शनिवार, 29 दिसंबर 2012



बहुत उम्मीद है लेकिन 
हाल हर बार यही होता है 
उमीदवार हर बार  रोता है 
हर घटना जगती है आशा कोई 
लेकिन वही  बार बार होता है 
नहीं बदल सकता कोई इसे अब 
जड़ें गंदगी की बहुत ही गहरी हैं 
मेरा ,मुझे क्या ,तेरा ,तुम्हारा 
स्वार्थ के पानी से सींचे फल ज़हरी हैं 




चुनो  कुछ भी तुम अब 
जीवन या समर्पण 
समय नहीं रहा  
अधजलों का अब 


जंग ,जंग और जंग ......अपने ही देश में जीने की जंग ............बड़ा शर्मनाक है ...............स्त्री सुरखित कहाँ है ......न जनम लेने से पहले और ना जनम लेने के बाद ................न तो गर्भ में और न गर्भ से बाहर .........
क्या यही देश है .......जिस राष्ट्र की  बागडोर ,सत्ता संचालन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नारी ही कर रही हो वहां  भी भी नारी अपने सम्मान और अधिकार से वंचित ???????
विडंबना है ..................

सुरक्षित कौन है ?

सुरक्षित कौन है ?

क्या आप सुरक्षित हैं ? क्या सुबह सूरज  निकलने से पहले आप स्वच्छ एवं ताज़ी हवा लेने आप अकेले पार्क में जा सकते है  ? क्या आप अपने बच्चों  को अकेले स्कूल जाने के बस स्टॉप तक जाने देते है ? क्या आप अकेले एक शहर से दुसरे शहर में बेख़ौफ़ यात्रा कर सकते है ? क्या शाम को ऑफिस से घर देर से पहुँचने पर आप के घर वाले आपको घर  पर चिंता ग्रस्त नहीं मिलते ? क्या आप शाम को अपने बच्चों  को अकेले खेलने के लिए भेज सकते है . क्या आप देर रात अपने परिवार को कही बाहर घुमाने ले जासकते है ?

अगर नहीं ! तो आप सुरक्षित कैसे हैं ? कभी सोचा ही कि क्या असुरक्षित केवल नारी ही है .......नर नहीं ?
महिला ही केवल जुलम की शिकार है ..पुरुष नहीं .............दामिनी के साथ हुआ अत्याचार जुलम की  पराकाष्ठा है ..तो क्या उसके साथ पुरुष सुरक्षित था ? 

यह जंग केवल नारी के मान ,सम्मान एवं सुरक्षा के नहीं बल्कि समाज के हर जन की सुरक्षा एवं सम्मान की है ....
आओ ! इसे केवल एक सीमा में ना बांधे ........बल्कि समाज में सब को जीने का हक़ दिलाएं ......सब को सम्मान दिलाएं ......दामिनी की  जीवन के लिए जंग को एक जीवन दे . दामिनी को अलविदा मत कहें .........वो तो अब जिन्दा हुयी है हर इंसान में ............लौ जगाएं .......सुरक्षा एवं सम्मान दिलाएं हर एक को ........प्रजातंत्र केवल बोलने का ही हक़ नहीं देता ......सम्मान से जीने का अधिकार भी देता है ..........जड़ से मिटा दो   उनसब को जो इस अधिकार को हम सब से छीन लेने की कोशिश करते हैं .......
मेरा अनुरोध उन सब से भी है जो धन के बदले वोट देते है .....अपना मोल बदल लो .......सम्मान एवं सुरक्षा के बदले वोट दो .....

जागो .....बढ़ो।।।।और करो ....जंग ..जंग और जंग ................दामिनी कौंध चुकी है ....अब बरसने की बारी है।।।।

शनिवार, 22 दिसंबर 2012

शक्ति

 शक्ति 

हरी भरी इस वन्सुन्धरा पर 
जाने कितने हिमपात हुए है  
रक्त सितारों वाले परीधर  
तार -तार ,बेजार हुयें है 
खेल खेल में कितनी कलियाँ 
मसली और कुचल डाली है 
अहम दंभ के आडम्बर में 
कितने अत्याचार हुए है 
ख़तम न होगी फिर भी देखो 
संचित शक्ति की गज़ब  अमानत 
 पशुता का दम भरने वालो 
लानत है ! तुम सब पर लानत 

थका हुआ आक्रोश

थका हुआ आक्रोश  

अब मन में 
आक्रोश नहीं !  केवल निराशा है 
आकाश ने  पृथिवी को 
न जाने कितनी बार रोंदा है 
हुआ क्या ?
पल दो पल का जिक्र
बाद की किस को  फिक्र 
बंजरता ताउम्र सिसकती है
नभ की पाशविकता 
धरा का कोई और टुकड़ा 
लपकती है !!!!!!
घिन आती है 
इस निरर्थक आक्रोश पर 
नपुंसक सांसदों के जोश पर 
 निराशा है ! केवल निराशा है 
  अपने इस वतन में अब 
सुरक्षा की  पिपासा है .......



गुरुवार, 1 नवंबर 2012

अद्भुत है संगम

अद्भुत है संगम 

चूड़ियों की खनक
औजार की  गमक
मेहदी सने हाथ
रक्त रंजित  पाँव
त्योहार का कोलाहल
अन्दर रिसे  हलाहल
आँखों की चमक
हई आज धूमिल  
आशंकाओं का गहरा
 फैला भ्रमजाल
अद्भुत  है संगम 
व्याकुल है जीवन
जीने  को फिर से
उतिष्ठ हुयी वेदना
मरने को फिर से
रजनी के तम को
हर रहा दीपक
अद्भुत है संगम 



अजीब इत्तफाक है !!!

अजीब इत्तफाक है !!!

अजीब इतेफाक है
जिंदगी दर पर खड़ी है
और मैं  पनाह की
भीख  मांग रहा हूँ
सब कुछ अपना है
फिर भी कुछ खोता है
पा कर सब कुछ  भी
क्यों यह मन रोता है
बंद हुआ द्वार एक
खुल गये कपाट कई
फिर क्यों पीड़ा के
तन्तु यह बुनता है
शंका के झूले की
हिल्लोर एक माया है
सुख दुःख के उलझन
जीवन की छाया है
अजीब इतेफाक है
दुःख की पुडिया
आँचल में बाँध रखी है
और मैं सुखों की
भीख मांग रहा हूँ


मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

Aasha

आशा
करता हूँ  अनुरोध यह तुमसे
मत करो पुन्य पाप का लेखा
जीवन के इस जल तरंग में
ना जाने कितने गीत  और बजने  है
चलते चलते यूं रूक जाता
गिरता जो तो संभल नहीं पाता
रज कण  से लिपट नहीं पाता
धूलि ना मस्तक पर धर पाता
करता हूँ अनुरोध यह तुमसे
मत करो हार जीत का विवरण
जीवन  के इस उतार चढाव में
ना जाने कितने जीत और सजने है

मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

उनवान

शीर्षक अभिव्यक्ति- २७ - उन्वान "को लेकर लिखी गयी यह पंक्तियाँ

क्या जानू क्या है उनवान
भाव गीत और छंद बने जब
कठिन उच्चारक ब्यान
क्या जानू क्या है उनवान
मन में अगनित भाव है पलते
द्रवित हुये शब्दों में ढलते
सारे नियमों से अज्ञान
क्या जानू क्या है उनवान  
मन में उमंग तरंगित होती
आशा की जिह्वा से बोती
शब्दों के अंकुर अनजान
क्या जानू क्या है उनवान
लेखन स्वत लेख लिख जाता
दीबाचा की रस्म ना होती
नव कल्पना भरे उड़ान
क्या जानू क्या है उनवान

सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

नमन ( श्री लाल बहादुर शास्रती जी के जन्म दिवस पर )

नमन ( श्री लाल बहादुर शास्रती जी के जन्म दिवस पर )

करूं कोटि नमन
अर्पित सुमन
और वचन भरू
यही बारम्बार
श्रध्ये तुम
महानायक तुम
अनुसरण तुम्हारा
करूं   जीवन भर 
हे  युग पुरुष
हे नर पुंगव
कोटि नमन
शत कोटि नमन

सदा सुहागिन धरती

सदा सुहागिन धरती

उतरा है लो चाँद धरा पर
पर  गुमसुम ,कितना खामोश
स्पंदन हीन हुआ था भावुक
बस   आँखों से उगले आक्रोश
रहती क्यों चुपचाप धरा
क्यों करती है यह विषपान
द्रवित हृदय पर क्षमा बांटती
सह  कर भी कितना अपमान
अनबुझ एक पहेली मानो
इसके भीतर सच पहचानो
सप्त ऋषि की एक कल्पना
संग सभी पर तन्हा  जानो
चंदा डोले वन -उपवन में
हर वीथी और हर सरहद में
बन ज्ञान की अमर वर्तिका
सन्देश फैलाए जगतीतल में
फिर धानी चूनर पहना दो
फिर सोलह सिंगार सजा दो
बेवा होती इस धरनी को
दुल्हन का  स्वरुप बना दो 
प्यार जताती मेरी धरती
सर्वस्व लुटाती मेरी धरती
नष्ट करो मत प्राकृत इसका
सदा सुहागिन मेरी धरती

रविवार, 30 सितंबर 2012

"चलो कही दूर चलते है "

"चलो कही दूर चलते है "

चलो चले  कहीं बहुत दूर
नदिया के पार
तारो की छाँव
पर्वत की तलहटी पर
एक छोटा सा गाँव 
ना भूख लगे ,ना प्यास जगे
बस अपने मन से मन लगे
चलो चले कही बहुत दूर

 मन के मीठे बोल
बोलें ,बिना किसी तोल-मोल
जहा  बेखटक रात ना जाए
बिन बुलाये दिन ना आये
तारे दामन में भर लें
जुगनू नीले नभ पर छायें
चलो चले कही बहुत दूर

लहरे

लहरे

लहर लहर लहराती लहरे
तट से आ टकराती लहरे
मन में संबल बन कर बसती
शांत धरा उकसाती लहरे
ठहर ठहर कह जाती लहरे
जीवन पथ दर्शाती लहरे

संभल संभल उठ पुनह संभल
सहज भाव कह जाती लहरे
साहस की परिचायक लहरे
दुविधा की सहनायक लहरे
असमंजस को धूमिल करती
वसुधा की अधिनायक लहरे
रूक जायो तो छोर ना पकडे
संग बहो मझदार ना अटके
कठिन धरातल पर जो अटको
जीवन का अभिसार ना भटके

सोमवार, 24 सितंबर 2012

वापसी

वापसी 


वक्त की बुनियाद पर थी
चाहतों की वापसी 
जलजले बढ़ते रहे 
थी हादसों की वापसी 
तुम ना चाहते तो भी 
तूफ़ान यह आना ही था 
बढ़ते दरिया के कदम और 
लहरों की थी वापसी 
बाँध कौन पाया है मन को 
बनते बिगड़ते भाव को
सत्य के आलोक में भी
कल्पना की वापसी
लम्हा लम्हा जी उठा था
याद के धुंधलकों में
चिर पुरातन मौन था
और नव ध्वनि की वापसी

लहरे



लहरे

लहर लहर लहराती लहरे 
तट से  आ टकराती लहरे 
मन में संबल बन कर बसती
शांत धरा उकसाती लहरे 
ठहर ठहर कह जाती लहरे 
जीवन पथ दर्शाती लहरे 
संभल संभल उठ पुनह संभल 
सहज भाव कह जाती लहरे 
साहस की  परिचायक लहरे 
दुविधा की सहनायक लहरे 
असमंजस को धूमिल करती 
वसुधा की  अधिनायक लहरे 
रूक जायो तो छोर ना पकडे 
संग बहो मझदार ना अटके 
कठिन धरातल पर जो अटको 
जीवन का अभिसार ना भटके 

रविवार, 16 सितंबर 2012

कर्म चक्र

कर्म चक्र
 
रोज़ सुबह सूरज है चढ़ता
साँझ ढले छिप जाता है
तारों की डोली में सज कर
वसुधा पर चंदा आता
नियमित घूमे गोल धरा
और संग में घूमे सारा मंडल
बीच अधर में लटके लटके
चलता चक्कर हुआ ना बेकल
प्रकृति के इन कलपुर्जों में
सामजस्य भी हुआ अचंभित   
काल चक्र के कल पुर्जों में
फंस कर मानव हुआ अचंभित
 काल कर्म की वैतरिणी में
बहता मानव प्रतिपल प्रति क्षण
थक कर रूकने को होता उद्यत
बह जाता हर बार फिसल कर
डरता है वह रूक जाने से
डरता है फिर बह जाने से
डरता है फिर कदम ताल से
डरता है इस समय जाल से
थक जाता मन अगर कभी
तो सागर तट पर  आ जाता
उठती गिरती लहरों संग
मन विह्ल भाव मुस्का जाता
मिट जाता तब सब रीता पन
बहे तरन्नुम का झूला 
फीके फीके मधुकुंजो में भी
खिले सुमन ,मन फूला फूला
करता है प्रयतन पुनह तब
करे दूर  मन की शंकाए
भागीरथ प्रयत्न करे तब
प्राकृतिक कल पुर्जा बन पाए

शनिवार, 15 सितंबर 2012

अंतर्मन की छाया

अंतर्मन की छाया
 
हर इक छाया की छाया में
 हर पल की प्रतिछाया है
कितना भी सुलझा लो  इसको
यह उलझी रहती  माया है
नहीं उजागर होता कोई
दाग भला इसमें पूछो क्यों 
इस छाया से लिपटी हुई
हर  जन की इक काया है 
रात हुई तो सो जाती है 
चदता सूरज झट उठ जाती 
ऊँचा होता मानव जितना 
बढ़  कर आगे निकल जाती है 
 म्ह्त्वान्क्षा मेरी सबकी
अभिलाषा को हर पल दर्शाती
चेतन सुप्त हुई तो भी क्या
अवचेतन मन को झुलसाती
 दंभ इड़ा इर्ष्या की भगिनी
 विषय घृणा, क्रोध बरसाती
अंतर्मन गर हो जो  निश्छल
कुंदन  बन तन को चमकाती
 
 
 
 

बुधवार, 15 अगस्त 2012

चाँद

चाँद
 
यह चाँद चमक कर बोल रहा
बातें मन की सब खोल रहा
बात हुई जब गैरों की
आँखों से आंसू सूख गये
अपनों का राग छिड़ा जब कल
दरिया कितने ही उमड़ गये  
क्या स्वार्थी मन की बात करूं
अपनों का  दर्द तो मेरा है  
दूसरों के  दुःख की चिंता हो क्यों
वह तो जीवन का फेरा है
वाह रे ! ओ दयालू मानव  
चला जीवन रहस्य को अपनाने
जीत ना पाया मन  को इस  धरती पर
 चला चाँद पर विजय पताका फहराने
 
 

गुरुवार, 9 अगस्त 2012

चिंगारी

चिंगारी
चिंगारी
एक ख्वाब था नयनो में
जिसे  दिल ने तराशा था
एक सांझ उतरती थी
जिसे दिन ने संभाला था
जीवन के फलसफो पर
हज़ारो ही   फ़साने थे
श्वासों की  वीणा पर
बस तेरा ही  तराना था
 बैठे रहे ओंठो पर 
बन कर एक   तब्बस्सुम
राख हुई जाती थी  शमा
बस जलता परवाना था
यादों के धुध्लकों में
दबी  थी वह चिंगारी
भूडोल उठा सागर में
झुलसा यह  जमाना था
खो जाना ना " नीरज"   
इन ज्वाल तरंगो में 
रूकने को नहीं वो बस 
कुछ और  ठिकाना था  

आत्म- विश्वास

आत्म- विश्वास
 
 किस दौर से गुज़रा हूँ
किस दौर में जाना है
आशंकित उदासी से
घिरा आज जमाना है
चुपचाप हटाता हूँ वह जो
वक्त पे दीमक है
इतिहास के पन्नो पर
बस मेरा ही फसाना है
 
पायोगे मुझे हर जर्रा जो
नज़र मेरी   सी  पायोगे
जी जाओ गे हर लम्हा
जो धुन मेरी ही गाओगे
कर जाओगे तुम पार 
समुदर यह रिचायों का 
हर उठती हुई  ऋचा  पर
जो  श्रुति मेरी लगाओ गे 
 
कब, किस वक़्त क्या हो जाए !
इस का अनुमान नहीं है
भरोसों  पर ही जिन्दा हूँ
इस का गुमान नहीं है
टिक जाते है धरती पर जब मेरे कदम 
बढ़ कर जो ना छू लू 
ऐसा आसमान नहीं है  
 

रविवार, 8 जुलाई 2012

कसक

कसक
 
 क्षुधा-  पिपासा हर चाहत की
जैसे आज रुग्न हो गयी
पग बोझिल अब हुआ पथिक का
चाक अंधेरों में घिर आया
रंजित हुआ मन का गुलशन
अवसादित हर फूल कुह्म्लाया
मत  बात करो ऋतुराज  की मुझसे
पतझर और कितने आने है
रूठ गये  हैं छंद  और मुक्तक
गीत और अब क्या गाने है
अंकित करता अपने पथ पर
छाप तेरे हर पद आहट की
संचित करता अपनी झोली में
मुस्काते तेरे साए की
नहीं तकता मैं  बाट तुम्हारी
नहीं होता मन झंकृत तुमसे
कसक अभी जिन्दा है लेकिन
लडती है  अपने ही मन से

जल

जल
जल ही जीवन है
विनाश भी जल है
जल  कर जी जाए जो
क्या ऐसा भी कोई पल है ?
आँख से टपका तो जल था 
खून जिगर का -तो जल था 
विस्तृत नभ के आगोशों में 
छिपा जो बादल -वह जल था 
सूखे चश्मे -निर्झर झर 
पल्लव पल्लव ढूंढे जल 
तप्त पिपासित चातक नभ में 
चोच उठाये -चाहे जल  
बूँद बूँद की अभिलाषा में
संचित करता उर में जल
जल जल कर तन  भस्म हुआ तो
सिंचित मन  को करता जल
अकेलापन
अब मुझे
कभी नहीं सताता
कभी नहीं डराता
इक एहसास ऐसा
जिसकी पहचान
अपने से कराता
शायद इक यही है
जो केवल मेरा अपना है
और लिपट कर मेरे साए से
मुझे जीने के राह दिखाता
डर लगता था जो कभी अंधेरो से
उनमे भी आशा का दीप टिमटिमाता
 

शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

कुछ लिखना चाहती हूँ लेकिन लेखनी रूक रूक जाती है
कुछ सोचना चाहती है  लेकिन कल्पना जैसे पंख विहीन हो गयी है
कुछ कहना चाहती है लेकिन कंठ जैसे अवरुद्ध हो गया है
ख्यालो के मुसलाधार बारिश हो रही है लेकिन कही भी उनका जमाव नहीं है
एक आता और दूसरा जाता है . एक रेला जैसे कही कुछ दूर बह कर कुछ स्थान ढूँढ रहा हो
आज उसे अहसास हुआ कि  परिपक्वता का अनुभव कुछ अनबोला और अनकहा सा होता है
सच बचपना जीवन में अपना अधिपत्य बना कर रखे तो ही अच्छा है ........................

रविवार, 1 जुलाई 2012

क्या ?

क्या ?
 
गीतों में प्राण नहीं होते हैं
मन के कोरे  भाव है यह
भावो के प्राण नहीं होते हैं
रजनी के श्यामल आँचल में
शबनम के आंसू झरते हैं
दिनकर की रौशन  किरणों से  
संतप्त ताप तम हरते हैं
हरते तम के उन गीतों में
उखड़े श्वास नहीं होते है
हर एक श्वासित गीत में देखो
अमृत्य भाव छुपे होते हैं
 

महत्व

महत्व
Photo: प्रकर्ति का ये अनुपम , अद्भुत , और मनोहारी  द्रश्य देखकर 
दिल से  निकला :- ॐ हरि ॐ

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनःसर्वे शन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तुमा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
Om Sarve Bhavantu SukhinahSarve Shantu Nir-Aamayaah |Sarve Bhadraanni PashyantuMaa Kashcid-Duhkha-Bhaag-Bhavet |Om Shaantih Shaantih Shaantih 
 
Meaning:
Om, May All become Happy,May All become free from Illness.May All see what is Auspicious,Let no one Suffer..........Om Peace, Peace, Peace.
 
 
 
चाँद चकित और मौन
हुआ दिनकर गौण
 हुई हतप्रभ प्रकृति
जलधि में छिपा कौन
प्राकृतिक मनोहारिता
दे रही जीवन दान 
पञ्च तत्व के  संगम का
 ऐसा दृश्य महान
लघु गुरु का सब भेद
हुआ आज अभेद
हर तत्व का महत्व 
बोले हर सन्देश  
 
 

पराकाष्ठा वेदन की !!!!

मित्रों ! यह कविता में श्री राघवेन्द्र अवस्थी जी की पोस्ट से प्ररित हो कर लिखी है जिसने उन्हों ने अपनी माँ की पीड़ा को अपने बच्चो का गंगा मैया द्वारा लील जाने पर व्यक्त किया है.......एक माँ का दर्द अपने बचों को खो कर कैसा होगा यही मैंने महसूस किया और उसे व्यक्त किया
पराकाष्ठा वेदन की !!!!

उफ ! वेदन की पराकाष्ठा
धीर हुआ जाता है मद्धम
रूदन थका पर चला निरंतर
फीके फीके आश्वासन है
धूमिल चिंतन और विचलित मन
व्याकुल हुई आस की चाहत
विचर रही है बेकल बेकल
पूरब से जो निकली धारा
बह जाती पश्चिम  में कल -कल 
व्यर्थ रहे अनुवाद विवादित
व्यर्थ हुआ अपनों का कलरव
व्यर्थ हुये  सब राग रागिनी
बस सुलग रहा वेदन का शव
बन बैठा मन मौन तपस्वी
किये धारण हठ-योग की मुद्रा
शिथिल शिला सा हुआ पड़ा तन
उफ !वेदन  की पराकाष्ठा

रविवार, 24 जून 2012

 फिर खिलेंगी कलिया और महके गी सरसों यारो
महके गा यह गुलशन और चहक उठे बुलबुल यारो
झूला झूले हर डाली कुछ ऐसा अलाव जगा दो
स्वप्पन्न सजा लो हर पल में और बीता युग इतिहास बना दो
सूरज  जल कर  राख हुआ है
ठंडापन सब ख़ाक हुआ है
बादल की हर आहट गुम  है
पुरवाई का साधक चुप है
चरवाहा बन कर आ जाओ
बादल हांक कर इधर तो लाओ
 

शनिवार, 23 जून 2012

समीकरण

समीकरण
 
जीवन के गणित के बदलते समीकरण जीने की परिभाषा ,परिमाप और परिणाम को भी बदल देते है ,इस बात का अनुभव शायद हर कोई करता होगा . बदलते मूल्यों के समीकरण एक बिंदु पर विभिन्न आकृतियों को निहारते , पुकारते और कभी उनसे बचते बचाते अनंत की तरफ आकर्षित होते है ..वह अनंत जहां हर समीकरण अपना अस्तित्व खो कर उन्मुक्त हो विचरण करता है .....और कुछ मायने , बेमाने कर देता है .............
 
आढ़ी तिरछी रेखायों के बीच घिरा मन वृत्त का व्यास नापने लगता है . वेग और गति के मंत्रो का सामजस्य बिठाने की कोशिश उसे फिर अनंत की तरफ खींचने लगती है .वृहद् वृत्त सहसा सिकुड़ने लगता है और परम्परा की धारा को तोड़ फिर आकर्षित होता अनत को .....
 
शायद यही जीवन है ........आत्म  वृत्त का बढ़ता और घटता व्यास ही अंतर्मन को कही अनंत से जोड़ता है ....वह अनत जहा असीमित अपरिमित और अथाह जीवन है ..........................

रविवार, 3 जून 2012

लौट आओ

लौट आओ
 
भ्रमित किया था हर आहट ने
शंकित करती हर पदचाप
यादों की  धारा में बहती
उद्वेलित हो  सुनती प्रलाप
भाव विह्ल दिल के गलियारे
जल से पूरित हुये दृग कूप
 गहराते जाते अंधियारे 
विकट हुआ प्राकृत रूप
कब आये और कब चल दोगे
वक्त को बाँध ना पाया मैं
पाया था जो रफ्ता रफ्ता
खो कर जांच ना पाया मैं
जीवित रखने को जिन्दापन
श्वास भरू यादों का  तन में 
 चिर निद्रा में  लीन हुआ तो
कब्र भाव की खोदूं मन में
 आओ पुनह लौट कर आओ
वक्त तुम्हे ना जाने देगा 
कतरा कतरा रूप तुम्हारा 
अपनी झोली में भर लेगा  

रविवार, 20 मई 2012

परिवर्तन

परिवर्तन
 
परिवर्तन जाने   पहचाने
परिवर्तन कुछ  नये पुराने
अंतर्मन को बांधते है
कई सपने जागते हैं
एहसास को पुकारते हैं
अनायास कही चुपके से
शून्य उतर आते है
सहमी सी  मृगनयनी का  
आलिंगन करते हैं  
कुछ गमी का ,कमी का
ध्यान पुनह धरते हैं
खोया सब पाने को
फिर छटपटाते है
लौट आओ पल प्रिय
कह साए से लिपट जाते है
शोक संतप्त वेदना
द्रवित हो बहती है
अज्ञानी हो तीर से
दूर दूर रहती है
परिवर्तन का प्लावन यह
सब तहस नहस कर जाता
सहज गर अपना लें तो
जलनिधि से गिरी आता

शनिवार, 19 मई 2012

प्रत्याशी

प्रत्याशी
 
बुझी बुझी है चांदनी
बुझा बुझा सा है गगन
बुझ गयी वसुंधरा
बुझा बुझा सा है चमन
छूट चले मीत सभी
रूठ चले गीत  सभी
वेदना के द्वार खुले
झूठ चले रीत सभी
तप्त वारिधि पवन 
मौन धारिणी अयन 
द्रवित वेदना प्रलय 
विस्तृत हुआ संशय 
टूटी श्रधा औ विश्वास 
सुप्त हुई मन की आस 
मित्र ,मित्रता के नाम 
देखे घातक परिणाम 
छोड़ दें यह विश्व सारा 
छूटे भले ही सहारा 
मन स्वयं अभिलाषी 
बने अपना प्रत्याशी 
 

बुरा लगा

बुरा लगा
 
 
बुरा लगा तेरा रूठ कर जाना
बुरा लगा मुहं फेर कर जाना
बातों ही  बातों में बात बना डाली
बुरा लगा अब बात बना जाना
ना आते तो भी कोई गिला ना था
समझ लेते कि कोई मिला ना था
कहते हो  कि तुम मेरे हुये  कब थे
हकीकत यह कि इस जग में तेरे  हुये सब थे

भूल गये मेरा ही नाम

भूल गये मेरा ही नाम
 
करते थे तुम मुझसे बातें
जागे कितनी काटी रातें
हर पल सुमनों का मेला सा
फैले सौरभ एक रेला सा
यादों की पीड़ा से ग्रसते
हर लम्हे में बस तुम  बसते
नियति ने कैसा चक्र चलाया
दूर तुम्हे  मैंने नित पाया
खो बैठे तुम सारे धाम
भूल गये मेरा ही नाम
 

अकेलापन

अकेलापन
 
पल चुराता  है
लब छुपाता  है
 नम आँखों से 
गीत सुखाता  है
 
अकेलापन
बीहड़ के देहरी पर
वेदन  की वीणा बन  
रोदन के सरगम पर  
स्वर सजाता है
 
अकेलापन
चुप्पी में डूबा सा
घुट घुट कर जीता सा
उड़ने को नभ में
खग सा फडफडाता है
 
अकेलापन
थकता है ना रूकता  है
रूक रूक कर  बढ़ता है 
अनंत की सीमा पर
गृहस्थी जमाता है
 
अकेलापन ?
पन यह अकेले  का
मत पालो झमेले सा
जीवन के मधु पल में
पतझर को बुलाता है  

रविवार, 6 मई 2012

धुंधलके

धुंधलके
बात की बाट में बाँट लिया यह जीवन
अनकही बातों में धुंधला सा सवेरा है
प्रश्नों के बियावान में  क्यों चलता है दिनकर
पूरब है ना  पश्चिम है उत्तर हर दिशी है
गौर करेंगे तो ना पायेंगे गवाही भी
छाया भी कहीं ओझल छाया में छिपी है
सिमट गये सब लम्हे रजनी के स्याहों में
बातों के धुंधलके है  ना तेरा है ना मेरा है
अब  बात की बातों  में उठता है धुंआ यूं
दीपों की तपिश में भी चहूँ फैला अँधेरा है
फैली अथाह राशि ख्यालो के समुंदर में
सीपी से छिपी बात का भू तल पर ही डेरा है

तल्लीनता ?

तल्लीनता ?
पुकारते है सन्नाटे
हर दिन  की तरह
आज भी खामोशी से
निहारते है सन्नाटे
हर दिन की तरह
आज भी दूर से
फान्सलो  का संकरापन
विस्तृत हुआ जाता है
नियति का घटना क्रम
विस्मित हुआ जाता है
मुस्काता है ,रोता है
रोता है. मुस्काता है
हाथो से पकड़ने की
प्रक्रिया में असहज हो
दूर छिटक जाता है
पंख विहीन ही
अंत में  विलीन है
गूंजते सन्नाटो में
क्षुबधता तल्लीन है

सोमवार, 30 अप्रैल 2012

दर्द का व्यापार

दर्द का व्यापार
दे  ही देते हम उसे
जो ले कभी हम से उधार
जिंदगी एक दर्द है
कर ही  ले इस का व्यापार
बदगुमानी थी बहुत
कि याद उनको आयेंगे
रास्ते जो गये बिछड़
किसी मोड़ पर टकरायेंगे
नफरतों के झाड़ थे
कैसे भला उगता यह प्यार
शुष्क था दिल का समुंदर
अब भला कैसा ज्वार ?
कंठ है अवरुद्ध  ज्यों
भावना के इश्तहार  
नीर जो  बहते नयन से
दर्द को जाते पखार
बिक ही जाए यह कभी
अब नकद याँ  कल उधार
चार दिन की जिंदगी में
दर्द भी कब है बेकार ?

नाम

नाम
बदली क्या तुम ने नज़र
दिन बदलते ही रहे  
मील के पत्थर सभी  
रास्ते बनते रहे
मुस्कुराये शूल तब
फूल बन खिलते रहे
उमड़ते दरिया सभी
सुगम से झरते रहे 
 जुगनुओ के दीप थे
टिमटिमाते ही रहे
मिल गया जो नाम के
तेरे मुझे ऐसा स्पर्श
नागमणि सी बाम्बियों में
जगमगाते ही रहे

रविवार, 22 अप्रैल 2012

जानती हूँ

जानती हूँ 
हो यहीं
कही आस पास
ना देते दिखाई
ना देते सुनायी
महसूसा  है तुम्हे
हर श्वास में
हर आस में
हर घटना में
हर एहसास में
जानती हूँ
हो यही
कुछ आस पास
रूह में ,ख़याल में
मेरे हर सवाल में
जवाब में प्रत्यक्ष हो
मुश्किल में दक्ष हो
जानती हूँ
हो यही
कुछ आस पास

एक वक्तव्य

एक वक्तव्य

वक्त ने कहा वक्त से
चलो अभी वक्त है
कहा वक्त ने वक्त से
नहीं अभी नहीं वक्त है
जद्हो जहद बढती रही
रस्साकशी चलती रही
वक्त की इन सगर्मियों में
खूब बहा वक्त भी
थक गया रूक गया
खूब सहा वक्त भी
 वक्त की चेतना
वक्त की अवहेलना
वक्त की बरबादियाँ
वक्त की आबादियाँ
वक्त की सरहदों पर
वक्त का आभास है
वक्त को जीत लो
वक्त का अभाव है

लगता है जैसे कल की बात हो

लगता है जैसे कल की बात हो
उन्नत माथे  पर चमकता सिंदूर , आत्म  गौरव से दपदप दमकता मुख..जैसे सूरज के तेज़ भी मद्धम से पड़ने लगा हो, बंद आखो से छलकते वात्सल्य के स्त्रोत और गुलाब की कली से बंद लब जैसे मौन आशीर्वचनो की झड़ी लगा रहे हो ..आखिरी वक्त का यह दर्शन आज भी आखो के बंद दीपों में झिलमिलाता  है किसी दिवा स्वप्पन की तरह .
मैं उन दिनों DISA  के एक्साम के तैयारी में व्यस्त थी. . रोज़ कहती थी बस खूब पढो ..और बबुत बड़े बनो .. आज उनका स्वप्पन पूरा हुआ जैसे.
शायद मैं उनकी  आँखों  में बसे उस सपने को जो उन्हों ने मेरे लिए देखा था आज पूरा करने में कामयाब हो पायी .दस बरस पूर्व मेरे जुड़वाँ बच्चो  के कारन मैंने अपने ऑफिस में इस्तीफ़ा  दिया  था तो सब से ज्यादा  व्यथित उन्ही को देखा था . बड़ी दबी आवाज़ में उन्होंने मेरे पिताजी से कहा की इतनी होशिआर बच्ची ...पता नहीं अब कभी उभर  भी पायेगी की नहीं........२००५ में में फिर से अपने करीअर पर ध्यान  देना शुरू किया और POST QUALICATION COURSE  पास किया. इसी बीच उनका अचानक देहावसान हुआ. लेकिन मुझ पर तो जैसे एक ही धुन सवार थी. अपने आप को उस जगह  पहुचाना जहा मेरी माँ ने मेरे होने की कल्पना की थी. एक स्वप्पन  मेरे लिए उनकी आँखों में था . मुझे परेशान  देख कर बस यही कहती थी "मुन्नी तू  बहुत संतोष वाली लड़की है .तुझे भगवान् ने बहुत देना है" आज उनके आशर्वाद का परिणाम है की में अपनी उस मंजिल पर चरण रख पायी हूँ जिसकी जीते जी मेरी माँ ने कल्पना की थी.
उनके जाने के ६ वर्षों बाद में उनका सपना साकार क्र पायी .
खुश तो वह अवश्य होंगी जहा भी होंगी.........और आज उनके जाने के ६ वर्ष बाद ही मेरे आँख से आंसू उनकी याद में आखो से ढुलक रहे है जो उनके वात्सल्य को पुकारते उनको श्रधान्जली दे रहे है ..............माँ तुम मेरा जीवन आधार हो हमेशा मेरे साथ थी  और मेरे साथ रहोगी...
चरणस्पर्श .....
माँ का जाना ( माँ की पुण्य स्मृति में )
 जान  चुका  मन जिसको अपना
देखो !आज हुआ बेगाना
वक्त ने जैसे तेवर बदले
पिघल उठा  मन का  वीराना
मुस्काता इतराता पतझर
रुष्ट हुआ मधुमास बहार
फूलो की मधरिम शैया पर
शूलो की  उन्मुक्त कतार
सागर का अंतस अब सूखा
नीरद का अस्तित्व है रूखा
मरू के रेतीले टीलों  पर
मन बना कंटीला झाड अबूझा
दिया दर्द का पीर की बाती
जले मनमंदिर में दिन और राती
सूनी आँखे गमन निहारे
हर अश्रु तेरा नाम पुकारे
बिलख बिलख कर रोता रोदन
करता है तेरा अनुमोदन
हुआ श्वास से वंचित जब तन
वैकुण्ठ में निवस गया मन
तुम बिन जीवन निष्ठुर है मां
क्रुद्ध विरोध जलन की ज्वाला
आँचल के तेरे आज भी छईया
पीयूष करे जीवन की  हाला


और तेरा वजूद

और तेरा वजूद

कभी साथ हमको  ना मिला
कभी छल किया मुकद्दर ने
हर मोड़ पर था तम  पडाव  
ता उम्र   जिंदगी छलती रही
मिला जो अब कभी तू तो
सोचा   कह ही  डालेंगे
 वो अलफ़ाज़ जिसकी रूह
 मेरे साथ गुनगुनाती  रही
रूक जाते कभी यह पग
चल कर दो -चार  कदम
अनुभूति तेरी अस्मित की
 मेरे साथ जगमगाती रही 
जाने कौन सा लम्हा
मुझे तुम तक मिलाता है
भावित  सुरभियाँ मन की
मेरे साथ मुस्कुराती रही 

शनिवार, 21 अप्रैल 2012

खुद से मिल तो लेती मैं

खुद से मिल तो लेती मैं 
 
मिल ही लेती खुद से  मैं
बाद तेरे जाने के
फुसफुसा कर कान में
चुपके से कहती यह हवा
मिल ही  लेती खुद से मैं
तेरा आना ,चले जाना 
चुपके चुपके यूं  मिलना
मिल कर फिर बिछड़ जाना
आहट बन कर आ जाना
और बे आहट चले जाना
धड़कन में बसे रहना 
जीवन से चले जाना 
सागर में उठती लहरे  
भीगे तट को छू कर जब 
रीते मन से जाती हैं 
धारो से पुनह मिलने 
मन ही मन में कहती हूँ 
 खुद से मिल तो लेती मैं 
 
 

गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

तन्हाई

तन्हाई
तन्हाई आवाज़ देती है
फिर बुलाती है
कितनी हो गयी तन्हा
कह कर गले  लगाती है
तन्हाईयों  को खींच कर
तन्हा छुपाती है
डर ना जाए यह कही
तन्हा इरादों से कर
तन्हाईयों को भींच कर
उर में छुपाती है
हो दफ़न ना आवाज़
इसकी इस वीरानी से
खामोशियों के बीच
कोलाहल मचाती है

 

भोर का तारा

भोर का तारा
सांझ ढले अम्बर प्रांगन में  
चमक रहा था भोर का तारा
खोज रहा था रश्म सुनहरी
नभ में उल्टा लटका सारा
निशि और दिन के सत्वर सच को
निगल  रहा था सब का प्यारा
शून्य विज़न में एकाकी सा
सींच रहा था दर्द किनारा
अम्बर  घट के अंकुर फूटे
मधुकर ने भी मोती लूटे
विस्मृत परछाईयों के पंख
अस्तव्यस्त हो बिखर कर टूटे
बाट संजोता रहा भोर की
टिम टिम रात भर करता तारा  
भोर हुई तो क्षीण हो गया
दिनकर रश्म से भोर का तारा
तन्हाईयों में भीग चला  था
तन्हाईयों  से रीत चला  था
संग सुझाता था जो जग को
तन्हाईयों में बीत चला था
करता हूँ प्रयतन मैं  भरसक
ख़ोज रहा बन कर बंजारा
सहज रूप है  मेरा उसमें  
चमका बन कर भोर का तारा
 
 
 

शनिवार, 14 अप्रैल 2012

खिन्नता

खिन्नता
सदियों से उसे यूं  ही बुलाता रहा मैं
जो पास छिपा बैठा था दिल के दरीचों में
आया था कभी जीवन में  जो बन  के मसीहा
अब रोज़ शिकस्त जान को देने सा लगा है
नावाकिफ रहता था जो रस्मो रिवाजों से
जालिम है हर रस्म निभाता है जतन से
मिट जायेंगे सब ख़ाक में  यादों के घरोंदे
रेत के महलों के कभी गुम्मद नहीं होते

आह्वान

आह्वान

तार झनझना उठे
गीत गुनगुना उठे
मिल गई जो मंजिलें
दीप झिलमिला उठे
लिए स्वप्पन जन्म जो
सब प्रफुल्लित  हो उठे
खिल गये मन सुमन
पथ सुगन्धित हो उठे
रश्मिया चमक उठी
उन्नत  है मन ललाट
गमक गमक तरंगिनी
समय की देखती है बाट
अदृश्य भय से डरा
मन के द्वार जो खड़ा
वह काल है अतीत का
ठिठुर सिकुड़ कर बढ़ा
उठे  जो पग रुके नहीं
बड़े कदम मुड़े नहीं
मंजिले जो मिल गई
वह रास्ते बने नहीं
चलो चलो चलो चलो
श्रम कुदाल ले बढ़ो
पंथ है प्रशस्त अब
स्वर्ण काल में गढ़ों


वक्त कहा है ?

वक्त कहा है ?
नभ पर  चमकते  भोर के तारे ने टिमटिमा कर  सुबह होने का ऐलान किया . उषा की सुनहरी किरन अपना जाल फैलाने को तैयार हो गयी
विहग वृन्द का कलरव उषा गान करने लगा .रात भर शबनम की बूंदों  से भीगी वनस्पतियाँ पुनह अपना रस बरसाने को उद्यत हो उठी .
सब तरफ गतिशीलता नव आवरण ओढ़ गतिमान हो उठी .काल स्वयं नव रथ पर आरूढ़ हो कर भ्रमण करने निकल पड़ा 
जल थल नभ की गतिशीलता जैसे मानव को  उसके  गति हीन होने का एहसास करा रही थी . चाह कर भी आलस्य के चादर से नहीं निकल पा रहा था . वक्त था कि कही थमने का नाम नहीं ले रहा था . सरपट सरपट दौड़ रहा था......आकाश में ...आदि में....अंत में......अनंत में....
और मानव आलस्य के चादर ओढ़े , ऊंघता , सूंघता ,रोता बिलखता और कभी हँसता खिलखिलाता , अपनी खीसे निपोरता बस यही सोचता है और गुहारता है कि "वक्त कहा है "
.

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

दर्द

दर्द

हर दर्द किसी दर्द से बड़ा होता है

दर्द कही है इस का दर्द कहा होता है

ना सोचेंगे तो होगा ना दर्द का दरिया

दिल के किनारों पर ही दर्द जमा होता है

दर्द जो तड़प उठे वोह दर्द कहा है

दर्द ने भी दर्द का हर बोझ सहा है

बह निकला जब तोड़  बाँध दिलों के

दर्द भी दर्द के हर  आंसू में बहा है

जो बात मैं कह दू तो दर्द बने है

जो बात में सुन लू तो दर्द बने है

करे अनुभव जिसे यह दिल वह  दर्द बड़ा है

दिल के किनारों पे तो दर्द खड़ा है





गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

प्रयत्न

प्रयत्न  
शब्दों का कोलाहल लो फिर हुआ मौन
मनघट के देहरी  से यह झाँक रहा कौन
उत्सव है यादों का  अम्बर तक मेला है
शिशिरों  के मौसम में वसंत का रेला है
रह रह कर बहते हैं मुग्ध हए नैन
न्योता है मंगल मय रीझ उठे बैन
किंकिन से नुपूरों की गुंजित मधुशाला है
मन के दौराहे की अब निशित पग शाला है
रुष्ट हुये झंझावात ,दिनकर की शक्ति से
मन के आये मीत जो तुम निश्छल भक्ति से
द्वारों के वन्दनवार कोकिला सजाती है
आस युक्त उत्कंठा दूर खड़ी लजाती है
आये जो अब तो ना जाने पायोगे
मंजिल पर धरे जो पग अब ना लड़ खडायोगे
खोल द्वार प्राची के अरुणिमा सजा लो अब
तप्त सुप्त स्वप्प्नो को फिर से जगा लो अब
गीत मधुर वासंती फिर धरा में गूंजेगे
भागीरथ प्रयत्नों को फिर से सब पूजेंगे


 

रविवार, 8 अप्रैल 2012

हर्ष का शंख

हर्ष का शंख
 
ना बनते है ना मिटते है
ख्यालों के यह बादल अब
ना उमड़ते है, ना झरते है
भावों के यह दरिया अब
सूखा अब  समुंदर है ,
मरू की रेत सा रूखा
बरसता ज्वाल आँखों से
धधकता उर हुआ   भूखा
तड़प की बूँद बाकी है
करती है हवा को नम
गगन के गीत गीले हैं
हैं बोझिल धरा का मन
सच का सत्य है कडवा
कल्पना मौन बैठी है
सृजन की तूलिका का स्वर 
किये अब गौण बैठी है 
सपने में है धुंधला पन 
बहारों को बुलाएगा 
खिलेंगे गुल गुलिंस्ता में 
भंवरा गुनगुनाएगा 
करो अब बात चैती की 
रश्मि पूनम की  छाती है 
करने उर्वरा  मन को
गुलाबी फिर बुलाती है
चलो आओ  मुडेरों पर
सृजन का बीज बो दे हम
जगत हो महकता मधुमास
हर्ष  का शंख गुंजा दे हम

उजले लोग

उजले लोग
उजालों  में जो भटके हैं
अंधेरों  से अब डरते हैं
मिले थे कल वो साए से
अब परछाईं से बचते  हैं
किये थे  दफ़न दस्तावेज़
सितमगर के गुनाहों के
जड़े ताबूत में कीलें अब
मागें हक़ पनाहों के
पुती कालिख स्याही की
नकाब पोशी  सफ़ेदी की
शहंशाह जुल्म के बन कर 
कहलातें है उजले लोग 
 

चुनौती


चुनौती 

कहता जीवन मरना छोड़ो 
अपने आप को छलना छोड़ो 
सांस की आस में धुयाँ हुआ  जो 
उन अनलों में तपना छोड़ो 
कहता जीवन व्यथा है कैसी 
चलती धारा कथा के जैसी 
हर इक अंक का अंत है निश्चित 
रंग मंच के मंचन जैसी 
जीवन का यह  राग पुराना 
गुंजित होता हर लम्हे पर 
चेतावनिया देता रहता यूं 
भूली  धुन का नया तराना 
कहता जीवन जी लो मुझको  
 स्वाति बूँद सा पी लो मुझ को 
पल पल प्रतिपल जो  हुआ असंभव  
 हो अजय तो जीतो मुझको 

रविवार, 25 मार्च 2012

मन की मर्यादा

मन की  मर्यादा
दोस्त दोस्ती और दोस्तों का प्यार ,इन रिश्तो में मायनों की व्याख्या कुछ धुंधली सी होने लगी है .
अभी दफ्तर में हूँ बाद में बात करते हैं.अभी घर में हूँ बाद में बात करते हैं
तो वह बाद आना ही क्यों है जिस को हम सब जगह से छुपा कर रखना चाहते हैं
मित्रता क्या केवल रास्तों की है ?
वक्त के बहाव में कुछ उलझे हुये  जज्बातों की है ?
या फिर उमड़ते विकृत , याँ झंकृत ख्यालातों की है ?
झुझला उठते है प्रशन स्वयं , उत्तर  डरे डरे से हैं
मौन विवादित जिह्वा पर आने को रुके रुके से हैं
स्वीकार करे ना खुल कर जो ,उन रिश्तों का औचित्य है क्या
जग की मर्यादा से भारी मन , मन की  मर्यादा के  मान का क्या ?
रिश्तों में छुपता है उजला पन , उजला धूमिल  निर्ममता से
गर वक्त मिले तो अपना पन ,वरना अनजान अस्थिरता से
क्यों मन अपनाए ऐसे रिश्ते क्यों स्वीकार करे इस जड़ता को
क्यों छिन्न करे मन के सत को ,पा भेद विभेद के चक्रों को

गुरुवार, 15 मार्च 2012

मन का अधिकारी !!

मन का अधिकारी !!
 
वह  मेरे मन का अधिकारी  !!
अठखेली करता ,बाल सुगम
शीतलता भरता ,चाँद अगम
क्रुद्ध क्षोभ मनस ज्वाला  को
ज्योतित करता सहज सुलभ
वह  मेरे मन का अधिकारी !!
वह चाहे तो वज्र गिरा दे
वह चाहे तो तमस मिटा दे
तनिक इशारा पा कर मुझसे
चाहे तो हर ताप मिटा दे
वह मेरे मन का अधिकारी !!
सोम शुक्र और अरुण वरुण
सब  ग्रह भरते   उसका पानी
बन कर दिग्गज  हर दिशी में
करता है  जो उसने ठानी
काल चक्र भी बंध जाता
जब चक्र कही उसका चलता
लोक तीन अचंभित हो कर
देखे उसकी मनमानी
वह बाल हठी,वह स्वधर्मी
वह चंचलता का साकार बिम्ब
नन्हा बालक मेरे मन का
करता उर्वर कर्तव्य डिम्ब
वह घोर निराशा में आशा
करे  उत्साहित जब मैं उत्साह हीन
जीवन के रूखे मरुथल को
पल में करता वह जीर्ण -,क्षीण
वह मेरा मन का अधिकारी
मेरे मन का नन्हा बालक
मेरे जीवन का अधिकारी 
जीवन की बुझी राख में भी 
भरता नव चेतन चिंगारी  

गमन

गमन
व्यथित तार वीणा के
हुए हौले झंकृत
कराहता रहा विश्व  
पीड़ा के गम  से
मधुर सेज सपन  के
विक्षिप्त हुए यूं  
डसने  लगे कूल  
जैसे नाग फन से
उठे तुम दिल से क्या
उठ गया जहां यह
धधक धधक मचे यहाँ
शूल खिले मन के
आये थे तो चुप्पी थी 
जाने का कोलाहल 
नीड़ त्रिन बिखर गये
कैसा  था तेरा गमन ?

चुलबुला जीवन

चुलबुला जीवन
फ़क्त एक जीवन
चुलबुला सा  जीवन
बुझने लगा ज्यों
टूटा हो दीपक
चहक गूंजती सी
महक फूलती सी
साँसों की  मौजों  में
भीगा  सा जीवन 
कभी वादियों में
कभी बीहड़ों में
कभी तटनियों में
कभी जोहड़ों में
अपने ही वादों से
जूझता सा जीवन
झोंका पवन सा
मूंदता नयन सा
उठता गगन सा
गिरता अयन सा
अट्टालिकायों में  
अटका सा जीवन
मलिन तेज़ सूरज का  
जलन शीत चंदा का
सूखा यह बादल सा
रूखा यह आँचल सा
सत्वर सी  धरती पर
हुआ मूक बधिर जीवन
फकत एक जीवन
चुलबुल सा जीवन
चुलबुल सा जीवन !!!

मेरा साया

मेरा साया
मिलना मेरा मुझे से  कुछ ऐसे 
जैसे हाशियों पर लिखी इबारते
होती महत्वपूर्ण कभी जो 
लेकिन वक्त के साथ साथ
खो देती है अपना अस्तित्व 
कनखियों से झांकना मेरा वो ,मुझको 
जैसे बुलाता है कोई छिप कर मुझको 
दबे पाँव चल कर रुकना अचानक 
करता है हैरान  मेरा तस्सुवर 
अजब शय है यह मेरा भी  साया 
वक्त के दरिया ने खूब बहाया 
जीवन की पुस्तक के पन्ने खुले जो 
हर हाशिये पे इबारत सा पाया   

गुरुवार, 8 मार्च 2012

असमंजस

असमंजस

पेशानी पर थी जो परेशानी
वो कह डाली तुमने जुबानी
तड़प उठता था सुन कर दिल
सहला दे दुःख यह फिर ठानी
बढ़ते हाथ यह रूक रूक जाते
बडबोले शब्द यूं बुद बुद करते
स्पर्श मात्र की चाह जगा कर
मुखर मौन अवलोकन करते
किन जजबो में जकड़ा है  मन
किन रीतों में उलझा है  मन
पीड़ित होता तेरे हर दर्द से
नावाकिफ सा ढोंग करे मन
हैरान शब्द  और मुक्तक हतप्रभ
बेबस मौन है असमंजस में
रफ्ता रफ्ता व्यथा बढ़ी है
सीमा चरम है असमंजस में
असमंजस में असमंजस है
चयन करू मैं  बोलो किसका
तोड़ गिराऊँ  सारी रस्मे
यां तोड़ निभाऊं  सारी रस्मे


बुधवार, 7 मार्च 2012

बंधन यह मेरा और तुम्हारा

बंधन यह मेरा और तुम्हारा

बंधन यह मेरा और तुम्हारा
जैसे क्षितिज का एक किनारा
दूर रहते है तो हर क्षण मिलते
पास आते ही  पग ठिठकते
कुछ झिझकते , कुछ तडपते
खामोशी जब छा जाती है तो
मन ही मन में बाते करते
बंधन यह दिल का कुछ ऐसा
नयनो में बसते आंसू जैसा
रहे बहता हर हर पल जब यह
आहें नम ही करता है
 गर सूख जाए यह जब भी
दिल अन्दर से   रोता है
बंधन यह मेरा और तुम्हारा
आसावरी की  सरगम सा प्यारा
बजता बस यह रात अँधेरे
छुप जाता  यह अरुण  स्वरे
बंधन  यह मेरा और तुम्हारा '
 मुस्काता   मधुबन यह सारा
स्नेहसिक्त कुसुमो से सज्जित
सुरभित आशा ने संचारा
बंधन यह मेरा और तुम्हारा
 

रविवार, 4 मार्च 2012

बस एक

बस एक

विशाल काये हुआ है पर्वत  .लेकिन उसका शिखर एक
विस्तृत दरिया बहता जाए  लेकिन उसका उद्गम एक
फूलों से भरा है उपवन ,लेकिन उसका माली एक
रत्नों से भर रहे भंडारे ,लेकिन लाल चमकता एक
सौरमंडल में कितने तारे लेकिन जीवन दाता एक
जंगल में है कितने प्राणी लेकिन सिंह दहाड़े एक
उन्नत पथ पर कदम बढे तो क्यों मन दुविधायों में डूबे
दुविधाओं के पंकिल सर में ,मुस्काता बस नीरज एक

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

क्रांति

क्रांति

थक कर बैठ गयी हर आहट
हुई आहत जब मन की बैन
अविरल अश्रु धार बहे और
 व्यथित हुया इस मन का चैन

सूरज उदित हुया था कल भी
और किया था उषा पान
बिन आहट फीका अब सूरज
नही रूचे  अब खग वृंद गान

रहने दो अब मत सहलाओ
मत इसको आवाज़ लगाओ
राख हुई अब जो चिंगारी
मत उसमे शोला भड़कायो

होगी हरियाली जब  आहट
उठेंगे धीर हो कर अधीर
नस नस में भरेगा उत्साह
जन जन होगा क्रांतिवीर

व्योम दीप की शिखा जला लूँ
छाया घोर कुहास मिटा लूँ
आहत आहट का रीता पन
क्रांति युग का उदय गान है

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

आक्रोश

आक्रोश

 इक आक्रोश भरी आवाज़
यूँ ही दब कर रह गयी
भीड़ के गूंजते सन्नाटो में
और
आक्रोशित ,मुखर आवाज़
बड़ी बेबसी से देखती र्है
अपना
गूंजते सन्नाटो में गौण होना

लौट आती है पुन: 
टकरा कर कही पाहनो से
थकित रूदन कर सिसकती
सहती है कभी यूँ मौन होना

गुरुवार, 9 फ़रवरी 2012

सूनेपन के वेदना

सूनेपन के वेदना

नयन बिछाऊ राह  निहारूं
मंज़िल मंज़िल तुझे पूकारूँ
थकित हुया यू विचर अकेला
उत्साहित था कभी अलबेला
मन ना क्षीण,ना क्षीण है काया
दुविधायों ने मॅन भरमाया
असमंजस से हुया अकेला
उत्साहित था कभी अलबेला
अब लौट भी आओ मन के मीत
हुया अधीर अब तेरा धीर
सूनेपन की कठिन वेदना
झेल ना पाएगा यह वीर

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

प्रदूषण

प्रदूषण
देवो की बांकी धरती पर
नरक का कोलाहल है छाया
धरणी के सुंदर आँचल पर
प्रदूषण ने वज्र गिराया
धूसरिस अमवा की डाली
पिक़ का पंचम है बौर्राया
सहमे सहमे किरीट पतंगे
खिलता मधुबन है कुह्म्लाया
घोर कुहास प्रदूषण का यह
छाया इस धरती पर जब जब
विचलित साँसे विचलित जीवन
विचलित मंडल विचलित जन जन
धरती की आँखो के आँसू
मोती बन जब झर झर झरते
तरु पल्लव हर डाली डाली
पीड़ा की ज्वाला में जलते
शिशिर बसंत सर्दी गर्मी सब
इसमे होम हुए जाते हैं
प्रकृति के कोमल हाथो में
मृत्यु दान दिए जाते हैं
मुझे बचा लो ! मुझे बचा लो!
सत्वर धरती करे पुकार
ओ इस जॅग के निर्माताओ
अब तो करो मेरा उद्धार

पगला मन

पगला मन

पा कर कभी जो तन्हा मुझ को
यादे संग मेरे   हँसती है
तब जाने यह मन क्यों  रोता है ?

सुरभित मधुर समीर कभी जब
बन वसंत छा जाती है
तब जाने यह मान क्यों रोता है

सघन रात में विकल दामिनी
जब आँचल छू जाती है
तब जाने यह मन क्यों रोता है

चैत मास की रजत चाँदनी
जब आँगन में बिछ जाती है
तब जाने यह मन क्यो रोता है

मन की बात छुपी जोमन  में
तड़प तड़प जब खुल जाती है
तब जाने   यह मन क्यो रोता है

बिरहन पा प्रीतम की पाँति
जब बोल बिरह के गाती है
तब जाने यह मन क्यो रोता है

पल का मिलना : बेअंत बिछड़ना
जब सांसो में घिर आता है
तब यह पगला मन रोता है

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

भ्रम मन का

भ्रम मन का

वक्त की दीवारों से
अब भी कभी कभी
अवसाद रिस्ता है
जो गीला कर देता है
आशा की चुनरी को
वक्त के आँगन से
अब भी कभी कभी
अवसाद बिखरता है
जो चुभ जाता है
आस के पैरो को
वक्त की देहरी पर
अब भी कभी कभी
साकल लगाता है
जो रोक देता है
आस की मुस्कान को
उषा की बेला में
जब  निहारती हूँ
वक्त के क्षिटीज़ को
अवसाद का काला रंग
मिल जाता है नभ में
और बना देता है
इक इंद्र धनुष
सतरंगी इंद्रधनुष
जो कर देता है
चटकीला अवसाद की
स्याही को !!!!!!

शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

ठोकर जीवन की


ठोकर जीवन की

कदम अगर कही रूक जाते?
थोड़ी देर और सुस्ताते !!!!!!
चल देते कुछ देर ठहर यूं 
फिर उठ कर मंजिल को धाते.
ठोकर खा कर जो गिर जाता 
उसके तुम गिरना मत बोलो 
उठ कर फिर तब जो चल देता 
साहस के  तुम उसके तोलो 
ठोकर मन में हिम्मत भरती 
न सपनो से समझौता  करती 
दुखों का हर इक सुख में भी 
नाप तौल कर भाव है करती 

मूक तपस्वी

मूक तपस्वी

मुहं पर मौन 
मन में त्रिकोण 
सिर झुकाए 
बैठा है आज 
तीसरे कोने पर 
अपलक निहारता 
दोनों कोने 
जिस पर 
बैठे है हम -आप 
और सरकार 
उफ़! दोनों कोने 
कितने कमज़ोर 
बना ना पाए 
ताल मेल 
फ़ैल रहा 
शंका का जाल 
और मूक तपस्वी 
झूल रहा उस त्रिकोण 
के तीजे कोने पर 
दृद संकल्प ले 
कुछ करने को 
मर मिटने को 
ओ जनता अब 
जागो जागो 
अपने फ़र्ज़ -और 
हक़  को पहचानो 
इस मौन को 
आवाज़ बनाओ 
जाह्नवी का 
क़र्ज़ चुकाओ 

महज़ ख्याल



महज़ ख्याल 
मान लिया जिसे दिल ने अपना  तड़प कर 
वह सताता  भी रहे  चाहे बन कर सितमगर 
पा तन्हा, ख्यालो में  बन जाता हकीकत 
वे तस्सुवर में रहे या फिर  कही बुत बन कर 
ख्यालों में उठा  करते है चुपचाप समुन्दर 
ख्यालों में बना करते है माटी के कुछ घर 
ख्यालों को समझ आती है ख्याल की भाषा 
ख्यालों से ही जुड़ जाती है इक टूटी से आशा 
ख्याल का ख्याल ही दिल को बनाता है 
ख्याल का ख्याल  ही जज्बात जगाता है 
ख्याल महज़ ख्याल ही ना रह जाए 'नीरज '
ख्याल का ख्याल यह एहसास दिलाता है .
अमराई भी हँसे तो बस अपने ख्यालो की 
पुरवाई भी बहे तो बस  अपने ख्यालो की 
चलो ओढ़ ले चादर बस अपने ख्यालों की
जी लें यह बस  जिंदगी अपने ख्यालो की 

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

एक़ ख्याल

एक़ ख्याल
साए की तरह दिन रात
चलता है मेरे साथ साथ
जागता है तब भी जब
मेरा शयन भी हो जाए
मुस्कुराता है तब भी जब
नयन आँसू कुछ गिरातें
रोता है मेरे साथ जब
लब कभी यूं मुस्कुरातें 
बरबस अपनी पीड़ा छुपातें
कर देता है सारा विश्व छोटा
कुंठा कभी जब मेरा कद घटाती
भर देता है फूल राहों में
असफलता जब काँटे बिछाती
वह इक तरुन्नम सा भर देता
सूने दिल में झंकार
वह इक इबादत सा सुन लेता
दूर से मेरी पुकार
आस  को प्रज्ज्वलित करता
श्वास को व्यवस्थित करता
रास्तों को नापता चल रहा
वो साथ मेरे
एक ख्याल

बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

अवसाद



अवसाद

हुया द्रवित दुखित मन
पीड़ा की ज्वाला से
हुए होम सब प्रयत्न
क्षोभ के निवाला से
भीग गया अंतस सागर
फूट पडे अश्रु गागर
बिखर गये शब्द सब
वक़्त की गुबार संग
मौन हुई कविताएँ
मौन अभिव्यंजना
मौन अभिव्यक्तियाँ
मौन आत्म उक्तिया
अवसादों के काले बादल
उमड़ घूमड़ जब आते हैं
उत्साह हीन कर जाते जन को
इक चुप्पी दे जाते हैं
जब चेतन बन कर आता प्राण
मन में देता इक नयी जान
तब मौन का होता भसमसात
उच्चारित हो जाता पुन: राग

शब्द कण



शब्द कण

रजत नभ
निशि मन
नि:स्तब्ध
शब्द कण
सन सनन
पुर्वाई बंद
बुझतादिया
ज्योत मंद  
हर कतरा
झरे शब
बूँद बूँद
रिसे लब
प्राण गान
हुया रुदन
स्वर सुधा
आँसू मगन
नव चेतना
उठो उठो
नव रश्मियाँ
झोली भरो
निशा नभ
 रजत मन
 मुखरित हो
शब्द कण

मंगलवार, 31 जनवरी 2012

एक हक़ीकत

पा लिया सब कुछ हमने फिर भी लगता है कुछ कम है
मिली खुशियाँ जमाने भर की फिर भीलगता है कुछ गम है
तलाशते रहे हर लम्हा हर पल हर सू में भटकते रहे
भीड़ है जमाने की  फिर भी लगता है तन्हा कुछ हम हैं

शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

फैंसला



फैंसला

फांसलो के बीच छिप कर
बैठा था इक फैंसला
दूरियाँ दिल की बढ़ाता
फ़र्क रिश्तों में वह लाता
मंज़िलो को रास्तों में
तब्दील करता फैंसला
फांसलो के बीच छिप कर
बैठा था इक फैंसला
मुस्कुराहट वक्त की
ढलती रही आंसूओं में
चाँदनी चैत की
ग़लती रही गेसुओं में
हादसों में विश्राम लाता
क्षीणता रह रह कर बुलाता
भावना की चौखत्टओं पर
सांकल लगाता फैंसला
फांसलो के बीच छिप कर
बैठा था इक फैंसला

बदलाव

बदलाव
तड़प उठा था दिल अचानक
भीगी भीगी रातों में
रोया था कितना चुपके चुपके
भटक कर बीती बातों में
आँख से बहता हर आँसू
बिखर रहा था मोटी बन कर
पिघले नयनो से जब दीपक
चमक उठे ज्योति बन कर
बन नील कंठ पिया मन का विष
ग्रस लिया जीवन का राग दंश
चल पड़ा पिलाने प्रेम पीयूष
दीवानो का कर वृहत वंश
इक सबल सुदृड शिष्टाचारी
था घूम रहा  दुष्ककरों में
उन्मुक्त व्योम में फैल गया
बच कर भाग्य के वक्रो से

रविवार, 22 जनवरी 2012

विनती

विनती
गिर ही जाते यूं कट के धरा पर हम
तेरी जो शाखों का सहारा न होता 
भटकते  ही रहते  यूं व्योम में फिर हम 
हो मेहरबान  तुमने जो पुकारा न होता 
जीस्त के राहों में चमकती थी कड़ी धूप
शबनम को तरसती थी तलाशे कोई  रूप 
मिट ही जाते लिए प्यास इन ओंठो पर 
अंजुल में जो तेरे नाम का प्याला न होता  
किस वेश में मिल जाते हो कुछ नहीं मालूम 
किस तेज़ में चमक जाते हो ,कुछ नहीं मालूम 
रहते हो बस साथ मेरे हर दम इक साए से 
बसते हो मेरी साँसों में हर गंध में समाये से
रूक जाती यह साँसे ,जैसे रूकती सी धारा
मिट जाता तब्बसुम ,हर लब का यूं सारा 
ना आते अगर तुम तब बन के सवाली 
मिट जाती थी दुनिया ,दोनों हाथ थे खाली 
हो मेरे दिगंबर ,हो ठाकुर तुम मेरे 
सुमरिन हो तेरा नाम हर पल हर डेरे 
करू कोटि नमन तुमको शत शत प्रणाम 
करो विनती स्वीकार ,बनो मेरा आधार


 

एक अनुभव

एक अनुभव
एक सफ़र था जिंदगी का ...गाडी स्टेशन पर जैसे सिर्फ मेरा इंतज़ार कर रही थी ......बहुत देर तक स्टेशन पर रुकी .. वह मुझे देखती रही और मैं उसे  ...चलने से पहले उसने मुझे फिर आवाज़ दी ...लकिन मैंने अनदेखा किया .....जब बिलकुल चलने को तैयार हुयी तो मुझे भी यकायक ख्याल आया कि क्यों न इसके साथ चल दूं .....तेज़ कदमो से उसकी रफ़्तार से रफ़्तार मिलाने की कोशिश नाकामयाब रही और सहसा कदम लडखडाए और प्लेटफ़ॉर्म पर ही मुझे जमीन की धूल चाटने के लिए छोड़ कर आगे बढ़ गयी ...........कदम ठिठक गये और फिर कुछ हिसाब   करने लगा कि क्या खोया और क्या पाया .......सच है कितना कठिन है आत्म सात कर पाना कुछ पाने ,   कुछ  खोने  का एहसास ....
 

 
 



गुरुवार, 5 जनवरी 2012

तुम क्या जानो

तुम क्या जानो

तुम क्या जानो क्या राज़ छुपा है मेरी इस तन्हाई में
दिल के सारे राज  खुलेंगे आखिर   इस तन्हाई में
तुम क्या जानो क्यों मचले है दिल बहती इस पुरवाई में
गंध तुम्हारी जब छू जाती बदन मेरा पुरवाई में
दिल में तेरा अक्स दिखेगा जब जब बिजली नभ पर चमके
नम होगा यह शोख बदन जब जब बादल से बूंदे बरसें
तुम क्या जानो क्या राज़ छुपा है पूरब  से झरते सोने  में
तुम क्या जानो क्या कौन छुपा है अंतर्मन के कोने में
प्रेम शिखा बन तरपू जब  निशा उतर आँगन में आये
कोंपल बन कर फूट पडूं जब बगिया मैं मधुकर आये
तुम क्या जानो क्या राज छुपा है तुम को रोज़ बुलाने में
तुम क्या जानो क्या राज छुपा है राज को राज बनाने में

मंगलवार, 3 जनवरी 2012

मुक्ति

मुक्ति
घोर निराशा महा काल है
संस्कृति भी कुछ सहमी सहमी
गुज़र रहा संकट में मानव
दिन में फैला निशा काल है
धूमिल होते शिष्टाचार  अब
तम के गर्भ में सुप्त पड़े हैं
अनाचार के सर्प भयंकर
डसने को तैयार खड़े हैं
प्यार वफा कसमे वादे
छिप गये  मन के तालो में
उलझ रहा है जीवन आँचल
वैमनस्य के पलते जालो में
राग द्वेष की  चादर काली
पहन के बैठा तन कर मानव
विस्मृत देव तुल्य सब गुण
बन बैठा अब भयानक दानव
दुखिया सब संसार हुआ है
टेर रहा माधव को फिर से
धर कर मोहिनी रूप जो अब फिर
मुक्त करे इस भस्मासुर से

दर्शन ..ठाकुर का

दर्शन ..ठाकुर का
जल तरंग से उठते गीतों ने
तुम को आज पुकारा फिर है
आँखों के चमकीले दर्पण में
तुम को आज निहारा फिर है
सोचा थोडा रूक जायूं
वक़्त से पहले थम जाऊं
मदमाती इस मस्त हवा में
थोडा और मैं रम जाऊं
कमल नयन सांवल छवि तेरी
भर लूं आँचल में  अपने मैं
जी उठी  अभिलाषा  जीने की
जी लूं थोडा जी  भर कर मैं
रूकने को तो मैं रूक जाता
थोडा चैन कहीं तो पाता
वक्त के दामन में जो जकड़ा
पर क्या ऐसा  कर पाता मैं ?
किंकिन सुंदर नुपुर धवनि सुन
पावों में  थिरकन जागी थी
चिर कालो से विक्षिप्त तंत्रा
साथ छोड़ पल में भागी थी
वक़्त बुरा था याँ था अच्छा
जैसा भी था तुझे समर्पित
अर्चन कर जोड़े फिर करता
सर्वस्व मेरा हो तुम को अर्पित

रविवार, 1 जनवरी 2012

अंतर्मन !


अंतर्मन !
कहते है मन का बौना पन 
करता संकुचित इस जग को 
जो खुद पंगु हो बैठा है 
करता है कंटक मय पग को 
बिखरे राहों में  मोती हैं 
चलूँ उनको झोली में भर लूं 
कल कल कर बहता समय का नद  
चल कर अन्जुल में भर लूं 
यह क्षितिज सजा है मेरे लिए 
सजे वंदन वार हैं मेरे लिए 
इस धरनी का कोना कोना 
करता गुंजन बस  मेरे लिए
अब स्वछंद हवायों में जी लूं 
उन्मुक्त गगन को तो छू लूं
यह जग तो सारा विषमय है 
उन्माद का अमृत ही पी  लूं