एक अकेली
वह आकर बैठी चुपचाप
बार बार मन के कोने में
करती थी कितना प्रलाप !
आँख से झरता हर आंसू
सिमट रहा था सागर में
अंकुश जैसे लगा रहा था
अंतस भाव की गागर में
मुस्कानों के बिखरे मोती
झोली में भरती जाती
शंकित,शापित संतप्त हृदय का
ताप स्वयं हरती जाती
वह रोती थी ,वह गाती थी
वह गाती थी हंसती जाती
किस्मत के लिखे हर वर्क के
पढ़ हर्फ़ समझ कहती जाती
खेले तकदीरों ने बहुत खेल
कुहम्ला गया जीवन नीरज
अब तदबीरों की बालों से
श्रिंगार कर्रूँ धर मन धीरज
भर साहस का गहरा श्वास
प्रस्थान करूं निज मंजिल को
खुल जायेंगे प्राचीपट
आह्वान करूं जब दिनकर को