रविवार, 20 मई 2012

परिवर्तन

परिवर्तन
 
परिवर्तन जाने   पहचाने
परिवर्तन कुछ  नये पुराने
अंतर्मन को बांधते है
कई सपने जागते हैं
एहसास को पुकारते हैं
अनायास कही चुपके से
शून्य उतर आते है
सहमी सी  मृगनयनी का  
आलिंगन करते हैं  
कुछ गमी का ,कमी का
ध्यान पुनह धरते हैं
खोया सब पाने को
फिर छटपटाते है
लौट आओ पल प्रिय
कह साए से लिपट जाते है
शोक संतप्त वेदना
द्रवित हो बहती है
अज्ञानी हो तीर से
दूर दूर रहती है
परिवर्तन का प्लावन यह
सब तहस नहस कर जाता
सहज गर अपना लें तो
जलनिधि से गिरी आता

शनिवार, 19 मई 2012

प्रत्याशी

प्रत्याशी
 
बुझी बुझी है चांदनी
बुझा बुझा सा है गगन
बुझ गयी वसुंधरा
बुझा बुझा सा है चमन
छूट चले मीत सभी
रूठ चले गीत  सभी
वेदना के द्वार खुले
झूठ चले रीत सभी
तप्त वारिधि पवन 
मौन धारिणी अयन 
द्रवित वेदना प्रलय 
विस्तृत हुआ संशय 
टूटी श्रधा औ विश्वास 
सुप्त हुई मन की आस 
मित्र ,मित्रता के नाम 
देखे घातक परिणाम 
छोड़ दें यह विश्व सारा 
छूटे भले ही सहारा 
मन स्वयं अभिलाषी 
बने अपना प्रत्याशी 
 

बुरा लगा

बुरा लगा
 
 
बुरा लगा तेरा रूठ कर जाना
बुरा लगा मुहं फेर कर जाना
बातों ही  बातों में बात बना डाली
बुरा लगा अब बात बना जाना
ना आते तो भी कोई गिला ना था
समझ लेते कि कोई मिला ना था
कहते हो  कि तुम मेरे हुये  कब थे
हकीकत यह कि इस जग में तेरे  हुये सब थे

भूल गये मेरा ही नाम

भूल गये मेरा ही नाम
 
करते थे तुम मुझसे बातें
जागे कितनी काटी रातें
हर पल सुमनों का मेला सा
फैले सौरभ एक रेला सा
यादों की पीड़ा से ग्रसते
हर लम्हे में बस तुम  बसते
नियति ने कैसा चक्र चलाया
दूर तुम्हे  मैंने नित पाया
खो बैठे तुम सारे धाम
भूल गये मेरा ही नाम
 

अकेलापन

अकेलापन
 
पल चुराता  है
लब छुपाता  है
 नम आँखों से 
गीत सुखाता  है
 
अकेलापन
बीहड़ के देहरी पर
वेदन  की वीणा बन  
रोदन के सरगम पर  
स्वर सजाता है
 
अकेलापन
चुप्पी में डूबा सा
घुट घुट कर जीता सा
उड़ने को नभ में
खग सा फडफडाता है
 
अकेलापन
थकता है ना रूकता  है
रूक रूक कर  बढ़ता है 
अनंत की सीमा पर
गृहस्थी जमाता है
 
अकेलापन ?
पन यह अकेले  का
मत पालो झमेले सा
जीवन के मधु पल में
पतझर को बुलाता है  

रविवार, 6 मई 2012

धुंधलके

धुंधलके
बात की बाट में बाँट लिया यह जीवन
अनकही बातों में धुंधला सा सवेरा है
प्रश्नों के बियावान में  क्यों चलता है दिनकर
पूरब है ना  पश्चिम है उत्तर हर दिशी है
गौर करेंगे तो ना पायेंगे गवाही भी
छाया भी कहीं ओझल छाया में छिपी है
सिमट गये सब लम्हे रजनी के स्याहों में
बातों के धुंधलके है  ना तेरा है ना मेरा है
अब  बात की बातों  में उठता है धुंआ यूं
दीपों की तपिश में भी चहूँ फैला अँधेरा है
फैली अथाह राशि ख्यालो के समुंदर में
सीपी से छिपी बात का भू तल पर ही डेरा है

तल्लीनता ?

तल्लीनता ?
पुकारते है सन्नाटे
हर दिन  की तरह
आज भी खामोशी से
निहारते है सन्नाटे
हर दिन की तरह
आज भी दूर से
फान्सलो  का संकरापन
विस्तृत हुआ जाता है
नियति का घटना क्रम
विस्मित हुआ जाता है
मुस्काता है ,रोता है
रोता है. मुस्काता है
हाथो से पकड़ने की
प्रक्रिया में असहज हो
दूर छिटक जाता है
पंख विहीन ही
अंत में  विलीन है
गूंजते सन्नाटो में
क्षुबधता तल्लीन है