गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

अंतर्मुखी

अंतर्मुख

किया शब् भर इंतज़ार सूरज के निकलने का
किया दिन अपना दुश्वार चंदा  के चमकने का
न आना था ,ना आया वोह दी कितनी दुहाई
सोचा चलो बन जाए अब खुद अपनी गवाही

 जम गयी काई दिल के पयोधि में
जम गया नीर दिल के नीर निधि में
भावों का जमघट छंटने सा लगा है
दिल में जो उमड़ा था मिटने सा लगा है

हर शख्स यहा बादल सा आकार बदलता है
अपने ही तस्सुवर की डोली में वो सजता है
ढोता है खुद अपना जनाज़ा अपने ही काँधे पर 
जीवन के हर इक  ढंग से बेजार  गुज़रता है


अपनी ही राहो में सिमट जाने का जी चाहता है
अपनी ही आहों से  लिपट जाने का जी चाहता है
लौट कर नहीं आता जो चला जाता है 'नीरज '
अपनी ही बाहों में सिमट जाने का जी चाहता है