ  जो कि उम्र के पचासवे वसंत में पहुँच कर भी एक चोदह साल के बच्चे
की तरह हरकते करती हूँ  . वह भी समझ नहीं पाती थी की क्यों करती है ऐसी हरकते. इतनी बड़ी उम्र , इतनी बड़े पद पर कार्यस्थ , कैसे बेवकूफी  वाली हरकते करती है
कैसे मचल जाती है एक बच्चे  की तरह ,,,,शायद उसे समझना चाहिए और मासूमियत का नकाब उतार हकीकत में आ जाना चाहिए .
जीवन कभी कभी कठिन सा लगने लगता है ..........हम क्या समझ कर कुछ कर देते है और सामने वाला क्या समझ लेता है .......सोचना तो चाहिए ही ना ..........
कभी कभी सोचती हूँ कि जानबूझ कर कुछ ना समझने की कोशिश करती हूँ .........याँ फिर अपनी ही सोच के दायरे में जीना चाहती हूँ जहाँ कुछ सोचना नहीं पड़ता . एक जीवन जीती हूँ बेसोच भरा ....
याँ फिर इतना सोचती हूँ कि सोच की सोच में डूब कर  क्या सोचना चाहिए यह में ठीक से सोच नहीं पाती, और  यही भूल जाती हूँ कैसे सोचा   यह सब ............
लेकिन इतना तो ज़रूर निचित है की हर इंसान को अपने उम्र से साथ जीना सीख लेना चाहिए और बचकानी हरकते छोड़ कर एक समझदारी और परिपक्व जीवन जीना चाहिये., नादानी नहीं करनी चाहिए ख़ास कर उसके सामने जिस को आप बहुत पयार करते हो . क्योकि वह आप को बेवकूफ समझ कर , आपके बचाकने व्यवहार से तंग आकर मजबूरन आप से आलग हो जाता है
बचपन और बचपने  में फर्क समझना बहुत जरूरी है .

सोमवार, 1 अगस्त 2011

taz do ab is jadta ko

 तज दो अब इस जड़ता को

जड़ता की दौड़ में डूबा मन , रिश्तो की भाषा भूल गया
हिंसा प्रति हिंसा की ज्वाला में जल कर अपनत्व को भूल गया
अब भाव कहाँ जो भावो की भाषा को पढना जानते थे
अब राग कहाँ जो सरगम को सुर ताल में करना जानते थे
 डरते है कीट किरीट यहाँ  ,कलरव का  मंजन  करने को
चिड़िया तोता मैना चुप हैं , उन्मुक्त श्वास एक भरने को
अब तोप टैंक बन्दूको पर , जीवन के jगीत सुनाये जाते हैं
जी लेने को मुस्का कर पल दो  , सब  स्वांग रचाए जाते है
निश्चल मन मिलना स्वप्पन हुआ ,रिश्तो की गर्मी दिवा स्वप्प्न
द्वेष चिगारी में जल  भस्म हुआ , और प्रेम आग में   ठंडा पन  ,
निश्चलता ढूँढो अब रिश्तो में , बुनियादी है मानवता की
यह मेल बढ़ाती है दिल के  ,और शत्रु है पाशविकता  की
वक़्त हुआ अब चेतनता का , उठो करो इसका अभिनन्दन
तज कर अब इस जड़ता को  ,   भ्रात्री  भाव का करो आलिंगन