शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

संध्या की बेला है !

संध्या की बेला है !!
व्याकुल हो विहग वृन्द
लौटे घर अपने को
सरिता भी दौड़ चली
सागर से मिलने को
दिवस यहाँ तड़प उठा
निशा के समागम को
नभ ने बढ़ चूम  लिया
क्षितिज में धरातल को
मन में आज उतर आया
शिशिरों का मेला है
घर की देहरी पे जला
मेरा दीप अकेला है
संध्या की बेला है !!
वंशी की स्वर लहरी
छेड़े राग भोपाली
टिम टिम तारों के संग
नाचा चंदा दे ताली
जूही बेला निशिगंधा
चल पड़ी महकने को
तैयार है रजनी भी
दुल्हन सी सजने को
नयनों में उतर आया
अश्रु का रेला है
घर की देहरी पे जला
मेरा दीप अकेला है
संध्या की बेला है !!!