शनिवार, 24 सितंबर 2011

अपने अपने अजनबी

अपने अपने अजनबी

कौन तुम
बड़े पहचाने से लगते हो
धरती पर उतरे हो
आफताब से
याँ कल्पने के नभ पर
महताब से लगते हो
अनल में शीतल से
और शीतलता मैं
अंगार से दहकते हो
आरोह बन राग की
सरगम बनाते हो
और बन कभी विवादी स्वर
सबसे अलग हो जाते हो
पा कर तन्हा मुझे
झट मन आँगन में आ जाते हो
निरख भीड़ लोगो की
मुझे तन्हा छोड़ जाते हो
महकते  उपवन का हो सुमन
या उम्मीदों से महका हो चमन
मरूथल का शूल हो
जो देता मीठी सी चुभन
या मृग मरीचिका हो मरू की
जो आर्द करती मन नयन
भिन्न राहें ,भिन्न मंजिल
भिन्न है अस्मित वजूद
दूरियां हैं मीलो की
पर फिर भी तुम
कितने करीब
कौन तुम
बड़े पहचाने से लगते हो