रविवार, 1 जनवरी 2012

अंतर्मन !


अंतर्मन !
कहते है मन का बौना पन 
करता संकुचित इस जग को 
जो खुद पंगु हो बैठा है 
करता है कंटक मय पग को 
बिखरे राहों में  मोती हैं 
चलूँ उनको झोली में भर लूं 
कल कल कर बहता समय का नद  
चल कर अन्जुल में भर लूं 
यह क्षितिज सजा है मेरे लिए 
सजे वंदन वार हैं मेरे लिए 
इस धरनी का कोना कोना 
करता गुंजन बस  मेरे लिए
अब स्वछंद हवायों में जी लूं 
उन्मुक्त गगन को तो छू लूं
यह जग तो सारा विषमय है 
उन्माद का अमृत ही पी  लूं