शनिवार, 31 दिसंबर 2011

वर्ष २०११

वर्ष २०११

बड़ा छकाया इस २०११ ने .......लेकिन जाते जाते वह सब खुशिया भी दे गया जिस को पाने के लिए दिन रात एक कर अथक प्रयास किया था ......
१८ वर्ष की तपस्या का परिणाम इसी वर्ष हासिल हुआ .....मेरी बड़ी बेटी का भविष्य पढाई की दृष्टि से निश्तित हुआ ......
खेल खेल में ऐसा झटका लगा कि घुटना ने मुहं मोड़ लिया .......घोर निराशा मिली ......लेकिन फिर इलाज़ का ऐसा क्रम शुरू हुआ और पता चला कि घुटने कि चोट तो एक बहाना बना इलाज़ तो उस बिमारी का हुआ जिसकी कभी सोच भी नहीं की जा सकती थी. ..........और आज साल का अंतिम दिन और मेरा इलाज़ भी पूरा हो गया और पुनह शारीरिक रूप से इतना स्वस्थ महसूस कर रही कि जैसे अपनी उम्र के बीस साल पीछे आ गयी हूँ.........
छोटे बच्चे जो शायद कभी बड़े ही ना होते ........क्योंकि छोटा अक्सर छोटा ही रहता है नासमझ.....जिम्मेवारियों से बहुत परे ..लेकिन आज वह सब बहुत ही समझ दार और जिम्मेवार बन चुके हैं... और उस पथ पर अग्रसर हो चुके है जिस पथ उनको ले  जाने के लिए प्रयत्नशील थी ...
मित्रों का पूरा सहयोग रहा .........जीवन का अभिन्न हिस्सा बने ....और इस कठिनाई के दौर में उनसे मिली प्रेरणा ने खुल  कर जीने की हिम्मत बढ़ाई. २०१० में अपने पिता जी के देहावसान के बाद अपने आप को बहुत अकेला महसूस करती थी और आश्रयहीन .....क्योंकि मेरे पिताजी ही मेरी प्रेरणा स्त्रोत थे......उनके जाने के बाद ऐसा लगने लगा था जैसे मेरे  प्राण भी मृत समान हो गये हैं ...लेकिन कुछ मित्रों से मिल कर उस कमी को पूरा होता महसूस किया ..........
पति का यकायक दफ्तर से पद त्याग .....और फिर बहुत जल्द अच्छे और वांछित दफ्तर में उच्च पद आसीन होना ...इसी वर्ष का योगदान है
मेरा अपने जीवन में करिअर की उंचाईयों को छूना  और फिर सहसा उन से अलग हो जाना ...........
बच्चों का अपने विद्यालय में प्रत्येक गतिविधियों में बढ़ चढ़ कर भाग लेना और विजय श्री हासिल करना और फिर एक नये  आत्मविश्वास की आभा से आलोकित होना.....सब इसी वर्ष के परिणाम है .........................कुल मिला कर अनिश्चितायों से भरा एक सफल साल रहा जो जाते जाते हर क्षेत्र में सफलता प्रदान कर गया........ठाकुर जी का बहुत बहुत धन्यववाद ....

शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

एक अकेली


एक अकेली 

श्यामल रात की मुंडेर पर 

वह आकर बैठी चुपचाप 
बार बार मन के कोने में 
करती थी  कितना प्रलाप !
आँख से झरता हर आंसू 
सिमट रहा था सागर में 
अंकुश जैसे लगा रहा था 
अंतस भाव की गागर में 
मुस्कानों के बिखरे मोती 
झोली में भरती जाती 
शंकित,शापित संतप्त  हृदय का 
ताप स्वयं हरती जाती 
वह रोती थी ,वह गाती थी 
वह गाती थी हंसती जाती 
किस्मत के लिखे हर वर्क के 
पढ़ हर्फ़ समझ कहती जाती 
खेले तकदीरों ने बहुत खेल 
कुहम्ला गया  जीवन नीरज 
अब तदबीरों की बालों से 
श्रिंगार कर्रूँ धर मन धीरज 
भर साहस का गहरा श्वास 
प्रस्थान करूं   निज मंजिल को 
खुल जायेंगे प्राचीपट
आह्वान  करूं  जब दिनकर को 

गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

नव वर्ष मंगल मय हो!!!!

नव वर्ष मंगल मय हो!!!!

फिर दोहरायें  बात पुरानी
बने संकल्प  सब की जुबानी
भूल कर सारी विफलताएं
चलो छूने फिर सफलताएं
अद्भुत ,सुंदर हो  सब का कल
मंगल मय हो हर नया पल
प्रेम अलख हर महल जलाएं
राग द्वेष को दूर भगाएं
निर्धनता ,बेकारी,लाचारी की
भसम गंगा जल में  बहायें
हो शुभ्र,  धवल और पावन पल
मंगल मय हो हर नया कल

कौन हूँ मैं


कौन हूँ मैं
सोते सहसा चौंक पड़ोगे
अपने हाल पे खुद ही हंस के
दीवारों से बात करोगे
तब में तुमको याद आऊँगी
तुमने मुझको हर दम  चाहा
जब महसूसा सामने पाया
बैठोगे तन्हा जब तुम भी
सोचोगे क्या खोया ,पाया
दिल का जब इतिहास लिखोगे
पीड़ा की कोमल स्याही से
हर पन्ने के हर इक हर्फ़ में
तब में तुमको याद आऊँगी
कैसा है अक्स क्या रंगत मेरी
याद करोगे तो जानोगे
साँसों का जो बनी थी हिस्सा
अब मैं हूँ तन्हाई तेरी

प्रकृति की पुकार

प्रकृति की पुकार

वाह!यह धरती गगन ,यह नदियाँ पहाड़
जैसे !विधि की कलम का अनूठा आविष्कार
उफनती नदी की उछलती तरंगे
वोह गिरते हुये झरनों की उमंगें
तुहिन श्रृंखला पर चमकती वो धूप
चकित है प्रकृति निरख निज रूप
शयामल वसन में लिपटता यह अम्बर
दुशाला धरा ने भी ओढा पीताम्बर
सरसों की क्यारी ,वो केसर के फूल
रज-कण में लुकते छिपते से शूल
फैले तरु की लचकती शाखाएं
डाल-डाली पल्लव यूं सब को बुलाएं
संभालो धरा को ,संभालो गगन
संभालो मधु उपवन ,संभालो चमन
ग्लोबल वार्मिंग का फैला यह जाल
उठो रोको इस को ग्रस पाए ना काल
तड़पती प्रकृति की लरजती पुकार
जरा ध्यान दे कर सुनो तुम भी यार
पुरुष हो,  प्रकृति से करते हो प्यार
संभालो.संभालो,संभालो इसका संसार 
 

बुधवार, 28 दिसंबर 2011

अपना और सपना

अपना और सपना
यह जग है सारा बैगाना
बस इक  दर्द ही है अपना
यथार्थ तो बेहद  कड़वा है
मीठा  बस केवल सपना
बैगानो की तज चिंता
मैं अपनों को अपनाता हूँ
कडवाहट जो मुहं में भर दे
उस सच  से भी कतराता हूँ
चिर काल अमर रहे यह सच
इससे ना मेरा कोई विरोध
जीवन में जो कहर कुहास करे
उसका क्यों  ना हो   अवरोध
जीवन है क्षण -भंगुर जान
हर कर्म संवारा करता हूँ
क्षण क्षण को मिष्टी सा कर दे
और  सपने बांटा करता हूँ
फिर  उपजाता हूँ दर्द नया
और उसको पाला करता हूँ
जो हर पल अपना पन दे दे
इस आशा से अपनाता हूँ 
मंजिल दर मंजिल यूं चलता
अविचलित हूँ देख बेढब रंग
दर्द अपना और मीठा सपना
बना  जीवन का अभिन्न अंग

मुझे अब चुप रहने दो !!

मुझे अब चुप रहने दो !!

मुझे अब चुप रहने दो
खामोशी को  कहने दो
भटकता फिर रहा था मैं
बदगुमानी के अंधेरो में
सिसकता ही खड़ा था मैं
जवानी की मुंडेरों पे
ललक कर बढ़  उठे थे हाथ
तुम्हे छूने की चाहत में
ठिठक  कर रुक गये थे पग
संग तुम्हारे  चलने में
कहा कुछ था सुना कुछ था
वोह लम्हा ही कुछ ऐसा था
सरक जाता था जो  राफ्ता
पलट कर फिर बुलाता था
अब जीवन एक सुनसान डगर है
सांस  तो है, श्मशान मगर है
घिर आती जब छटा वासंती
मन में छा जाता शिशिर है
उदगार  यह मेरे भाव कहाँ है
उन्हें गीत ही रहने दो
खामोशी को  कहने दो
मुझे अब चुप रहने दो

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

संजोग

संजोग
आफताब चमका
नभ के आँचल से 
अंत  हुआ तम का 
सुप्त वज्र मन से 
जगमगा उठी लौ 
स्नेह  के सुमन की 
बन गई  माला
नेह के अंसुवन की
झंकृत हुये साज
सुर मधुर  लागे
बीती विभावरी
नये स्वप्पन जागे
सुधियों का कोलाहल
मूक हुआ जानो
मन के वृन्दावन में
प्रकट श्याम मानो
झिलमिला उठी देखो
रतन जड़ित लडियां
श्याम से मिलन की
लौट आयी घड़ियाँ
दिवस काल रात्रि
सब होगयी एक
पींघ  बढ़ी वासंती
मिटी वेदना अनेक
धन धन धन्य  भाग
जन्म सुफल आज

रविवार, 25 दिसंबर 2011

सौदाई


सौदाई 
महज़ आकर्षण को प्यार समझ बैठा 
रूखे-सूखे  पतझड़ को बहार समझ बैठा 
ना आना था ,ना आया वोह ,जो सपनो से 
दिल  का व्यापार कर बैठा 
रस्म-ए- उल्फत निभाना था मुश्किल 
लगा दाग आँचल पर छुपाना था मुश्किल 
रुसवाईयों का अज़ब सा हुजूम था 
नज़र जो झुकी तो उठाना था मुश्किल 


मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

जिन्दा हो क्या अभी?

जिन्दा हो क्या अभी?
बहुत दिनों बाद जब देखा एक परिचित को तो सहसा एक प्रशन कर बैठा कहो कैसे हो ? बोला परिचित हाँ !! जिन्दा हूँ अभी आश्चर्य हुआ मुझेजान कर कि जी रहा अभी तक ???आँखों के दमकते दीपक बुझ से रहे थे सूखे ओंठो को नम करने का प्रयत्न विफल हो रहा था लगता था कि जैसे प्यास से हलक सूखा जा रहा था ....पानी दिया तो दो घूँट भर कर बोला कोशिश तो बहुत की कि मर जाऊ लेकिन इक आस के शायद कभी भूले भटके एक आवाज़ मुझे बुला ले तो कही ऐसे ना हो कि मैं जवाब भी ना दे पाऊ..मुझे जिन्दा रखे थी...देखो मेरी श्वास अभी बाकी है ..और अब मेरा इंतज़ार ख़तम हुआ और ....................................

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

चढ़ते को सलाम !!!!

चढ़ते को सलाम !!!!
जलते  सूरज ने हो मेहरबां मुझको पुकारा
सनसनाती मंद पवन ने था मुझ को संवारा
पर्वत के नेपथ्य से उठने लगा कोलाहल 
तारो से सजी रात ने दिया मुझको इशारा
बजने लगे घड़ियाल फिर वक़्त के मंदिर से
खिलने  लगा सौभाग्य कर्म के अन्दर से
टूटी हुई किश्ती को मिला साहिल का किनारा
जब जाग पड़ा जो सोया मुकद्दर था हमारा
अब चल पड़े साथ अनगिनत जमाने
जीते थे ,जीतेंगे ,वही बात दोहराने
यह सच है गिरा था ,ना मिला कोई सहारा
उठ गये मेरे कदम आज तो मुझे सब ने पुकारा

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

अंतर्मुखी

अंतर्मुख

किया शब् भर इंतज़ार सूरज के निकलने का
किया दिन अपना दुश्वार चंदा  के चमकने का
न आना था ,ना आया वोह दी कितनी दुहाई
सोचा चलो बन जाए अब खुद अपनी गवाही

 जम गयी काई दिल के पयोधि में
जम गया नीर दिल के नीर निधि में
भावों का जमघट छंटने सा लगा है
दिल में जो उमड़ा था मिटने सा लगा है

हर शख्स यहा बादल सा आकार बदलता है
अपने ही तस्सुवर की डोली में वो सजता है
ढोता है खुद अपना जनाज़ा अपने ही काँधे पर 
जीवन के हर इक  ढंग से बेजार  गुज़रता है


अपनी ही राहो में सिमट जाने का जी चाहता है
अपनी ही आहों से  लिपट जाने का जी चाहता है
लौट कर नहीं आता जो चला जाता है 'नीरज '
अपनी ही बाहों में सिमट जाने का जी चाहता है

अतीत बना खारा जल

 अतीत बना खारा जल
  बहती है पुरवाई  जब बीते हुए पल की
  दे जाती है कई अर्थ खोते हुए कल की
 धुंधला  था अतीत जो  वक्त के कोहरे से
  चुपके से छलक जाए  बन बूँद खारे जल की

प्रकट हुआ भानु सा सुधियों के झरोखे से
चमका फिर  कनक सा अंधेरों के झुरमुट से
दिन रात जगाता है अलख यादों के समूह की
यह अतीत है जो बन जाता बूँद खारे जल की

यह वक्त का झोंका जो सरक हाथ से जाता
ग्यानी सा दे ज्ञान न पलट फिर कभी आता
तस्सुवर यह बीते पल का जोहो जाता एकाकी
यह अतीत है जो बन जाता बूँद खारे जल की


सोमवार, 12 दिसंबर 2011

भ्रम !!!

भ्रम !!!
मुझे अपने भ्रम पे भरोसा है
तुम अपने भरोसे पे भ्रमित रहो
जी लूँगा जीवन जी भर कर मैं
तुम अपने काल में ग्रसित रहो
नफरत का पीयूष पी कर तुम
 क्यों करो  प्रयत्न  जी जाने का
पी प्यार का हाला अपने उर में
मैं  अभिलाषी मर जाने का
प्यार के तंतु बन-बन कर मैं
प्यार  के परदे बुनता हूँ
उनके पीछे फिर चुप चुप कर
तेरा अक्स निहारा करता हूँ
तेरे इनकार से  मेरा विश्वास बढ़ा
तेरी ना में मेरी हां पली
तेरे तजने से तुझे गरूर हुआ
 अफ़सोस ! तेरी जीत में तेरी हार हुई
मैं जीता था ! मैं जी लूँगा
अपने इस प्रेम के श्वासों पर
तुम जीते थे ? क्या जी लोगे ?
तज कर भ्रम के विश्वासों को
चलो मान बढाओ इस भ्रम का
जो भ्रमित हुआ उसे रहने दो
इस भ्रम से बड़ा ना कुछ भ्रम है
इसे शान से दिल में रहने दो

एक टूटा हुआ सच

एक टूटा हुआ सच

जिंदगी का सच बहुत कडवा है
इसलिए सपनो की चादर ओढ़े  रहता हूँ
कल्पनायों में पीयूष पान करता हूँ
और दो चार क्षण जीने की कोशिश करता हूँ
सच है ख्यालो से पेट नहीं भरता
पीड़ा ख़तम नहीं होती
लेकिन दो चार क्षण भ्रम में जी लेने से
इतनी पहाड़ सी  जिंदगी ख़तम नहीं होती
कुछ उत्साह बढ़ता है कि.....
शायद ................
सपनो मैं पायी ख़ुशी...........
सच जीवन का एक हिस्सा ही बन जाए
इसलिए मित्रो ! मैं स्वप्पन देखा करता हूँ
कभी खुली पलक और कभी बंद आँखों से
सब कहते है  सच से मुख मोड़ता हूँ मैं...
लेकिन भोले लोग यह नहीं समझते कि
इस तरह मैं  सच को जोड़ने की कोशिश करता हूँ

शनिवार, 10 दिसंबर 2011

अलफ़ाज़ देते रहे आवाज़

अलफ़ाज़ देते रहे आवाज़

खामोशी सर्द कोहरे की  तरह जीवन में उतरती रही .साथ चलती दो रेल  के पटरियों की तरह हम एक दूसरे को  देखते साथ साथ चलते रहे .
नयन अचंभित,विस्मित हुये अपलक पथ को निहारते थे .रास्ता बहुत  लम्बा हो चला था . कुछ बुदबुदाहट स्वत:ओंठो से प्रस्स्फुटित हो जाती.
ख्यालों का ठंडापन स्नायु तंत्र को  शिथिल कर  देता था . दूर कच्चे घरों से निकलता आग का धुया कही कही जीवन चिन्ह छोड़ जाता था .कभी कभी चंद अलफ़ाज़ कुछ आवाज़ दे जाते थे .....बुला जाते थे.....सहला जाते थे ......यादो के रूख को एक नया मोड़ दे जाते थे .....तब दूर नभ पर चमकता  अपनी अरुणिम आभा बिखराता सूरज भी दर्शन दे कर सारी बर्फायी  को अपने आगोश में छुपा लेता था ..आवाज़े एहसास में बदल जाती थी ...और कच्चे घरो से निकलता धुयाँ अब अपने साथ स्वादिष्ट खाने की महक लिए फैल जाता था ..............
 दैनिक दिनचर्या अपना किर्यान्वित रूप धर कर पिशाच  सी फैल जाती है ....बहुत लम्बा दिन...एक बोझिल सा दिन धीरे धीरे सरकने लगता है .
मुस्तकबिल तक पहुँचने के अथक कोशिश .......दूर करती है उसे अपने ही इरादों से ..............चौंक जाता है अचानक लगी ठोकर से .........फिर बढ़ता है ..बड़े बेमन से .......बड़े बेढब से .......बार बार दिनकर के रथ मैं जुटे घोड़े की चाप सुनता है और नपे हुये कदमो को गिनने को कोशिश करता है और फिर उंगलियों पर हिसाब करता है बाकी  बचे पगों का ,  जो अभी नापने शेष है ...........और वह फिर इंतज़ार करने लगता है रात होने की ....
जीवन चक्र है ..चलता रहे गा......  कुछ अलफ़ाज़ बस यूं ही आवाज़ देते रहेंगे ......शिथिल स्नायु तंत्र में प्राण फूंकते रहेंगे

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

प्रियतमा निराशा थी

प्रियतमा निराशा थी

उदासी की महक
रात भर आती रही
दिल के उपवन से
निशिगंधा ने जाने
अंसुवन पान किया !!

लौट चली हवाए
दे कर दस्तक दर पर
आज फिर किसी सौदाई ने
डूबती तन्हाई का
ऐलान किया !!

बनते  रहे ख्वाब
मिट मिट  कर जाने कितने
बिखरते शिशिर  ने
महकते मधुमास का
आह्वान किया !!

चहचहा उठे दीवाने
शजर पर परिंदे
 अलबेले मौसम ने
तडपती सदा का
भुजपाश  किया !!

प्रियतमा निराशा थी
पौरुष  था प्रियतम
आश दीप जल उठे
जब प्रियतम ने
बिलखती प्रियतमा का
अंगीकार किया !!!

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

जल कण

जल कण
श्यामल सी संध्या की
कुंतल केश राशि से
झरते हुए जलकण
भीग गया मेरा
सब तन -मन
नयनो के कोरों पर
रूक जाते स्फटिक से 
भावों की उद्विग्नता से
विचलित हो मन
प्लावन है जल का
चहूँ और मंडल पर
भूल गया सुध-बुध
जल प्लावित मन
रूठ गया मन का मीत
नम है धरा नम है गीत
तड़प उठे बार बार
भाव विहल मन














एक आभास !!



एक आभास !!
जिस का प्रकाश
नयनों के कोरो पर
पारा  बन कर
अटक  जाता है

एक आभास !!
जिस का एहसास
मन की देहरी पर
रंगोली बन कर
सज जाता है !!

एक आभास !!
जिस का विकास
जीवन की चौखट पर
जीवन बन कर
जड़ जाता है !!!

एक आभास !!
जिसका प्रवास
रात के उजालों में
छाया बन कर
घर कर जाता है

बर्फानी सर्द रातों में
गुस्सिली गर्म शामो में
तूफानी बरसातों में
अटल सा अड़ जाता है
एक आभास !
सिर्फ एक आभास !!!

बुधवार, 7 दिसंबर 2011

अबूझा दिनकर

 अबूझा दिनकर

एक अबूझा दिनकर है
ख्वाबो में खूब चमकता है
मिल जो  जाए धरती पर
अंधेरों में जा छिपता है
बेताब उमड़ता रहता है
मन की भाषा पढने को
दिख भी जाए दो शब्द नये
अपलक निहारा करता है
मौन मुखरता रहता है
लम्हा-लम्हा यूं सिमटा सा
पाने को स्नेह-सिक्त दो बोल
हर वेदन  को वह सहता है 
पीड़ा की तारों से गुंजित
वह अभिव्यक्त ,अभिलाषी
अपने ही तम को हरने को
वह एक रश्मि का प्रत्याशी
मत जी का जंजाल करो
उलटे सीधे न सवाल करो
उसका तेज़ चमकने दो 
अबूझे  को स्वीकार करो

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

जख्म हरा हरा सा है

 जख्म हरा हरा सा है 

यह दर्द भरा भरा सा है
 यह जख्म हरा हरा सा है 
यह गीत अधूरा अपना है
कोई सोज़ भरा सपना है
चुभते थे लफ्ज़ जमाने के
उभरे थे हर्फ़ अनजाने  से
लौ शम्मा की तडपाती थी
जलते परवाज़ परवाने के
बन कर आता था मीत कोई
चल चार कदम संग बैठ गया
अपने दर्पण में जकड  मुझे
समझ चित्र दीवार पे टांग गया
है कौन समझ पाए मन को
अब  कौन समझाए उस जन को
खोल अपने मन के भेदों को
प्रेम  के बंधन  तोड़ गया



दास्ताँ- यह जीवन की

दास्ताँ- यह जीवन की

चलो छोड़ो ,रहने दो
दास्ताँ- यह जीवन की
कही हमने  ,सही हमने
दास्ताँ- यह जीवन की
मिले जब थे ..सिले लब थे
अधूरी ही रही अब
दास्ताँ- यह जीवन की
हाशिया जब खींच डाला
दिल के पन्नो पर
बने, बिगड़े ,याँ सिमट जाए
दास्ताँ- यह जीवन की
कट गयी है आधी ,
बाकी भी गुज़र होगी
पूरी हो ही जायेगी
दास्ताँ- यह जीवन की
मिले बिछड़े ,मिले बिखरे
धारे मिल ही जाते हैं
धारा की रवानी है
दास्ताँ- यह जीवन की

रविवार, 27 नवंबर 2011

क्या सारा जहां मुझे चाहिए ?

क्या सारा जहां मुझे चाहिए ?
जीवन के रंग ऋतुओं के संग बदल बदल कर एहसास करा जाते हैं कि धरा परिवर्तन शील है . दुःख -सुख के संगम के किस्से बहुत पुराने है .लकिन अनुभव हमेशा नया दे जाते हैं.भावनाएं फिसल कर उनके कदमो में लिपट जाती है तो वह भी अपने अस्तित्व को हिमालय की शिखरों सा ऊंचा कर लेते हैं .और अगर मन के कोमल भाव सागर की तरंगो जैसे उठ कर सर को छु जाते हैं तो वह भी नगण्य हो जाते हैं . कोई दर्द को सहला गया तो मीत बन गया .कोई दर्द को कुरेद गया तो बेगाना सा लगने लगा .समतल जमीन नहीं मिलती कभी..बस उबड़ खाबड़ रास्तों पर यूं ही चलना होता है . कोई सुर लग गया तो गीत बन गया और अगर कोई तार टूट गया तो राग हो रूठ गया .दिया बुझा और जला ..इसका ज्ञान स्वत ही करने लग गया तो समझो जीवन सार्थक होने लगा .मन के बंधन भी अनूठे से लगते हैं.सब कुछ पा कर भी चाहतो का सिलसिला चलता है और सब को चाह कर भी कुछ रीता रीता सा लगता है .जहाँ में क्या सच और क्या सपना है ? सच कहीं सपना और सपना कही सच हो तो क्या सारा जहाँ शूल और फूल के भेद का अभेद कर पायेगा ?मेरा यह सारा जहाँ है और मैं इस जहाँ का हूँ . यह भाव कितनी सार्थकता रखते हैं ...जीने को खुली हवा और जल चाहिए ..........उड़ने को अनंत आकाश ...सब को यही चाहिए ..मुझे भी यही चाहिए ..तो क्या सारा जहाँ मुझे चाहिए......

शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

गहराई जीवन की

गहराई जीवन की

वक्त के बहाव के साथ बहते बहते हम कहा से कहा आ जाते हैं .कई बार दिशाएँ भी बदल जाती है .और इस का एहसास हम तब कर पातें जब कभी किसी मोड़ पर रूक कर पीछे मुड़ कर देखते हैं. अत: रूकना भी आगे और सही दिशा में बढ़ने का एक अहम् हिस्सा है....
विभिन्न धारायों के साथ भिन्न लोगो से मिलना होता है .
कुछ को हम समझ नहीं पाते ..और कुछ हमें समझ नहीं पाते........और इंसान अपने आप से लड़ता ,अपने आप को समझाता, सहलाता ,दुलराता अकेले ही तन्हाईओं  के गर्त में गर्क हो जाता है  .........और इंतज़ार करता है सदियों से जमी हुई  बर्फ के पिघलने का ....वह बर्फ .जो धूप के झुंडो से डरती है और अँधेरे की  तरफ लपकती है ....वह बर्फ जो दिन प्रति  दिन और बर्फाती है ..वह बर्फ जो जरा सी उष्णा  पा कर आंसू  बहाती है और फिर अपने ही आंसूयों से घबरा कर ठंडक के चादर ओढ़ कर किसी कोने में दुबक जाती है ..फिर जम जाने के लिए ...

खत्म नहीं होता यातनायों का चक्र ..जीने की ललक कुछ गहरी हो जाती है ........बिम्ब और प्रतिबिम्ब झुठलाने लगते है ...आसपास का शोर आवाज़े लगने लगती है ........अपनी बर्फ की चादर हटा कर मन चुपके से बाहर झाँकने की कोशिश करता है......वसंत के फूल कभी कभी शिशिर के सूखे पते नज़र आते हैं तो फिर मुख मोड़ लेता है ....अनगिनत शंकाएं है ..किस किस को सुलझाए ..मन अपने ही भ्रम जाल में क्यों ना बैठा रह जाए ..  कदम ठिठक जाते है ..गति अवरुद्ध  हो जाती है ...हर एक कदम भारी जान पड़ता है ..रूक कर निहारता है ..पीछे मुड़ कर देखता है ..चिंतन करता है और फिर बदली हुई दिशा के ज्ञान को पा कर कदम उठा लेता है आगे बढ़ने के लिए.........यही जीवन की यात्रा है ...

कल अब ना होगा

कल अब ना होगा
कल तो कल है
कल ही रहे गा
कल- कल करके
बह जाये गा
कूल पर रह कर
पकड़ेंगे कल को
कर से फिसल  कर
फिर कल बन जाएगा
कल का ऐतबार करे क्यों
ना कल आया था
ना कल आएगा
माटी के घरोंदे है
बेपंख परिंदों के
कल के काल में
अकाल हो जाये गा
चलो जोड़े तिनका तिनका
बनाए नीड़ आज का
जीयें खुल कर पल दो
 वरना आज का पल भी
कल हो जाए गा

बुधवार, 23 नवंबर 2011

सोया तूफ़ान

सोया तूफ़ान
चेतनता का हुआ शंख नाद
उठने लगी अंतस  में ज्वाल
फड़क उठे सब बाहू चाप
हिल  उठी धरा ,नभ ,पाताल
उठ बढे पथिक सिंहो की चाल
ग्रसने जीवन का शिथिल काल
मृतिक  शिरा में आयी जान
जाग पड़ा सोया तूफ़ान !!
मेघ  छलकाए अमिय कुंड
बही समीर प्रबल प्रचंड
द्रुत दामिनी की कौंध चौंध
हरती मन तम भरे ओजस औंध
बीहड़ पथ के करुना क्रन्दन
लगे चहकने लिए विजय सोंध
नर्तक हुयेसब  जो थे बेजान
जाग पड़ा सोया तूफ़ान !!

दीप तुम जलते रहो !

दीप तुम जलते रहो !
डाल बाती चेतना की
तेल ले संज्ञान का
ज्ञान को नयी  दिशा दो
चीर आँचल अज्ञान का
विफलता का जले शलभ
उदित हो नव सफलता
तार तार  हो भसम
अवसादित शिथिलता
पल में बीते वृहत युग
हर युग में सृजित रहो
हरने को तिमिर सारा
दीप तुम जलते रहो

साधना का मधुर गुंजन

साधना का मधुर गुंजन
ज्योति जीवन की  जलाए
भव्य सपनो को सजाये
कर रहा संघर्ष पथ पर
दुःख को भो सुख समझ
व्यथित ना मन  अकिंचन
साधना का मधुर गुंजन
कर रहा निर्माण भू पर
आज अंतर में निरंतर
जिजीविषा का दान भरता
ज्योत जीवन ले विचरता
क्रांति का फैला के रज-कण
साधना का मधुर गुंजन

सोमवार, 21 नवंबर 2011

अधूरी यात्रा

अधूरी यात्रा
देहरी पर आकर
सहसा आयी एक आवाज़
चौंका देती है
छू कर चली जाती है मन को
झकझोर जाती है तन को
और मैं
अवाक ,हताश , पकड़ने की कोशिश में
उसके पीछे दौड़ता हूँ नंगे पाँव
दूर तक अँधेरा है
जुगनू की मद्धम रौशनी चमकाती है
आवाज़ नेपथ्य से बुलाती है
मन ज्वाला मुखी सा फट
लावा उगलता है
गर्माता है, दहकाता है ,
तेज़ लपटों के साथ अंतस को
जलाता है
आवाज़ फिर गूंजती है
जिस्म में जान फूंकती है
और मैं  फिर दौड़ पड़ता हूँ .
अपने गंतव्य की और ..
पूरी करने
एक अधूरी यात्रा ....

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

तृष्णा

तृष्णा

भावनाओं के परिंदे को
ऊंची उड़ान ज़रा भरने दो 
आकाश अनंत है
स्वछंद विचरने दो
थक जाए गा उड़ कर खुद ही
तो ढूँढेगा कोई  आशियाँ
पाने को कही चैन दो पल का
देगा कई इम्तहान
मन अंतर्मन से  लड़ता है
बस संवादों में  उलझता है 
तर्क-वितर्क   के धागों  से
जीवन के तंतु बुनता है
दिल की  बाते करता है
पर मन ही मन में डरता है
भावों की बाते करता है
अपनाने से बचता है
मर्यादा का जिक्र करेगा कौन
निर्धारित सीमा से क्या होगा
यह मन के अपने ही बंधन है
जो खुल कर जीने से डरता है
गर चाह  करो , स्वीकार करो
जितना जी चाहे प्यार करो
असीमित परिधि है जग मंडल की
जिस पर चाहो उपकार करो
अफ़सोस ! निज  स्वार्थ पिपासा में लिपटा
मन भूला भटका फिरता है
पहन कर माला तृष्णा की
अतृप्त अधूरा जीता है
त्रिश्नाएं   जीवन की
बस मन को भटकाती है
सम्पूर्णता में भी सब को
आधा पन  दिखलाती है





गुरुवार, 17 नवंबर 2011

आ ही गई अब मेरी भी बारी

आ ही गई अब मेरी भी बारी

दुल्हन की तरह सजाया मुझे
कहारों ने काँधे उठाया मुझे
तरसती रही जिस पी के मिलन को
आज खुद वो लेने आया मुझे

रखा संभाले मुझे मेरे अपनों ने
बिताया था जीवन संग मेरे सपनो के
आज उन सब ने ठेंगा दिखाया मुझे
अकेले ही पी संग भिजवाया मुझे

बहुत नाज़ था जिस पंचतत्व  वदन पर
क्षण भर में खोया सा  पाया मुझे
धूं- धूं जला जब चन्दन चिता पर
अस्मित रश्मियों सा लुटाया मुझे

आनी है बारी एक दिन सभी की
जाना पड़ेगा ,तब जाना ही होगा
बजेगा ना ढोलक ,ना तबला सारंगी
अमर गीत आत्म का उच्चरित होगा

" आ ही गई अब मेरी भी बारी "

फिर आयी पवन ले तेरी छूअन

फिर आयी  पवन ले तेरी छूअन

भू मंडल पर फैला रहा मधु मॉस
हई प्राकृत व्याकुल लिए मन में आस
देख  चकवा - चकवी का अनुपम जोड़ा
धरा ने भी मिलने का गुंजन छोड़ा
आह्लादित हुआ नभ पा अवनि मिलन
फिर आयी  पवन ले तेरी छूअन !!!
ललित हुई बेलें लपक कर फिसलती 
तरुवर की  डाली से बढ़ कर लिपटती
उड़े मेघ नभ पर आह्लादित आनंदित
तुहिन  श्रृंखला जब चुम्बन है करती
हर्षित वसुंधरा निरख अद्भुत मिलन
फिर आयी पवन ले तेरी छूअन !!!!
अमावस की काली भी  पूनम सी ज्योतित
कमल नयनी बिन आभूषण सुशोभित
पौरुष  हुआ फिर जीवित और गर्वित
बजी तान संयोगो की ,हर जर्रा  हर्षित
खिल उठा मंजुल मन खिलता सुमन
फिर आयी पवन ले तेरी छूअन !!!!

मंगलवार, 15 नवंबर 2011

तालमेल

तालमेल

क्या कहते हो, क्या मैं कह दू
क्या सुनते हो ,जो भी कह दूं
क्या समझे हो ,वह जो कह दूं
क्या करते हो ,जो ना कह दूं
कान बड़े हैं  सब लोगो के
लेकिन दिल का माप है छोटा
सुन ले बड़ी बड़ी सब बातें
 गहरे दिल में लगे ना गोता
अपना दिल और अपना रोना
काल्पनिक सा सजा बिछोना
सजा सेज पर तो बस अपना
इनकार किया तो लगा खिलौना
नहीं किया था नहीं करूंगा
शुक रट जैसे रटता रहता
इसमें भी तो केवल अपनी
मन की ही  तो बात समझता
दोस्त ! तुमसे गहरा नाता है
चुप्पी को  समझ जाता है
भाव ,भावना और असलियत में
जो तालमेल बैठा पाता है

जीत तुम्हारी ही बस होगी

मेरी बेटी  के नाम ...

जीत तुम्हारी ही बस होगी

भीगी ओस के मोती जैसे
चम् चम् करते ज्योति जैसे
क्यों डरते हो निशा काल से
क्यों लड़ते हो अपने आप से
रत्न प्रकाशित मेधा वाले
स्वरण काल के हो उजियाले
बहो वक़्त के धारे जैसे
जीत तुम्हारी ही बस होगी
पग ठिठके तो थम मत जाओ
खा कर ठोकर गिर मत जाओ
स्वेद बहा है ,रक्त गिराओ
कनक तुम्हारी ही बस होगी
चलो चलो बस चलो चलो तुम
निश्चित  मंजिल पग धरो तुम
पढो ,बढ़ो और धार बनो तुम
अंत  तुम्हारी ही जय  होगी

शनिवार, 12 नवंबर 2011

दर्द का बुत


दर्द का बुत 

मिलोगे तो जानो गे कितनी उदास शामे है 
चमक जाती है चांदनी फिर भी काली राते है 
समझ बैठे हो जिसे तुम साँसे जीवन की
लेकर कफ़न चादर सा औडाने को तैयार बैठे हैं 
रह रह कर ठगती थी जमाने भर की खुशिया सब 
उठते थे दुःख के जलजले किसी दिल के कोने से 
पग बढ़ते थे मंजिल पर , रूक जाते थे कब्र पर 
छलती  रही मौत मुझे बहुरूपिये  सी तमाम उम्र 

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

दोस्त और दर्द


दोस्त और दर्द

दर्द तो जीवन का हिस्सा है
बिना दर्द के भी कही कोई किस्सा है ?
खुश  हो अगर तुम जमाना तुम्हारा है
मिले दर्द जीवन में बस दोस्त हमारा है
सुना था कि दोस्त को दोस्त ही बनाता  है
रस्म जिंदगी की बस दोस्त ही निभाता है
करे लाख शिकवे शिकायत ज़माना
पीता हैं आंसू और दोस्त मुस्कुराता है
लेता बलाएँ तमाम उम्र भर की
स्वयं मिट कर भी वह  दोस्त को बनाता है
नज़र कर देता है खुशिया वह सारी
दर्द को भी हर्ष का मुलम्मा चढाता है
बस इसलिए नीरज को दर्द ही तो प्यारा है
सच के धरातल पर दोस्ती बिछाता है

रिश्ते


रिश्ते

यह वादे यह कसमे यह रिश्ते सुहाने
लगते हैं जैसे खिलोने  पुराने
रखा सहेजे जिन्हें साल -सालो
महक सोंधी महुए सी  बिखरी  संभालो
साबुन की बुदबुद से उबले कभी यह
सागर की अंतस में छुपले कभी यह
मरुथल के    अंधड़  में हिल ले    कभी यह
पर्वत  की छोटी से  से मिल ले कभी यह
खिले धूप पूरब से या छाए अँधेरा
रिश्तो की काया में क्या तेरा क्या मेरा
प्राण बने रहते है युग युग कालो तक
जिन्दा गर रिश्ते है काल भी दे बसेरा

इन्तहा


इन्तहा

यूं तो थी छोटी सी  बात
दिल को दुखाती रही रात भर
रूह जैसे जुदा हुई जिस्म से
 आग दहकाती रही रात भर
चंदा ने पूछा सितारों ने पूछा ,
हर फूल डाली गगन ने भी पूछा
जबकि जानता था यह विश्व सारा
दिल ही में  छुपाती रही रात भर
पाया जिसे था बहुत दिन बाद
खुद  से छुपाती रही रात भर
जालिम थे लोग जालिम ज़माना
सबसे बचाती रही रात भर
हुई जब सहर और दिन का उजाला
पाया कि खुद  मरती रही रात भर
देखा ना जिस ने  तस्सुवर भी मेरा
कर याद उसको को रोती रही रात भर
बढ़ा और जब भी दीवाना पन यह
सफ़र फान्सलो का मिटाती रही
जीतेजी जिसने ना पूछा कभी था
दिया कब्र पर  जलाती रही रात 

मित्रता और मित्र


मित्रता और मित्र

जैसे कल्पना के कैनवास पर
अपने ख्यालो की तुलिका से
बनाया हुआ चित्र
वक़्त कहा है आजमाने को
दिल ही कहा है उसे समझ जाने को
चित्र से मिलता जुलता मिल गया तो
बना जीवन का अंग अभिन्न
और गर कही भेद हुआ तो
हुआ जीवन  उससे भिन्न
मन अपने ही जाले बुनता है
रोज़  नयी तस्वीरे गढ़ता है
और मित्रता के नाम पर
कोरे स्वांग सोचता है
पहनाता है नया जामा भ्रम को अपने
मन ही मन फिर बुनता है सपने
खोज नहीं पूरी होती है
और तन्हाई की चादर  ओढ़
उसकी दुनिया सोती है

अवसाद की दवा


अवसाद की दवा

यह अवसादों की खेती है
दिन दिन जो बढती है
बीज अगर सड़ जाए
तो भी यह चढ़ती  है
कल्पना के झूले में
निष्कंटक झूल रही
मन ही मन में ना जाने
कितने  शूल चुन रही
मुस्कराहट लब पर जो
धोखा है नयनो का
चुभे नश्तर अंतस में
रक्त धार सींच रही
नाम दे कर भावों का
बलिवेदी पर चढाओ मत
सुकोमलांग प्राणों को
यूं यातना दिलाओ मत
हो तुम अपने ,यह मन
भी तो बस अपना है
निज अहम् की आड़ में
यूं चिता में जलाओ मत
बयार बही जब अवसादी
तुषार पात का घात हुआ  
पीडाओ के चक्रव्यूह में
मन त्राहि त्राहि मान  हुआ
बस बोल एक प्यार का
जो मिश्री कानो में घोल दे
बस श्वास एक प्यार का
जो मृत में प्राण फूँक दे
शत्रु है अवसादों में
प्यारे का प्यारा बोल
नस नस में करे  सिंचित
प्रेम पीयूष मधुर घोल

प्यार बड़ा है


प्यार बड़ा है

कितने दिन से हूँ मैं तन्हा
कभी बात तो किया करो
कितने दिन मैं प्रेम को तरसा
कभी प्यार तो किया करो
रीत  गया है जीवन  सारा
इसरार तो किया करो
मन में जो प्रेम की कोंपल फूटे
कभी इज़हार तो किया करो
व्यतीत हुआ जाता यह जीवन
मन में छुप जाता है एक मन
मन के भाव यूं दब जाते दिल में
जैसे जीवन दफ़न हुआ जाता है
छोड़ो जग की  झूठी रस्मे 
तोड़ो  मन की फीकी बज्मे 
प्यार प्यार और प्यार बड़ा है 

बस हर पल स्वीकार किया करो 

भावना


भावना

अविरल यूं मेरी आँखों से बहते रहे  आंसू
आने वाले  हर लम्हे  को भिगोते रहे आंसू
चाह कर भी ना भीग सका बस एक ऐसा  मन था
आते जाते हर राही को रुलाते रहे आंसू
सुप्त वेदना हो पुनह जागृत, उत्कृष्ट हुई जाती थी
वैरागी पीड़ा से बोझिल विकल हुई  जाती थी
नयनो के कोरो से कतरा रिसते रहे आंसू
अवरुद्ध कंठ और रुंधे स्वर से कुछ कहते रहे आंसू
क्षीण हुआ नयनो का काजल आंसू की बूंदों से
भीग गया मदमाता आँचल आंसू की बूंदों से
भावुक मन में है उफान आंसू की बूंदों से
मन सागर में है तूफ़ान आंसू की बूंदों से
गीतों की बंजर धरती को उर्व्राते  रहे आंसू
बुझी श्वास में प्राण गीत सुनाते रहे आंसू
चाह कर भी जी ना सका बस एक ऐसा मन था
हर एक टूटे मन को आस बंधाते रहे आंसू

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

जीवन !!!

जीवन !!!
तमस घना चहुँ और है छाया
विपदा का आँचल लहराया
आशा का अब कहीं छोर ना !!

अंतस का मुख है कुह्म्लाया
पीड़ा  का कुहास है आया
कतरा कतरा बहे वेदना !!

जीवन भी है अजब सी  माया
छलने को फिर छलिया आया
पांखुर जैसे झरे चेतना !!

अंधियारे पथ को उजलाया
कर्मठता का पथ सुलझाया
जीवन जैसे व्यर्थ रहे ना !!

विश्वासों को दीप जलाया
मन मंदिर में तुझे बिठाया
 तिमिर रहे चहुँ और ना !!

ख्वाब कहाँ लिखे जाते हैं ?


कुछ अनघड कुछ  वैताली से
कुछ सूखे ,कुछ हरियाली से
कुछ सच्चे कुछ महज ख्याली से
कुछ भरपूर और कुछ खाली से
ख्वाबो की जागीरों वाले
केवल मुझको यह बतला दो 
ख्वाब कहाँ लिखे जाते हैं ?
सूखा पनघट ,गीला मरघट
मृत हुई आशा का जमघट
ढहते महल देखे ख्वाबो के
कुम्लाया मुरझाया अमृतघट
सत्य लेखनी से गर लिखू
सत्य कहूं तो लिखा ना जाए
सत्य्निष्ट के लेख पढूं तो
लिखे ख्वाब  धूमिल पड़ जाए
हार सत्य और विजय झूठ की
झुठला जाती भागीरथ प्रण को
ख्वाब बने और टूटा करते जैसे
 लहरे निगले  किसी रेत के घर को
ख्वाबो की जागीरों वाले
केवल मुझको यह बतला दो 
ख्वाब कहाँ लिखे जाते हैं ?

और बस्ती जलती रही....

और बस्ती जलती रही....
बेजान पत्थरों का शहर
कोई मूक आवाज
जोर जोर से चिल्लाती रही
लौट कर आती थी
हर आहट और कर जाती थी
आहत दिल को
तेज़  हवा
बुझती राख में
चिंगारी सी भरती रही
और बस्ती जलती रही
भर जाता था  कोई
हरे हरे जख्मो को
हरा कर जाता था  कोई
भरे हुये जख्मो को
शबनमी मुस्कान
रात  भर उस आग को
ठंडा करती रही
और बस्ती जलती रही 

यादे तो कोरा दर्पण है

यादे तो कोरा दर्पण है
तेरी याद का हर लम्हा
जब जब बोझिल लगता है
आँखों से आंसू बहते हैं
दिल कतरा कतरा गिरता है
सब आवाज़े गूंगी लगती है
बहरा हो जाता कोलाहल
बिरहा से  रीते पल पल में
इक आस का दीपक जलता है
रात की डोली में सज कर
जब याद दुल्हन सी आती है
अरमानो की भरी मांग
अंगडाई ले कर जगती है
यादे जीवन को उदास करे
यादे ही मन में उल्लास भरे
बन बन कर उभरे बहुरूपी
यादो से और भी प्यास बढ़े
यादे तो कोरा दर्पण है
एक अक्स दिखाया करती हैं
यथार्थऔर कल्पना के मध्य
इक संतुलन बनाया करती है

सोमवार, 26 सितंबर 2011

चन्दा से


चन्दा से 

चलो   हम भी जागे संग तुम्हारे 
विभावरी के कयी  रूप निहारे
देखे  निशि कैसे करे थिथोली 
तारा  गन की नयन मिचोली 
मादक निषिगन्धा की खुशबू 
संग लिये अपना हम जोली 
कैसे विरह संजोग को तरसे 
बिन बादल पानी जो बरसे 
मौन रागिनी करती  गुन्जन 
जब् आती शब् नम की टोली
लहरे हो जाती उच्श्रिन्खल् 
तोड् किनारे बाहर आती 
शङ्ख सीप मोती और कच्हप्  
करे अमर्यादित सागर की बोली
कही बाल निशा भूखी भी सोती
 रजनी तम की काली में रोती
कभी रात्रि बनी विकराल भयन्कर
कही सहम थिथक जाती स्वयम्भर् 
कभी करती मन की बाते चुपचुप्
और बेबाक स्वर् की कभी बोली 
चलो हम भी जागे संग तुम्हारे 
विभावरी के कयी  रूप निहारे

बाढ़ का प्रकोप

 बाढ़ का प्रकोप

धुलता रहा दर्द आंसूओ के धारा में
भीगता रहा मन जबकि था किनारे पर
जज़्ब बादल से बनते रहे बिगड़ते रहे
खामोशियों से हर सितम सहते रहे
कट गये थे पंख उस उमंग के ,मुस्कान के
जो की उडती थी कभी स्वछंद मन आस्मां पे
आश का हारिल भी सहमा सा नज़र आता है अब
दब गये  प्रयत्न सब वहशत के कब्रिस्तान में
हो गयी जल मग्न धरती , जल के उफनते भाव से
सो रहा है कर्णधार ,अपनी सुखों के नाव मैं

शनिवार, 24 सितंबर 2011

अपने अपने अजनबी

अपने अपने अजनबी

कौन तुम
बड़े पहचाने से लगते हो
धरती पर उतरे हो
आफताब से
याँ कल्पने के नभ पर
महताब से लगते हो
अनल में शीतल से
और शीतलता मैं
अंगार से दहकते हो
आरोह बन राग की
सरगम बनाते हो
और बन कभी विवादी स्वर
सबसे अलग हो जाते हो
पा कर तन्हा मुझे
झट मन आँगन में आ जाते हो
निरख भीड़ लोगो की
मुझे तन्हा छोड़ जाते हो
महकते  उपवन का हो सुमन
या उम्मीदों से महका हो चमन
मरूथल का शूल हो
जो देता मीठी सी चुभन
या मृग मरीचिका हो मरू की
जो आर्द करती मन नयन
भिन्न राहें ,भिन्न मंजिल
भिन्न है अस्मित वजूद
दूरियां हैं मीलो की
पर फिर भी तुम
कितने करीब
कौन तुम
बड़े पहचाने से लगते हो



शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

विपत्ति काल

विपत्ति  काल
एक खौफ तरनुम गूंजा था
हर जमघट  और चौराहे पर
बे-आब हवा भी गुमसुम थी
हैरान खड़ी दौराहे पर
लो लुट के चला फिर चैन -औ -अमन
हस्ती  भी थी बौखलाई सी
धुंधले पड़ते थे  चित्र सभी
कोलाहल के वीराने मैं
ध्वस्त हुई आपेक्षायें
हुये तिमिर सभी  दिवा स्वप्न
नर जन के सैलाब में ढूंढे
मन अपनों का अपनापन
हुये तार तार मंजुल मन यूं
जैसे कि दामिनी हई तडित
नन्हे नन्हे अवयव से बनकर
पीड़ा भी हो उठी मुखरित
बस सार एक ही बचा शेष
जीवन बना जब व्यथा क्यारी
चार स्तम्भ अब शेष बचे
धैर्य ,धरम ,मित्र और नारी

बुधवार, 21 सितंबर 2011

आत्म मंथन

आत्म मंथन
वीणा के तारों में
 अजब सा कसाव है
बजता है  सरगम नया
फिर भी मन उदास है
मीठे बोल मिश्री से
 फीकी मिठास है
पी लिए समुन्दर आंसू के
फिर भी अभी प्यास है
जमी बर्फ गर्म दिल पे
कैसा  यह कुहास है
इठलाते आषाढ़ में भी
रीता सुहास है
मृत हुई आशाएं
उत्साह की फिर भी आस है
नव चेतना जगाओ अब
ज्योत्स्ना बुलाओ अब
थकित हुआ मार्ग में
 देहरी  से मिलाओ अब

पूर्णता

पूर्णता
उमड़ पड़ा फिर सागर
देख विधु की पूर्णता
भर लाया नव रस गागर
देख विधि सम्पूर्णता

खिल उठा मधुमास
देख प्राकृतिक विकास
छाई सुन्दरता परिपूर्ण
निखर यौवन अपूर्व

आया ठिठुरा  शिशिर
फैली पूर्णता प्रचुर
धरती का अंग अंग
ढके  दल और भृंग

सच है ! खुश होती सज्जनता
देखि पर पूर्णता
हा विकास, हा प्रमोद
कहती  दुर्जनता

मैं साथ हूँ तेरे

मैं साथ हूँ  तेरे
कहा तुम ने " मैं साथ हूँ तेरे "
मैं हर इक जर्रे  में
तेरा अक्स ढूँढती रही
लम्हा दर लम्हा रिसता
रहा दिल से लहू 
मैं दिल के गलियारे में
नयनों के पनघट से
 अश्रु घट भरती रही
पग पग पर रहा देता
काल मुझको चुनौती
शबनम की बूंदों से
संताप मन का  धोती रही
सुनती थी तू रहता है
हर एक अँधेरे में
बन जुगनू मैं राहो को
रौशन बस  करती रही
कही टूट ना जायूं मैं
इस बात का था डर मुझको
अंदर ही अन्दर कही
तेरे नाम से जुडती रही
आएगा तू खुशबू की तरह
इन तेज़ हवायों में
यह सोच कर  हर गंध को
 मैं साँसों मैं भरती रही 
है अब भी मुझे खोज
उस अक्स की तेरे
जो बूँद की तरह गिर सीपी पर
मोती सी बनती रही

ना करेंगे तेरा इंतज़ार

जी था  बेकरार
रहा रात भर इंतजार
भोर का तारा आया
तो सोचा शायद
कोई पैगाम लाया
झांक कर देखा गली में
कोई भी आया ना था
जिस को पा कर
हो रही थी हर्षित इतना
वोह केवल एक साया था
भेजे लाख सन्देश
हुआ मन मन में  अंदेश
आयी खुद पे हंसी
कैसी मूर्खता घनी
हवा चंचल बड़ी
कैसे कर में बंधी
दिल हुआ तार तार
हुआ आहत  करे  पुकार
सुनो तुम भी चीत्कार
खुश रहो जहां में
ना करेंगे तेरा इंतज़ार

तुम !!!

तुम !!!

हर बार की
इस बार भी
तुम !!!!!
आये और
बात बना कर
चले गये
और मैंने !!!
तुम्हारे जाने के बाद
यह
समझा ,जाना ,और पहचाना
कि
तुम ! आये थे

अनोखा मिलन

अनोखा मिलन

झुक रहा था नभ
छू लेने धरती को
आकुल थी अवनि भी
अम्बर में छुपने को
संजोग की बेला में
फैला नव रस चहुँ और
गुंजित हुईं दिशी दस
फैला सर्वत्र शोर
खामोश थी धरा
चुप हुआ गगन
अचंभित थे तारागन
निरख अनोखा मिलन

शनिवार, 17 सितंबर 2011

नीड़

नीड़
नीड़ बनाया बड़े जतन से
जोड़े  तिनका तिनका
तेज़ हवा का झोंका आकर
तोड़े    जैसे सपना
भीगे नयन ढूंढे द्वार को
स्वागत करते वन्दनवार को
रौशन होती हर दीवार को
सोंधे सोंधे बसे प्यार को
उर  संचित अपने संसार को
सब कुछ नष्ट भ्रष्ट था ऐसे
रीत गया सागर तट जैसे
उर की भाषा पढ़ी उर ने जब
संचित कर टूटे मन को तब
सुंदर  सुखद इक भुवन बनाया
प्रेम का उस में दीप जलाया 
साहस का तेल ,आशा की बाती
जीवन पथ पर जले दिन राती
अपना वादा बस अपने से
हर पल यह एहसास दिलाती






गुरुवार, 15 सितंबर 2011

निर्देश

निर्देश

जीवन में कभी कभी कुछ पल ऐसे भी आते है
गुनाहों के किसी का बोझ  सिर अपने उठाते हैं
भंवर में डूब जाते है सब बड़ी आसानी से
ऐसे  चंद ही होते हैं   जो भंवर में तैर जाते हैं
हार से डर भागते जो जीत पाने को
कदम मंजिल से पहले ही उनके लडखडा  जाते हैं
बने है स्तम्भ वो  इतिहास के करोगे जब कभी विवरण
शरो की शैया पर भी  भीष्म सा जीवन बिताते  है
मत करो हिसाब कर्मो का उँगलियों  पर तुम  नीरज
जो साधक कर्मयोगी है ,लघु पग  से ब्रह्मांड नाप ही जाते है

प्यार अनमोल रिश्ता है

प्यार अनमोल रिश्ता है

कोई कहता सब चलता है
कोई कहता व्यर्थ रहता है
कहता है कोई " बेवफा है "
कहा किसी ने "खफा-खफा है "
कहें कोई बादा फरामोश है
कहें कोई कही गुम ,मदहोश है
भावों में कोई व्यर्थ नहीं पलता है
गर समझ पाओ तो जानोगे  ए दोस्त
विश्वास के तराजू पे तुला
प्यार अनमोल रिश्ता है



चलो कुछ कर दिखाएँ

चलो कुछ कर दिखाएँ


हर रात की तरह चांदनी आँगन में आ कर बिखर गयी .लेकिन आज  वह आर्द थी
देख रही थी भीगे नयनो से मुझे और जैसे कह रही हो कि" तेरी वेदना में मैं भी शामिल हूँ "......
रात भर शबनम गिरती रही और भिगोती रही सारी वनस्पतियों को जो सुबह होने पर यह बता गयी
कि रोये  हैं हम सब साथ साथ .... भोर का तारा टिमटिमाया और यह पैगाम लाया कि आओ !  तक रहा हूँ बाट तेरी ,डबडबाई आँखों से बहे है जो भी आंसू , झिलमिलाते है , टिमटिमाते है तुम को बुलाते है और कहते हैं कि 'तेरी इस टिमटिमाहट की टीस में मेरी भी  भागीदारी है '
 बादलो की ओट से बिखेरी  रश्मिया जब चमकते सूरज ने तो  देखा ..बुला रही थी वसुंधरा ,बाहे फैलाए , मुस्कुराये , हिम्मत बंधाये , और धुल गयी सब वेदना ........सोचा हम ने भी कि चलो कुछ कर दिखाएँ ..........

एतमाद

एतमाद

मिलोगे जब कभी इत्तफाक से
 जीवन के चौराहे पर
तो क्या जान लोगे कि
यही है  दिल जो धड़का था
कभी खातिर तुम्हारी
यही थे नयन जो तकते थे
कभी राहें  तुम्हारी
मिल भी जाओगे तो
क्या होगा कभी एतमाद कि
यही वोह रूह थी  जो
भटकी थी दिन रात
पा जाने को
इक झलक तुम्हारी
ना भूलोगे कभी
है यह एहसास भी मन को
पाओगे जब कभी तन्हा अपने आप को
तो बरबस मुस्कुराओगे
करोगे याद और फिर गुनगुनाओगे
हाँ इक पगली थी
जो कर जाती थी
व्यथित राते तुम्हारी
छनकती घूंघरूयों से
खनकती चूड़ियों से
महकती सुरभियों से
दहकती जुगनूयों से
वोह इक चमकती आभ थी
जो कर जाती थी
रौशन राहें तुम्हारी
भ्रम है याँ सच है
पर मन में कुछ पलता है
जो दुर्बल होते जीवन को
इक आशा से भरता है
आशा जो देती सुर में ताल
आशा  धोती मन का मलाल
आशा जो देती तन  में प्राण फूँक
आशा जो देती नव आशा की कूक

नन्हा दिया

नन्हा दिया
दूर पहाड़ी पर
इक झोंपड़ी में
इक दिया
टिमटिमाता है
और वह नन्हा दिया
टिमटिमाता हुआ
कुछ इंगित करता रहता है
कई बार सोचती हूँ कि
लिख डालू वह सब
जो मैं कह नहीं पाती
फिर सोचती हूँ कि
लिखा हुआ पढ़े गा कौन ?
और गर पढ़ भी लिया
तो समझे गा कौन ?
भाव उध्वेलित होते हैं
और बस मन में ही
रह जाते हैं
अभिव्यक्ति की कामना ले कर
पुनह सुप्त हो जाते हैं
और दिया टिमटिमाता
अपनी लौ फैलता
जलता रहता है ........

बुधवार, 14 सितंबर 2011

विनती

विनती
बुला लो मुझ को फिर तुम मेहरबान हो कर
झांकता कनखियों से आज भी वो मंज़र
मिले थे जब मुझे तुम  निगहबान हो कर
बिछड़ा  हूँ मैं दरिया से ,बहता हुआ इक धारा
भटका हूँ बहुत मैं  ,बेकल खोजूं इक किनारा
सौगंध  है तुम को  इन  बिगड़े मझदारो की
रहो बन कर मेरा माझी ,बढ़ कर दो सहारा
संभालो मुझ को फिर तुम खेवन हार हो कर
 बुला लो मुझ को फिर तुम मेहरबान हो कर

नाम तेरा

नाम तेरा

चिराग गुल होते ही ख्याल जगमगा उठे
 राहों में उजाला तेरे नाम का फैला रहा
चिलचिलाती धूप थी और खोजती थी शज़र
सिर पे  साया तेरे नाम का फैला रहा
पत्थरों का शहर था और  ना था कोई हम नफस
साथ बस मेरे तेरा नाम यूं  चलता रहा
कट ही जाएगा कभी वीरानीयों का यह सफ़र
गर नाम तेरा साथ मेरे हमसफ़र बन कर रहा


शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

संध्या की बेला है !

संध्या की बेला है !!
व्याकुल हो विहग वृन्द
लौटे घर अपने को
सरिता भी दौड़ चली
सागर से मिलने को
दिवस यहाँ तड़प उठा
निशा के समागम को
नभ ने बढ़ चूम  लिया
क्षितिज में धरातल को
मन में आज उतर आया
शिशिरों का मेला है
घर की देहरी पे जला
मेरा दीप अकेला है
संध्या की बेला है !!
वंशी की स्वर लहरी
छेड़े राग भोपाली
टिम टिम तारों के संग
नाचा चंदा दे ताली
जूही बेला निशिगंधा
चल पड़ी महकने को
तैयार है रजनी भी
दुल्हन सी सजने को
नयनों में उतर आया
अश्रु का रेला है
घर की देहरी पे जला
मेरा दीप अकेला है
संध्या की बेला है !!!

मंगलवार, 6 सितंबर 2011

हम जाने क्या कह जाते हैं

हम जाने क्या कह जाते हैं
कोरे कागज़ के टुकड़ो पर
शब्द दो चार बिखराते हैं
यथार्थ और कल्पना की कूची से
जीवन के चित्र बनाते हैं
हम जाने क्या कह जाते हैं
कुछ धुन्दले कुछ उजले चित्रण
कुछ श्वेत श्याम ,रंगीले चित्रण
हँसते और बिलखते चित्रण
कुछ घोर निराशा में है डूबे
कुछ उज्जवल आशा से निखरे चित्रण
कुछ आस दिखाएँ आते कल का
कुछ त्रास बताएं बीते पल का
रंचक रोष ईष्या और द्वेष को भूले
रंचक प्रेम वात्सल्य में डूबे
कुछ भाव हमारे केवल अपने
कुछ ख्याल तुम्हारे लाये सपने
हर बोल नया दोहराते हैं
हम जाने क्या कह जाते हैं

क्या तुमने मेरे स्वप्प्न पढ़े हैं ?

क्या तुमने मेरे स्वप्प्न पढ़े हैं ?
मेरी बातों का भोला पन
भले  साहस का प्रमाण नहीं है
मेरी शक्ति और क्रिया कलाप की
शायद तुम को पहचान  नहीं है
रक्त दौड़ता है जो  धमनी में
उसमें उबलता तेज़ स्राव है
मन में मृत हुये जो सपने
उन में अभी बची  श्वास है
फूँक फूँक कर पग धरता जो
ऐसा समझ ना लेना अग्रज
सिर पर पहन केसरिया बाना
हूँ बन्दा बैरागी का वंशज
केवल गीत नहीं बेचे हैं मैंने
भावों को नहीं हर दम बोला
कर्तव्य निष्ठ और परायणता से
संकल्पों को मन में तौला
मत जग की बात करो मुझ से
मैं तो बस इतना जानू
कर्म मंच है यह जग जीवन
कर्म योग को मैं मानू
लिखे स्वाप्न जो मनस पटल पर
अभिलाषा  के स्याही कलम से
लक्ष्य शिला पर रहे गढ़े हैं
क्या तुम ने मेरे स्वप्पन पढ़े है ?

adhbhut darshan

अध्भुत दर्शन

चलो  छोड़ो जख्म पुराने सब
कुछ नये पन का एहसास करे
छोड़ कर  भूली बिसरी बातें
नव रस गीत गुंजार करे
वादे की ना कुछ बात करो
यह बात नहीं अब बहलाती
जो ना  हो पाए  जग संभव
वह मन को पीड़ा  दे जाती
देखो मौसम भी बदल रहा
यह प्राकृतिक नियम अटूट
सब  कुछ बदला करता है
 मैं और तुम क्यों रहे अछूत
परिवर्तन भी होता परिवर्तित
अजब काल के लेख लिखे
भाग्य की चूनर  रंगत बदले
परिवर्तन के बोल कहें
लो रंग सजा लो फिर उर में
फिर होगा जीवन सहज सुखद
वादों की टूटी कड़ियों में
जुड़ जाएगा अध्भुत दर्शन

शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

Jindagi

जिंदगी
देखा है  मैंने तुम्हे किसी  मोड़ पर
खड़े बेबसी में पुकारते हुये
त्रिन-त्रिन जोड़ कर नीड़ बनाते हुए
तेज़ हवा को एक क्षण में
उस नीड़ को बिखराते हुए
पैबंद लगे घागरे को
बूढी झुकी कमर पर लदे
सड़क पर कंकर  चुनते हुये
धंसी पीली आँखों को
किसी बचपन के साथ
भीख मांगते हुये
फिर भी तुम
कितनी हसीन हो
क्षण भर में बिखरे नीड़ को
इकट्ठा करती हो
बूढी झुकी कमर के
घागरे में आशा का
एक और पैबंद
जोडती हो
बुझी निराश पीली आँखों को
सपनो से भर  देती हो
और !!
बहारों के गीत गुनगुनाते
नये मोड़ की तलाश में
आगे बढ़ जाती हो !!
जिंदगी , ओ जिंदगी !
तुम कल्पना हो किसी कवि की
प्यार हो  किसी प्रेमी का
श्रद्धा हो, किसी पुजारी की
विश्वास को किसी भक्ति  का
उमंग हो मेरे बचपन की
महक हो मदमाते यौवन की
अनुभव हो बूढ़े सपनो का
लक्ष्य हो जीवन साधनाओ का
देखा है मैंने तुम्हे
हर मोड़ पर रंग बदलते हुये
कुछ मीठे और कुछ कडवे
पलों के निशान छोड़ते हुये 



गुरुवार, 1 सितंबर 2011

Niyati

नियति

अश्रु रहित वेदना
ले गयी हर चेतना
बहा भावों का मवाद
कैसा अजब इत्तफाक
हो कर हतप्रभ , अवाक
किया भाग्य से संवाद
क्या यही था झेलना ?

करे सागर हिल्लोर
पीड़ा का नही छोर
किया नभ ने प्रलाप
छेड़े सरिता अलाप
बहा झर झर राग
हुआ मन में मलाल मृत सुर, लय, ताल
क्या यही समर था छेड़ना ?

पड़ी धरा पर छाया
नन्हा फूल मुस्काया
लगे साल या महीना
चीर धरती का सीना
लेकर बड़ी नाजुक काया
नव अंकुरित हो कर मैं आया
यहीं था मुझे खेलना !!!!!

mulyakan

मूल्यांकन
क्या कर पाओगे मूल्यांकन ?
लोलुपता और तानाशाही का
जब ओढ़े बैठे हो आवरण
गिने पाप तुमने पोरों पर
करी झूठ  और झूठ  की गिनती
वचन भरा मिथ्या असत्य का
और सुनी मक्कारों की  विनती
अपनाया "विष कुम्भं पायो मुखं "
क्या कर पायोगे मूल्याकन ?
भ्रष्टाचार की भस्म रमाई
सुमति-कुमति की दशा भुलाई
रिद्धि -सिद्धि और कुख्याति का
ना कर पाए ठीक चयन
लिया सदा सच का दमन
क्या कर पाओगे मूल्यांकन ?
सर्व विदित है जगत में उक्ति
झूठ उड़ा बिन पंख अयुक्ति
धीरे चलता है सत्य का ध्योता
पर सच जगती पे बेफिक्र है सोता
अल्पाऊ है झूठ का वाचक
दीर्घायु है सत्य का वाचाक
हो निराधार इस का वरण
क्या कर पायोगे मूल्याकन ?


Toota kinaaraa

टूटा किनारा
मैं!!!! टूटा किनारा
एक ऐसी  नदी का
जिस का पानी सूख चुका है !
बिलकुल ऐसे .. जैसे
मानव
मानवता सा रूठ चुका है !
याद करता हूँ उछाल
जब भी उस बहते पानी का
तो अब भी भीग जाता हूँ
धारा मैं बहता बहता
कुछ कुछ रीत जाता हूँ !
रूक जाता था हर राही
देख मुझे मुस्काता था
बैठ किनारे ठंडी छाह मैं
क्लांत मन को सुस्ताता था .
अब मैं विलग हुआ जननी से
अस्तित्व हुआ मेरा मलीन
वो हास-परिहास ,वो कल-कल
इन सब से हुआ जीवन विहीन
नभ पर देखा करता हूँ मै अक्सर
उड़ते बेपर बादल के टुकड़े
भिन्न-भिन्न मुद्रायों में ढलते
बेपरवाह सब क्रीडा करते

देख शुभ्र शुष्क और रूखे बादल
शंकित मन में  प्रशन है उठता
औचित्य है क्या इनके अस्तित्व का
अंतर्द्वंद से उलझन करता
इस सूखे पन से क्या रिश्ता है
मेरा और इस शुभ्र  बादल का
एक धरा पर बेबस लेटा
एक उन्मुक्त है विचरण करता
ठहर गया जो जीवन ठहरा
चलंत हुआ तो जगत रुपहला
चल अचल के भाव को पढ़ कर
वक़्त की गिनती गिना करता हूँ
मैं!!!! टूटा किनारा
एक ऐसी  नदी का
जिस का पानी सूख चुका है !



jaroori to nahi

ज़रूरी तो नहीं

प्यार के बदले में प्यार मिले
यह ज़रूरी तो नहीं
हर रूह में भगवान मिले
यह ज़रूरी तो नहीं
नियति में परिवर्तन
महज़ इत्तफाक है
हर इत्तफाक में वही
नियति मिले
यह ज़रूरी तो नहीं
चल दिया कोई साथ
बस दो कदम
यह उसका एहसान है
रख सको गर
संजो कर इसे तो
यह तमाम उम्र की
मुस्कान है
बीते पल गुज़री घड़ियाँ
पुनह दोहरा पायें
यह ज़रूरी तो नहीं
घड़ियाँ पुनह लौट आयें
यह ज़रूरी तो नहीं
ढलती धूप में भी
सुमन खिलते देखे हैं "नीरज '
खिलती धूप में सब खिल जाए
यह ज़रूरी तो नहीं

बुधवार, 31 अगस्त 2011

Chuppee

चुप्पी

समझ नहीं पाया कि क्या राज है
इस चुप्पी में भी गज़ब की आवाज़ है
भीड़ में चुप रहती है
तन्हाई में नागिन सी डसती है
चला जाता हूँ  तो पीछे से बुलाती है
पा कर सामने नज़रे चुराती है
छोड़ जाता हूँ तो तरसती है पकड़ने को
और कभी थाम जो लूं हाथ बढ़ कर के मैं उसका
झटक देती है हाथ ,और आँखे दिखाती है
चुप चुप सी हो जाए तो है उदास यह चुप्पी
शर्माए, घबराए  तो है एहसास यह चुप्पी
तरसाए ,तडपाये तो है प्यास यह चुप्पी
मुस्काये लचक जाए तो है आस यह चुप्पी
वीरानियो में गुम हुई श्मशान यह चुप्पी
साधना से मिल गई तो ज्ञान  यह चुप्पी
मनु मनीषियों की बनी जान यह चुप्पी
हार में भी जीत का सम्मान दे चुप्पी
समझ नहीं पाया कि क्या राज है
इस चुप्पी में भी गज़ब की आवाज़ है

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

vandna

वंदना
अनजाना  पथ था
सघन तिमिर था
एकाकी था
ना  हमसफ़र था
थका थका सा
रुका रुका सा
ढूँढ रहा था
मंजिल अपनी
हिम्मत थी
टूटी जाती थी
साहस था
दम तोड़ चुका था
आशा का दामन
छोड़ चुका था
भूल के अपनी
संचित निधि को
गहन निराशा को
रुख  मोड़ चुका था
उच्श्रीन्ख्लता रो रो कर
अमिट छाप तब
छोड़ चुकी थी
हुआ आगमन
चन्द्र किरण का
चहुँ फ़ैल गया
उज्जवल उजियारा
सत्वर किरने
रजत वरण सी
चीरती जाती
कटुतम अंधियारा
उत्तर दिशी से
बन कर उतरे
देवदूत से
धवल सुधाकर
नीरज के कोमल
 अधरों  पर
मुस्काये और फैल गये
बन कर कुसुमाकर
हरियाली अब
चहुँ और थी
आशा की फैली
चादर में
साहस के मोती
झरते थे
प्रशस्त मार्ग को
रौशन करते
जगमग दीप
जला करते थे
धन्यवाद, हे सुकुमार !
मेरा ,तुझ को
किये समर्पित
हृदय दीप
शत शत नमन
करूं  तुझको







'

Anmol rhsy

अनमोल रहस्य

बादल दिनकर को ढक लें तो क्या सोचा
कि छोड़ दिया चमकना जलते सूरज ने ?
लाख बंद करके  रखो तुम लालो को बोरी में
जगमगाहट हीरों की कभी भी कुछ कम नहीं होती
बाँध कर दरिया को यूं हो गये अभिमानी
रवानी बहते दरिया की कभी भी मंद नहीं होती
बंनाओ लाख चिमनी तुम मोड़ने को रुख धुएं का
ऊपर बढ़ कर उड़ने की फितरत कम नहीं होती
करो तुम लाख कोशिशे करने की पंकिल " नीरज " को
पंक से ऊपर रहने की प्राकृत कम नहीं होती
मुश्किले आती है  जीवन में और आ कर लौट जाती है
छवि  साहसो और शौर्य की कभी धूमिल नहीं होती
ना गिरो गे तो क्या समझो गे कि चढना किसको कहते है
फिसल कर संभल जाने वालो की कीमत कुछ कम नहीं

रविवार, 28 अगस्त 2011

Aashaa

आशा
करता हूँ  अनुरोध यह तुमसे
मत करो पुन्य पाप का लेखा
जीवन के इस जल तरंग में
ना जाने कितने गीत  और बजने  है
चलते चलते यूं रूक जाता
गिरता जो तो संभल नहीं पाता
रज कण  से लिपट नहीं पाता
धूलि ना मस्तक पर धर पाता
करता हूँ अनुरोध यह तुमसे
मत करो हार जीत का विवरण
जीवन  के इस उतार चढाव में
ना जाने कितने जीत और सजने है

virh ki kitaab

विरह की किताब

दिल हुआ जैसे विरह  किताब
उलट पलट  कर पन्ने देखे
पर मिल ना पाया  कोई हिसाब
अंक गणित सब गलत हो गया
लिखे जुल्मे मिट  गये सब
सुरमई आँखों के कुछ सपने
जो रजत सरीखे चमचम करते
उत्सव करते इस जन मंच पर
 अब फीके फीके जान से पड़ते
थक हार सब बैठ चुके हैं
सूनी आँखों के पलक द्वार से
धुन्दले हो कर झर झर झरते
वैरागी मन को समझाते
साथ विरह के झूल  चुके हैं
रचना की रचना में रच कर
पिव रस पी कर भूल चके है
अम्बर से बरसे सुधियाँ तो
करते छंद मकरंद का पान
हास और परिहास को तज कर
पाते  दिल से दिल का अजाब
दिल हुआ जैसे विरह  किताब

शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

ek kanteela jhaad

एक कंटीला झाड़
उगता है
मरुभूमि में
भीषण गर्मी में
तपती रेत
चहु और
नमी तरसती
पानी को
पर झाड़ कंटीला
बड़ा हठीला
मौसम से लड़ता
शुष्क धरा से
वारि बूंदों का
अवशोषण करता
हर अंधड़ को
जम कर सहता
और यह कहता
मैं झाड़ कंटीला
ना मेरा कबीला
पर अलबेला
मरता है
जब सारा मरुथल
जी जाता मैं '
पी कर हाला

yh shahar

यह शहर
एक भयावह चीख
गूंजती है वीथियों से
सुनायी नहीं देती
शहर के लोग बहरे हैं
एक बुलंद आवाज़
उठती है बार बार
बोल नहीं पाती
शहर के लोग गूंगे है
दौड़ता है अपने
इरादों  के साथ
मगर चल नहीं पाता है
शहर  के लोग पंगु है
बुनता है ख्वाब कई
सुनंहले रुपहले
देख नहीं पाता है
शहर के लोग अंधे है
भरता है श्वास कई
ऊँची उड़ान भरने को
उड़ नहीं पाता है
शहर के लोग पंखहीन है
क्यों निवास करता है ?
ऐसे शहर में वह
जीवन कुछ गतिहीन सा
और लोग जहां मुर्दा है



dekh hai kabhi ?

देखा है कभी?
टूटते तारो को
डूबते मझदारो को
बिछड़े किनारों को
कटती पतंग को
उजड़ी  उमंग को
डूबते सूरज को
बिखरते नीरज को
देखा है कभी ?
बहता ही पानी है
श्वसित, जिंदगानी है
भावो का मोल क्या
यथार्थ की जुबानी है
चढ़ते को सलाम है
गिरे तो बस एक कहानी है
देखा है कभी ?
बनते कहानी को
मिटती जिंदगानी को
भीड़ में तन्हाई को
मिलन में जुदाई को
फूल पर धूल को
चुभते हुये शूल को
सिसकती स्मृति को
बेजुबान श्रुति को
देखा है कभी ?
पीतें हैं दर्द यहाँ
लेने को दो सांस
ढोते हैं बोझ यहा
छू लेने को एक आस

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

Himaalye se

हिमालय से
उज्जवल धवल हिमानी मंडित
मुकुट सुशोभित माँ के शीश
सजग प्रहरी उत्तर दिशि के
देता नित  पावन आशीष
उन्नत हिमगिरी से आच्छादित
नव चुम्बन के लिए खड़े
शस्य श्यामला भू किरीट में
मानो हीरक रत्न जड़े
नित्य प्रात: के प्रथम प्रहर में
विदू किरणों की बह धारा
रूप निखारे नित्य स्नान से
धोकर मानो मल सारा
ज्योति जलाने आता सूरज
उछेइश्रव रथ पर आरूड़
कण-कण में भरता उजियाला
करता तिमिर गहनतम दूर
त्रिविद ताप हारी मालिय मिल
गायन नृत्य विहार करे
और देवयानी प्रकृति की
आँगन में अभिसार करे
विविध वरण के पुष्प
और तरु वसन सजे हरियाली के
कंठ सुशोबित गंग माल से
और वक्ष भाग सु वनाली से
पद्मराग मणि मरकत से
भरपूर संपदा का दाता
पूज्य हिमालय अचल अडिग है
सदा हमारा परित्राता
अतुल संपदा है आँचल में
मेघों से करता किल्लोल
सरिताए सर सरित बहाता
लेकिन रहता स्वयं अडोल
उपकृत तुमसे करते विनती
सुरस्वामी हरिराया से
अभिलाषा है हम रहे ना वंचित
सुखद तुम्हारी छाया से

Apne thaakur se !

अपने ठाकुर से
ना देहरी पर शीश  झुके तो
ना मंदिर में दीप जले तो
ना अर्चन में पुष्प चढ़े तो
क्या तुम मुझ को ठुकरा दोगे ?
ना मैं तुम को भोग लगाऊ
ना मंदिर जा प्रसाद चडाऊ
ना मीरा बन कर करू याचना
ना गोपी बन कर तुम्हे रिझाऊ
चर्चा करते कर्म   योग की
उपमा देते योगी धर्म की
अब ना किया जो चिंतन तेरा
तो क्या मुझ को ठुकरा दोगे ?
वत्सल हो तुम यह जग जाहिर
कठिन परीक्षा लेने में माहिर
अवगुण अज्ञानी अनुतीर्ण हुआ तो
क्या  तुम मुझको ठुकरा दोगे ?
चलू उठ कर अब करूं साधना
जगत विदित तेरी आराधना
ठुकराओ या अपनाओ तुम
अविचलित हो करू  मन बांधना
स्वेद बहाऊँ गा कर्मों से
बिखरे मोती तुम चुन लेना
शीश धरो या पग धूलि बनाओ
उचित लगे पुरस्कृत कर देना

बुधवार, 24 अगस्त 2011

do shabad

दो शब्द
जन्म दिवस
की बधाईँ
जैसे
मंगल ध्वनि बजाती
 एक शहनाई
ढेर सारी शुभ कामनाएं
मन के अलाव में
आशा का
दीप जलाए
अनेकानेक शुभाशीष
जीवन जैसे
हो गया विश्वजीत
आभार तुम्हारा
ऐ मित्रो !
सत्कार तुम्हारा
ऐ मित्रो !
शत कोटि नमन
ऐ मित्रो !
किया शब्द सुमन
अर्पित मित्रों ! 

रविवार, 21 अगस्त 2011

Karm Rekha


कर्म रेखा 

प्रयत्न करते हैं 
जब भी 
पढने की
रेखाए हाथो की 
एक चित्र  
उभर आता है 
दूर कही वादियों में
मन का हारिल 
गाता है 
 आस का पंछी 
उड़ते उड़ते 
बीच भंवर में 
डूब जाता है 
वक़्त से पहले 
और वक़्त के बाद 
मिलने का भेद 
समझ में 
आ जाता है 
दूर चिमनी से
उठता धुयाँ 
आसमान में विलीन 
हो जाता है 
नभ पर बनते 
काले बादल 
जल के नहीं 
धुएं के है 
जो बनते है , मिटते हैं 
पर  वृष्टि नहीं करते है 
तब फिर प्रयत्न करते है 
छोटा करने की 
अपनी भाग्य रेखा 
करके लम्बी कर्म रेखा 
सुनिशित है सब कुछ
मगर बस  एक रेखा 
छिप गया सब सार जिसमे 
और वोह है 
कर्म रेखा .........

खत्म करेंगे भ्रष्टाचार ( उन मित्रों के नाम जो सत्य से विचलित हो जाते है कभी कभी )


खत्म करेंगे  भ्रष्टाचार ( उन मित्रों के नाम जो सत्य से विचलित हो जाते है कभी कभी )

क्यों बिकते हो बाज़ारों में 
क्यों अपना मोल लगाते हो 
दो जून का भोजन ही तो है 
क्यों उसको जहर बनाते हो  
 यह देश तुम्हारा भी तो है 
क्यों लेख छापते हो धुन्दले 
क्यों साथ प्रिय है उनका तुम्हे 
विचार जिनके केवल गंदले 
सत्यार्थ करो ,पुरुषार्थ करो 
न कलम पे अत्याचार करो -
लिखो लिखो और खूब लिखो 
और सत्य पे भी उपकार करो 
 गर चल सकते तो साथ चलो 
उन्मूलन करने को भ्रष्टाचार 
केवल लिखने को लिखते हो 
तो बंद करो तुम यह व्यापार
जौहर बहुत है लेखन में 
पूछो  चन्द्र वरदायी से 
भाल देश का किया उनत 
केवल शब्दों की परछाई से 
आल्हा ऊदल के मुक्तक 
शान बढाते हैं अब भी 
बुंदेलों के गीतों पर 
नतमस्तक हो जाते सब भी 
आग्रह मेरा यह तुमसे बस 
ना कलम को हल्का पड़ने दो 
दो साथ सत्य ,सत्याग्रह का 
ना शब्द को अपने बिकने दो 
लिखो, लिखो और खूब लिखो 
अन्ना, भ्रष्ट ,और भ्रष्टा चार 
गर कहें कोई कि झूठ लिखो 
तो हाथ जोड़ कर मानो हार 
बनो उपासक सरस्वती के 
साधक हो , करो प्रचार 
ना झूठ कहा,ना झूठ कहेंगे 
खत्म करेंगे  भ्रष्टाचार 

शनिवार, 20 अगस्त 2011

अन्ना हजारे का आह्वान

अन्ना हजारे का आह्वान 

हर तरफ आग है 
पर ना जाने क्यों 
 मन ठंडा है 
चिंगारी जो सुलगती थी 
राख  हुई जाती है 
यूं तो कहते थे कि
इन्कलाब कोई लायेगे 
आज वक्त की मांग है 
आवाज़ घुटी जाती है 
यूं तो चल दिए हज़ारों मील कई 
आज चलने की आगाज़ है 
चाल मंद हुई जाती है 
हर बार बने शिकार तो 
कोसते थे भ्रष्टता  को 
आज ख़त्म करने की बात है 
जान पस्त हुई जाती है 
नहीं हासिल  होता कुछ भी 
महज़ ख्वाबो से, ख्यालो से 
आओ जुटे हम सब 
इसी आन्दोलन में 
एक बूढी , सशक्त गुहार 
इतिहास  की धूल में 
गर्क  हुई जाती है 

aadmi Kya hai ?


आदमी क्या है ?
एक उमड़ते सैलाब में अपना 
अस्तित्व बचाते हुये एक रूह 
जो दिन रात पिसती है 
हर वक्त खटती है 
भीड़ में , अकेले में 
अपने आप से ही लडती है 
करती है प्रयत्न 
अपने वजूद को
बटोरने का 
टूटे हुए अक्स को 
जोड़ने का 
सिसकियों से बचती है 
छिप छिप  कर रोती है 
अरमानो की चिता पर 
चुपचाप सोती है 
कोलाहल होता है 
तो  बड़े मन से जगती है 
आदमी की भीड़ में 
अपने जैसी रूह को पदने की 
महज़ कोशिश करती है 
सैलाब आता है 
आ कर चला जाता है 
और आदमी ?
अपनी रूह को बचाते बचाते 
किन्ही गुमनाम अंधेरों में 
फिर लुप्त हो जाता है .

तम में दिया जलता है 
भभकता है , टिमटिमाता है 
दिशा के ग्यना से हो बोझिल 
अपनी लो मैं फडफडाता है 
और आदमी ?
पा कर मंजिल उजालों मैं 
हो कर फिर दृद संकल्प 
जोड़ कर टूटे हुये वे बिम्ब 
प्रसन्न चित ,हो प्रफुल्लित 
गमन करता है 
पोंछ अंपने आर्द नयनों को 
एक सुनिषित मार्ग पर 
जिसको कभी वह भूल जाता है 
अस्तित्व की माटी तले 
डाल रखता है सुशुप्त अवस्था  मैं 
और देखता है बाट
बस एक टिमटिमाती लो की 
जो उष्ण करके 
अंकुरित कर  दे 
रूह की विक्षिप्त अवस्था को 
और आदमी ?
चूम ले बढ़ कर 
फिर गुमनाम अंधेरो को 

शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

Tees!!


टीस!
उठती है यूं टीसे दिल में 
जैसे लहरे हो सागर में 
मिटती एक तो बनती दो है 
हलचल करती जीवन तल में 
दिल ही इनका उद्गम स्रोता
दिल ही  इनमे भीग के रोता  
दिल ही इनके संग जागता 
दिल ही   इन में घुस कर सोता 
टीस की टीस पे टीस उठे जब 
अनहत  नाद भी होते मुखरित 
टीसों की तब घंतावलियाँ 
टन-टन टन- टन बज उठती हैं 
मन मब्दिर के एक कोने में 
देवासन सा पा जाती हैं 
अश्रु पुष्प चढाता मन है 
गर्म श्वास से अर्चन करता 
रीते रीते खुले नेत्र से 
इन टीसों का दर्शन करता 
टीस उठे तो जीवन रोता
टीस दबे  तो हर्षित होता 
टीस जगे तो चेतन होता 
टीस मिटे तो बेकल होता