अलफ़ाज़ देते रहे आवाज़
खामोशी सर्द कोहरे की तरह जीवन में उतरती रही .साथ चलती दो रेल के पटरियों की तरह हम एक दूसरे को देखते साथ साथ चलते रहे .
नयन अचंभित,विस्मित हुये अपलक पथ को निहारते थे .रास्ता बहुत लम्बा हो चला था . कुछ बुदबुदाहट स्वत:ओंठो से प्रस्स्फुटित हो जाती.
ख्यालों का ठंडापन स्नायु तंत्र को शिथिल कर देता था . दूर कच्चे घरों से निकलता आग का धुया कही कही जीवन चिन्ह छोड़ जाता था .कभी कभी चंद अलफ़ाज़ कुछ आवाज़ दे जाते थे .....बुला जाते थे.....सहला जाते थे ......यादो के रूख को एक नया मोड़ दे जाते थे .....तब दूर नभ पर चमकता अपनी अरुणिम आभा बिखराता सूरज भी दर्शन दे कर सारी बर्फायी को अपने आगोश में छुपा लेता था ..आवाज़े एहसास में बदल जाती थी ...और कच्चे घरो से निकलता धुयाँ अब अपने साथ स्वादिष्ट खाने की महक लिए फैल जाता था ..............
दैनिक दिनचर्या अपना किर्यान्वित रूप धर कर पिशाच सी फैल जाती है ....बहुत लम्बा दिन...एक बोझिल सा दिन धीरे धीरे सरकने लगता है .
मुस्तकबिल तक पहुँचने के अथक कोशिश .......दूर करती है उसे अपने ही इरादों से ..............चौंक जाता है अचानक लगी ठोकर से .........फिर बढ़ता है ..बड़े बेमन से .......बड़े बेढब से .......बार बार दिनकर के रथ मैं जुटे घोड़े की चाप सुनता है और नपे हुये कदमो को गिनने को कोशिश करता है और फिर उंगलियों पर हिसाब करता है बाकी बचे पगों का , जो अभी नापने शेष है ...........और वह फिर इंतज़ार करने लगता है रात होने की ....
जीवन चक्र है ..चलता रहे गा...... कुछ अलफ़ाज़ बस यूं ही आवाज़ देते रहेंगे ......शिथिल स्नायु तंत्र में प्राण फूंकते रहेंगे
खामोशी सर्द कोहरे की तरह जीवन में उतरती रही .साथ चलती दो रेल के पटरियों की तरह हम एक दूसरे को देखते साथ साथ चलते रहे .
नयन अचंभित,विस्मित हुये अपलक पथ को निहारते थे .रास्ता बहुत लम्बा हो चला था . कुछ बुदबुदाहट स्वत:ओंठो से प्रस्स्फुटित हो जाती.
ख्यालों का ठंडापन स्नायु तंत्र को शिथिल कर देता था . दूर कच्चे घरों से निकलता आग का धुया कही कही जीवन चिन्ह छोड़ जाता था .कभी कभी चंद अलफ़ाज़ कुछ आवाज़ दे जाते थे .....बुला जाते थे.....सहला जाते थे ......यादो के रूख को एक नया मोड़ दे जाते थे .....तब दूर नभ पर चमकता अपनी अरुणिम आभा बिखराता सूरज भी दर्शन दे कर सारी बर्फायी को अपने आगोश में छुपा लेता था ..आवाज़े एहसास में बदल जाती थी ...और कच्चे घरो से निकलता धुयाँ अब अपने साथ स्वादिष्ट खाने की महक लिए फैल जाता था ..............
दैनिक दिनचर्या अपना किर्यान्वित रूप धर कर पिशाच सी फैल जाती है ....बहुत लम्बा दिन...एक बोझिल सा दिन धीरे धीरे सरकने लगता है .
मुस्तकबिल तक पहुँचने के अथक कोशिश .......दूर करती है उसे अपने ही इरादों से ..............चौंक जाता है अचानक लगी ठोकर से .........फिर बढ़ता है ..बड़े बेमन से .......बड़े बेढब से .......बार बार दिनकर के रथ मैं जुटे घोड़े की चाप सुनता है और नपे हुये कदमो को गिनने को कोशिश करता है और फिर उंगलियों पर हिसाब करता है बाकी बचे पगों का , जो अभी नापने शेष है ...........और वह फिर इंतज़ार करने लगता है रात होने की ....
जीवन चक्र है ..चलता रहे गा...... कुछ अलफ़ाज़ बस यूं ही आवाज़ देते रहेंगे ......शिथिल स्नायु तंत्र में प्राण फूंकते रहेंगे