गुरुवार, 29 सितंबर 2011

जीवन !!!

जीवन !!!
तमस घना चहुँ और है छाया
विपदा का आँचल लहराया
आशा का अब कहीं छोर ना !!

अंतस का मुख है कुह्म्लाया
पीड़ा  का कुहास है आया
कतरा कतरा बहे वेदना !!

जीवन भी है अजब सी  माया
छलने को फिर छलिया आया
पांखुर जैसे झरे चेतना !!

अंधियारे पथ को उजलाया
कर्मठता का पथ सुलझाया
जीवन जैसे व्यर्थ रहे ना !!

विश्वासों को दीप जलाया
मन मंदिर में तुझे बिठाया
 तिमिर रहे चहुँ और ना !!

ख्वाब कहाँ लिखे जाते हैं ?


कुछ अनघड कुछ  वैताली से
कुछ सूखे ,कुछ हरियाली से
कुछ सच्चे कुछ महज ख्याली से
कुछ भरपूर और कुछ खाली से
ख्वाबो की जागीरों वाले
केवल मुझको यह बतला दो 
ख्वाब कहाँ लिखे जाते हैं ?
सूखा पनघट ,गीला मरघट
मृत हुई आशा का जमघट
ढहते महल देखे ख्वाबो के
कुम्लाया मुरझाया अमृतघट
सत्य लेखनी से गर लिखू
सत्य कहूं तो लिखा ना जाए
सत्य्निष्ट के लेख पढूं तो
लिखे ख्वाब  धूमिल पड़ जाए
हार सत्य और विजय झूठ की
झुठला जाती भागीरथ प्रण को
ख्वाब बने और टूटा करते जैसे
 लहरे निगले  किसी रेत के घर को
ख्वाबो की जागीरों वाले
केवल मुझको यह बतला दो 
ख्वाब कहाँ लिखे जाते हैं ?

और बस्ती जलती रही....

और बस्ती जलती रही....
बेजान पत्थरों का शहर
कोई मूक आवाज
जोर जोर से चिल्लाती रही
लौट कर आती थी
हर आहट और कर जाती थी
आहत दिल को
तेज़  हवा
बुझती राख में
चिंगारी सी भरती रही
और बस्ती जलती रही
भर जाता था  कोई
हरे हरे जख्मो को
हरा कर जाता था  कोई
भरे हुये जख्मो को
शबनमी मुस्कान
रात  भर उस आग को
ठंडा करती रही
और बस्ती जलती रही 

यादे तो कोरा दर्पण है

यादे तो कोरा दर्पण है
तेरी याद का हर लम्हा
जब जब बोझिल लगता है
आँखों से आंसू बहते हैं
दिल कतरा कतरा गिरता है
सब आवाज़े गूंगी लगती है
बहरा हो जाता कोलाहल
बिरहा से  रीते पल पल में
इक आस का दीपक जलता है
रात की डोली में सज कर
जब याद दुल्हन सी आती है
अरमानो की भरी मांग
अंगडाई ले कर जगती है
यादे जीवन को उदास करे
यादे ही मन में उल्लास भरे
बन बन कर उभरे बहुरूपी
यादो से और भी प्यास बढ़े
यादे तो कोरा दर्पण है
एक अक्स दिखाया करती हैं
यथार्थऔर कल्पना के मध्य
इक संतुलन बनाया करती है

सोमवार, 26 सितंबर 2011

चन्दा से


चन्दा से 

चलो   हम भी जागे संग तुम्हारे 
विभावरी के कयी  रूप निहारे
देखे  निशि कैसे करे थिथोली 
तारा  गन की नयन मिचोली 
मादक निषिगन्धा की खुशबू 
संग लिये अपना हम जोली 
कैसे विरह संजोग को तरसे 
बिन बादल पानी जो बरसे 
मौन रागिनी करती  गुन्जन 
जब् आती शब् नम की टोली
लहरे हो जाती उच्श्रिन्खल् 
तोड् किनारे बाहर आती 
शङ्ख सीप मोती और कच्हप्  
करे अमर्यादित सागर की बोली
कही बाल निशा भूखी भी सोती
 रजनी तम की काली में रोती
कभी रात्रि बनी विकराल भयन्कर
कही सहम थिथक जाती स्वयम्भर् 
कभी करती मन की बाते चुपचुप्
और बेबाक स्वर् की कभी बोली 
चलो हम भी जागे संग तुम्हारे 
विभावरी के कयी  रूप निहारे

बाढ़ का प्रकोप

 बाढ़ का प्रकोप

धुलता रहा दर्द आंसूओ के धारा में
भीगता रहा मन जबकि था किनारे पर
जज़्ब बादल से बनते रहे बिगड़ते रहे
खामोशियों से हर सितम सहते रहे
कट गये थे पंख उस उमंग के ,मुस्कान के
जो की उडती थी कभी स्वछंद मन आस्मां पे
आश का हारिल भी सहमा सा नज़र आता है अब
दब गये  प्रयत्न सब वहशत के कब्रिस्तान में
हो गयी जल मग्न धरती , जल के उफनते भाव से
सो रहा है कर्णधार ,अपनी सुखों के नाव मैं

शनिवार, 24 सितंबर 2011

अपने अपने अजनबी

अपने अपने अजनबी

कौन तुम
बड़े पहचाने से लगते हो
धरती पर उतरे हो
आफताब से
याँ कल्पने के नभ पर
महताब से लगते हो
अनल में शीतल से
और शीतलता मैं
अंगार से दहकते हो
आरोह बन राग की
सरगम बनाते हो
और बन कभी विवादी स्वर
सबसे अलग हो जाते हो
पा कर तन्हा मुझे
झट मन आँगन में आ जाते हो
निरख भीड़ लोगो की
मुझे तन्हा छोड़ जाते हो
महकते  उपवन का हो सुमन
या उम्मीदों से महका हो चमन
मरूथल का शूल हो
जो देता मीठी सी चुभन
या मृग मरीचिका हो मरू की
जो आर्द करती मन नयन
भिन्न राहें ,भिन्न मंजिल
भिन्न है अस्मित वजूद
दूरियां हैं मीलो की
पर फिर भी तुम
कितने करीब
कौन तुम
बड़े पहचाने से लगते हो



शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

विपत्ति काल

विपत्ति  काल
एक खौफ तरनुम गूंजा था
हर जमघट  और चौराहे पर
बे-आब हवा भी गुमसुम थी
हैरान खड़ी दौराहे पर
लो लुट के चला फिर चैन -औ -अमन
हस्ती  भी थी बौखलाई सी
धुंधले पड़ते थे  चित्र सभी
कोलाहल के वीराने मैं
ध्वस्त हुई आपेक्षायें
हुये तिमिर सभी  दिवा स्वप्न
नर जन के सैलाब में ढूंढे
मन अपनों का अपनापन
हुये तार तार मंजुल मन यूं
जैसे कि दामिनी हई तडित
नन्हे नन्हे अवयव से बनकर
पीड़ा भी हो उठी मुखरित
बस सार एक ही बचा शेष
जीवन बना जब व्यथा क्यारी
चार स्तम्भ अब शेष बचे
धैर्य ,धरम ,मित्र और नारी

बुधवार, 21 सितंबर 2011

आत्म मंथन

आत्म मंथन
वीणा के तारों में
 अजब सा कसाव है
बजता है  सरगम नया
फिर भी मन उदास है
मीठे बोल मिश्री से
 फीकी मिठास है
पी लिए समुन्दर आंसू के
फिर भी अभी प्यास है
जमी बर्फ गर्म दिल पे
कैसा  यह कुहास है
इठलाते आषाढ़ में भी
रीता सुहास है
मृत हुई आशाएं
उत्साह की फिर भी आस है
नव चेतना जगाओ अब
ज्योत्स्ना बुलाओ अब
थकित हुआ मार्ग में
 देहरी  से मिलाओ अब

पूर्णता

पूर्णता
उमड़ पड़ा फिर सागर
देख विधु की पूर्णता
भर लाया नव रस गागर
देख विधि सम्पूर्णता

खिल उठा मधुमास
देख प्राकृतिक विकास
छाई सुन्दरता परिपूर्ण
निखर यौवन अपूर्व

आया ठिठुरा  शिशिर
फैली पूर्णता प्रचुर
धरती का अंग अंग
ढके  दल और भृंग

सच है ! खुश होती सज्जनता
देखि पर पूर्णता
हा विकास, हा प्रमोद
कहती  दुर्जनता

मैं साथ हूँ तेरे

मैं साथ हूँ  तेरे
कहा तुम ने " मैं साथ हूँ तेरे "
मैं हर इक जर्रे  में
तेरा अक्स ढूँढती रही
लम्हा दर लम्हा रिसता
रहा दिल से लहू 
मैं दिल के गलियारे में
नयनों के पनघट से
 अश्रु घट भरती रही
पग पग पर रहा देता
काल मुझको चुनौती
शबनम की बूंदों से
संताप मन का  धोती रही
सुनती थी तू रहता है
हर एक अँधेरे में
बन जुगनू मैं राहो को
रौशन बस  करती रही
कही टूट ना जायूं मैं
इस बात का था डर मुझको
अंदर ही अन्दर कही
तेरे नाम से जुडती रही
आएगा तू खुशबू की तरह
इन तेज़ हवायों में
यह सोच कर  हर गंध को
 मैं साँसों मैं भरती रही 
है अब भी मुझे खोज
उस अक्स की तेरे
जो बूँद की तरह गिर सीपी पर
मोती सी बनती रही

ना करेंगे तेरा इंतज़ार

जी था  बेकरार
रहा रात भर इंतजार
भोर का तारा आया
तो सोचा शायद
कोई पैगाम लाया
झांक कर देखा गली में
कोई भी आया ना था
जिस को पा कर
हो रही थी हर्षित इतना
वोह केवल एक साया था
भेजे लाख सन्देश
हुआ मन मन में  अंदेश
आयी खुद पे हंसी
कैसी मूर्खता घनी
हवा चंचल बड़ी
कैसे कर में बंधी
दिल हुआ तार तार
हुआ आहत  करे  पुकार
सुनो तुम भी चीत्कार
खुश रहो जहां में
ना करेंगे तेरा इंतज़ार

तुम !!!

तुम !!!

हर बार की
इस बार भी
तुम !!!!!
आये और
बात बना कर
चले गये
और मैंने !!!
तुम्हारे जाने के बाद
यह
समझा ,जाना ,और पहचाना
कि
तुम ! आये थे

अनोखा मिलन

अनोखा मिलन

झुक रहा था नभ
छू लेने धरती को
आकुल थी अवनि भी
अम्बर में छुपने को
संजोग की बेला में
फैला नव रस चहुँ और
गुंजित हुईं दिशी दस
फैला सर्वत्र शोर
खामोश थी धरा
चुप हुआ गगन
अचंभित थे तारागन
निरख अनोखा मिलन

शनिवार, 17 सितंबर 2011

नीड़

नीड़
नीड़ बनाया बड़े जतन से
जोड़े  तिनका तिनका
तेज़ हवा का झोंका आकर
तोड़े    जैसे सपना
भीगे नयन ढूंढे द्वार को
स्वागत करते वन्दनवार को
रौशन होती हर दीवार को
सोंधे सोंधे बसे प्यार को
उर  संचित अपने संसार को
सब कुछ नष्ट भ्रष्ट था ऐसे
रीत गया सागर तट जैसे
उर की भाषा पढ़ी उर ने जब
संचित कर टूटे मन को तब
सुंदर  सुखद इक भुवन बनाया
प्रेम का उस में दीप जलाया 
साहस का तेल ,आशा की बाती
जीवन पथ पर जले दिन राती
अपना वादा बस अपने से
हर पल यह एहसास दिलाती






गुरुवार, 15 सितंबर 2011

निर्देश

निर्देश

जीवन में कभी कभी कुछ पल ऐसे भी आते है
गुनाहों के किसी का बोझ  सिर अपने उठाते हैं
भंवर में डूब जाते है सब बड़ी आसानी से
ऐसे  चंद ही होते हैं   जो भंवर में तैर जाते हैं
हार से डर भागते जो जीत पाने को
कदम मंजिल से पहले ही उनके लडखडा  जाते हैं
बने है स्तम्भ वो  इतिहास के करोगे जब कभी विवरण
शरो की शैया पर भी  भीष्म सा जीवन बिताते  है
मत करो हिसाब कर्मो का उँगलियों  पर तुम  नीरज
जो साधक कर्मयोगी है ,लघु पग  से ब्रह्मांड नाप ही जाते है

प्यार अनमोल रिश्ता है

प्यार अनमोल रिश्ता है

कोई कहता सब चलता है
कोई कहता व्यर्थ रहता है
कहता है कोई " बेवफा है "
कहा किसी ने "खफा-खफा है "
कहें कोई बादा फरामोश है
कहें कोई कही गुम ,मदहोश है
भावों में कोई व्यर्थ नहीं पलता है
गर समझ पाओ तो जानोगे  ए दोस्त
विश्वास के तराजू पे तुला
प्यार अनमोल रिश्ता है



चलो कुछ कर दिखाएँ

चलो कुछ कर दिखाएँ


हर रात की तरह चांदनी आँगन में आ कर बिखर गयी .लेकिन आज  वह आर्द थी
देख रही थी भीगे नयनो से मुझे और जैसे कह रही हो कि" तेरी वेदना में मैं भी शामिल हूँ "......
रात भर शबनम गिरती रही और भिगोती रही सारी वनस्पतियों को जो सुबह होने पर यह बता गयी
कि रोये  हैं हम सब साथ साथ .... भोर का तारा टिमटिमाया और यह पैगाम लाया कि आओ !  तक रहा हूँ बाट तेरी ,डबडबाई आँखों से बहे है जो भी आंसू , झिलमिलाते है , टिमटिमाते है तुम को बुलाते है और कहते हैं कि 'तेरी इस टिमटिमाहट की टीस में मेरी भी  भागीदारी है '
 बादलो की ओट से बिखेरी  रश्मिया जब चमकते सूरज ने तो  देखा ..बुला रही थी वसुंधरा ,बाहे फैलाए , मुस्कुराये , हिम्मत बंधाये , और धुल गयी सब वेदना ........सोचा हम ने भी कि चलो कुछ कर दिखाएँ ..........

एतमाद

एतमाद

मिलोगे जब कभी इत्तफाक से
 जीवन के चौराहे पर
तो क्या जान लोगे कि
यही है  दिल जो धड़का था
कभी खातिर तुम्हारी
यही थे नयन जो तकते थे
कभी राहें  तुम्हारी
मिल भी जाओगे तो
क्या होगा कभी एतमाद कि
यही वोह रूह थी  जो
भटकी थी दिन रात
पा जाने को
इक झलक तुम्हारी
ना भूलोगे कभी
है यह एहसास भी मन को
पाओगे जब कभी तन्हा अपने आप को
तो बरबस मुस्कुराओगे
करोगे याद और फिर गुनगुनाओगे
हाँ इक पगली थी
जो कर जाती थी
व्यथित राते तुम्हारी
छनकती घूंघरूयों से
खनकती चूड़ियों से
महकती सुरभियों से
दहकती जुगनूयों से
वोह इक चमकती आभ थी
जो कर जाती थी
रौशन राहें तुम्हारी
भ्रम है याँ सच है
पर मन में कुछ पलता है
जो दुर्बल होते जीवन को
इक आशा से भरता है
आशा जो देती सुर में ताल
आशा  धोती मन का मलाल
आशा जो देती तन  में प्राण फूँक
आशा जो देती नव आशा की कूक

नन्हा दिया

नन्हा दिया
दूर पहाड़ी पर
इक झोंपड़ी में
इक दिया
टिमटिमाता है
और वह नन्हा दिया
टिमटिमाता हुआ
कुछ इंगित करता रहता है
कई बार सोचती हूँ कि
लिख डालू वह सब
जो मैं कह नहीं पाती
फिर सोचती हूँ कि
लिखा हुआ पढ़े गा कौन ?
और गर पढ़ भी लिया
तो समझे गा कौन ?
भाव उध्वेलित होते हैं
और बस मन में ही
रह जाते हैं
अभिव्यक्ति की कामना ले कर
पुनह सुप्त हो जाते हैं
और दिया टिमटिमाता
अपनी लौ फैलता
जलता रहता है ........

बुधवार, 14 सितंबर 2011

विनती

विनती
बुला लो मुझ को फिर तुम मेहरबान हो कर
झांकता कनखियों से आज भी वो मंज़र
मिले थे जब मुझे तुम  निगहबान हो कर
बिछड़ा  हूँ मैं दरिया से ,बहता हुआ इक धारा
भटका हूँ बहुत मैं  ,बेकल खोजूं इक किनारा
सौगंध  है तुम को  इन  बिगड़े मझदारो की
रहो बन कर मेरा माझी ,बढ़ कर दो सहारा
संभालो मुझ को फिर तुम खेवन हार हो कर
 बुला लो मुझ को फिर तुम मेहरबान हो कर

नाम तेरा

नाम तेरा

चिराग गुल होते ही ख्याल जगमगा उठे
 राहों में उजाला तेरे नाम का फैला रहा
चिलचिलाती धूप थी और खोजती थी शज़र
सिर पे  साया तेरे नाम का फैला रहा
पत्थरों का शहर था और  ना था कोई हम नफस
साथ बस मेरे तेरा नाम यूं  चलता रहा
कट ही जाएगा कभी वीरानीयों का यह सफ़र
गर नाम तेरा साथ मेरे हमसफ़र बन कर रहा


शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

संध्या की बेला है !

संध्या की बेला है !!
व्याकुल हो विहग वृन्द
लौटे घर अपने को
सरिता भी दौड़ चली
सागर से मिलने को
दिवस यहाँ तड़प उठा
निशा के समागम को
नभ ने बढ़ चूम  लिया
क्षितिज में धरातल को
मन में आज उतर आया
शिशिरों का मेला है
घर की देहरी पे जला
मेरा दीप अकेला है
संध्या की बेला है !!
वंशी की स्वर लहरी
छेड़े राग भोपाली
टिम टिम तारों के संग
नाचा चंदा दे ताली
जूही बेला निशिगंधा
चल पड़ी महकने को
तैयार है रजनी भी
दुल्हन सी सजने को
नयनों में उतर आया
अश्रु का रेला है
घर की देहरी पे जला
मेरा दीप अकेला है
संध्या की बेला है !!!

मंगलवार, 6 सितंबर 2011

हम जाने क्या कह जाते हैं

हम जाने क्या कह जाते हैं
कोरे कागज़ के टुकड़ो पर
शब्द दो चार बिखराते हैं
यथार्थ और कल्पना की कूची से
जीवन के चित्र बनाते हैं
हम जाने क्या कह जाते हैं
कुछ धुन्दले कुछ उजले चित्रण
कुछ श्वेत श्याम ,रंगीले चित्रण
हँसते और बिलखते चित्रण
कुछ घोर निराशा में है डूबे
कुछ उज्जवल आशा से निखरे चित्रण
कुछ आस दिखाएँ आते कल का
कुछ त्रास बताएं बीते पल का
रंचक रोष ईष्या और द्वेष को भूले
रंचक प्रेम वात्सल्य में डूबे
कुछ भाव हमारे केवल अपने
कुछ ख्याल तुम्हारे लाये सपने
हर बोल नया दोहराते हैं
हम जाने क्या कह जाते हैं

क्या तुमने मेरे स्वप्प्न पढ़े हैं ?

क्या तुमने मेरे स्वप्प्न पढ़े हैं ?
मेरी बातों का भोला पन
भले  साहस का प्रमाण नहीं है
मेरी शक्ति और क्रिया कलाप की
शायद तुम को पहचान  नहीं है
रक्त दौड़ता है जो  धमनी में
उसमें उबलता तेज़ स्राव है
मन में मृत हुये जो सपने
उन में अभी बची  श्वास है
फूँक फूँक कर पग धरता जो
ऐसा समझ ना लेना अग्रज
सिर पर पहन केसरिया बाना
हूँ बन्दा बैरागी का वंशज
केवल गीत नहीं बेचे हैं मैंने
भावों को नहीं हर दम बोला
कर्तव्य निष्ठ और परायणता से
संकल्पों को मन में तौला
मत जग की बात करो मुझ से
मैं तो बस इतना जानू
कर्म मंच है यह जग जीवन
कर्म योग को मैं मानू
लिखे स्वाप्न जो मनस पटल पर
अभिलाषा  के स्याही कलम से
लक्ष्य शिला पर रहे गढ़े हैं
क्या तुम ने मेरे स्वप्पन पढ़े है ?

adhbhut darshan

अध्भुत दर्शन

चलो  छोड़ो जख्म पुराने सब
कुछ नये पन का एहसास करे
छोड़ कर  भूली बिसरी बातें
नव रस गीत गुंजार करे
वादे की ना कुछ बात करो
यह बात नहीं अब बहलाती
जो ना  हो पाए  जग संभव
वह मन को पीड़ा  दे जाती
देखो मौसम भी बदल रहा
यह प्राकृतिक नियम अटूट
सब  कुछ बदला करता है
 मैं और तुम क्यों रहे अछूत
परिवर्तन भी होता परिवर्तित
अजब काल के लेख लिखे
भाग्य की चूनर  रंगत बदले
परिवर्तन के बोल कहें
लो रंग सजा लो फिर उर में
फिर होगा जीवन सहज सुखद
वादों की टूटी कड़ियों में
जुड़ जाएगा अध्भुत दर्शन

शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

Jindagi

जिंदगी
देखा है  मैंने तुम्हे किसी  मोड़ पर
खड़े बेबसी में पुकारते हुये
त्रिन-त्रिन जोड़ कर नीड़ बनाते हुए
तेज़ हवा को एक क्षण में
उस नीड़ को बिखराते हुए
पैबंद लगे घागरे को
बूढी झुकी कमर पर लदे
सड़क पर कंकर  चुनते हुये
धंसी पीली आँखों को
किसी बचपन के साथ
भीख मांगते हुये
फिर भी तुम
कितनी हसीन हो
क्षण भर में बिखरे नीड़ को
इकट्ठा करती हो
बूढी झुकी कमर के
घागरे में आशा का
एक और पैबंद
जोडती हो
बुझी निराश पीली आँखों को
सपनो से भर  देती हो
और !!
बहारों के गीत गुनगुनाते
नये मोड़ की तलाश में
आगे बढ़ जाती हो !!
जिंदगी , ओ जिंदगी !
तुम कल्पना हो किसी कवि की
प्यार हो  किसी प्रेमी का
श्रद्धा हो, किसी पुजारी की
विश्वास को किसी भक्ति  का
उमंग हो मेरे बचपन की
महक हो मदमाते यौवन की
अनुभव हो बूढ़े सपनो का
लक्ष्य हो जीवन साधनाओ का
देखा है मैंने तुम्हे
हर मोड़ पर रंग बदलते हुये
कुछ मीठे और कुछ कडवे
पलों के निशान छोड़ते हुये 



गुरुवार, 1 सितंबर 2011

Niyati

नियति

अश्रु रहित वेदना
ले गयी हर चेतना
बहा भावों का मवाद
कैसा अजब इत्तफाक
हो कर हतप्रभ , अवाक
किया भाग्य से संवाद
क्या यही था झेलना ?

करे सागर हिल्लोर
पीड़ा का नही छोर
किया नभ ने प्रलाप
छेड़े सरिता अलाप
बहा झर झर राग
हुआ मन में मलाल मृत सुर, लय, ताल
क्या यही समर था छेड़ना ?

पड़ी धरा पर छाया
नन्हा फूल मुस्काया
लगे साल या महीना
चीर धरती का सीना
लेकर बड़ी नाजुक काया
नव अंकुरित हो कर मैं आया
यहीं था मुझे खेलना !!!!!

mulyakan

मूल्यांकन
क्या कर पाओगे मूल्यांकन ?
लोलुपता और तानाशाही का
जब ओढ़े बैठे हो आवरण
गिने पाप तुमने पोरों पर
करी झूठ  और झूठ  की गिनती
वचन भरा मिथ्या असत्य का
और सुनी मक्कारों की  विनती
अपनाया "विष कुम्भं पायो मुखं "
क्या कर पायोगे मूल्याकन ?
भ्रष्टाचार की भस्म रमाई
सुमति-कुमति की दशा भुलाई
रिद्धि -सिद्धि और कुख्याति का
ना कर पाए ठीक चयन
लिया सदा सच का दमन
क्या कर पाओगे मूल्यांकन ?
सर्व विदित है जगत में उक्ति
झूठ उड़ा बिन पंख अयुक्ति
धीरे चलता है सत्य का ध्योता
पर सच जगती पे बेफिक्र है सोता
अल्पाऊ है झूठ का वाचक
दीर्घायु है सत्य का वाचाक
हो निराधार इस का वरण
क्या कर पायोगे मूल्याकन ?


Toota kinaaraa

टूटा किनारा
मैं!!!! टूटा किनारा
एक ऐसी  नदी का
जिस का पानी सूख चुका है !
बिलकुल ऐसे .. जैसे
मानव
मानवता सा रूठ चुका है !
याद करता हूँ उछाल
जब भी उस बहते पानी का
तो अब भी भीग जाता हूँ
धारा मैं बहता बहता
कुछ कुछ रीत जाता हूँ !
रूक जाता था हर राही
देख मुझे मुस्काता था
बैठ किनारे ठंडी छाह मैं
क्लांत मन को सुस्ताता था .
अब मैं विलग हुआ जननी से
अस्तित्व हुआ मेरा मलीन
वो हास-परिहास ,वो कल-कल
इन सब से हुआ जीवन विहीन
नभ पर देखा करता हूँ मै अक्सर
उड़ते बेपर बादल के टुकड़े
भिन्न-भिन्न मुद्रायों में ढलते
बेपरवाह सब क्रीडा करते

देख शुभ्र शुष्क और रूखे बादल
शंकित मन में  प्रशन है उठता
औचित्य है क्या इनके अस्तित्व का
अंतर्द्वंद से उलझन करता
इस सूखे पन से क्या रिश्ता है
मेरा और इस शुभ्र  बादल का
एक धरा पर बेबस लेटा
एक उन्मुक्त है विचरण करता
ठहर गया जो जीवन ठहरा
चलंत हुआ तो जगत रुपहला
चल अचल के भाव को पढ़ कर
वक़्त की गिनती गिना करता हूँ
मैं!!!! टूटा किनारा
एक ऐसी  नदी का
जिस का पानी सूख चुका है !



jaroori to nahi

ज़रूरी तो नहीं

प्यार के बदले में प्यार मिले
यह ज़रूरी तो नहीं
हर रूह में भगवान मिले
यह ज़रूरी तो नहीं
नियति में परिवर्तन
महज़ इत्तफाक है
हर इत्तफाक में वही
नियति मिले
यह ज़रूरी तो नहीं
चल दिया कोई साथ
बस दो कदम
यह उसका एहसान है
रख सको गर
संजो कर इसे तो
यह तमाम उम्र की
मुस्कान है
बीते पल गुज़री घड़ियाँ
पुनह दोहरा पायें
यह ज़रूरी तो नहीं
घड़ियाँ पुनह लौट आयें
यह ज़रूरी तो नहीं
ढलती धूप में भी
सुमन खिलते देखे हैं "नीरज '
खिलती धूप में सब खिल जाए
यह ज़रूरी तो नहीं