आदमी क्या है ?
एक उमड़ते सैलाब में अपना
अस्तित्व बचाते हुये एक रूह
जो दिन रात पिसती है
हर वक्त खटती है
भीड़ में , अकेले में
अपने आप से ही लडती है
करती है प्रयत्न
अपने वजूद को
बटोरने का
टूटे हुए अक्स को
जोड़ने का
सिसकियों से बचती है
छिप छिप कर रोती है
अरमानो की चिता पर
चुपचाप सोती है
कोलाहल होता है
तो बड़े मन से जगती है
आदमी की भीड़ में
अपने जैसी रूह को पदने की
महज़ कोशिश करती है
सैलाब आता है
आ कर चला जाता है
और आदमी ?
अपनी रूह को बचाते बचाते
किन्ही गुमनाम अंधेरों में
फिर लुप्त हो जाता है .
तम में दिया जलता है
भभकता है , टिमटिमाता है
दिशा के ग्यना से हो बोझिल
अपनी लो मैं फडफडाता है
और आदमी ?
पा कर मंजिल उजालों मैं
हो कर फिर दृद संकल्प
जोड़ कर टूटे हुये वे बिम्ब
प्रसन्न चित ,हो प्रफुल्लित
गमन करता है
पोंछ अंपने आर्द नयनों को
एक सुनिषित मार्ग पर
जिसको कभी वह भूल जाता है
अस्तित्व की माटी तले
डाल रखता है सुशुप्त अवस्था मैं
और देखता है बाट
बस एक टिमटिमाती लो की
जो उष्ण करके
अंकुरित कर दे
रूह की विक्षिप्त अवस्था को
और आदमी ?
चूम ले बढ़ कर
फिर गुमनाम अंधेरो को