शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

विपत्ति काल

विपत्ति  काल
एक खौफ तरनुम गूंजा था
हर जमघट  और चौराहे पर
बे-आब हवा भी गुमसुम थी
हैरान खड़ी दौराहे पर
लो लुट के चला फिर चैन -औ -अमन
हस्ती  भी थी बौखलाई सी
धुंधले पड़ते थे  चित्र सभी
कोलाहल के वीराने मैं
ध्वस्त हुई आपेक्षायें
हुये तिमिर सभी  दिवा स्वप्न
नर जन के सैलाब में ढूंढे
मन अपनों का अपनापन
हुये तार तार मंजुल मन यूं
जैसे कि दामिनी हई तडित
नन्हे नन्हे अवयव से बनकर
पीड़ा भी हो उठी मुखरित
बस सार एक ही बचा शेष
जीवन बना जब व्यथा क्यारी
चार स्तम्भ अब शेष बचे
धैर्य ,धरम ,मित्र और नारी