विनती
गिर ही जाते यूं कट के धरा पर हम
तेरी जो शाखों का सहारा न होता
भटकते ही रहते यूं व्योम में फिर हम
हो मेहरबान तुमने जो पुकारा न होता
जीस्त के राहों में चमकती थी कड़ी धूप
शबनम को तरसती थी तलाशे कोई रूप
मिट ही जाते लिए प्यास इन ओंठो पर
अंजुल में जो तेरे नाम का प्याला न होता
किस वेश में मिल जाते हो कुछ नहीं मालूम
किस तेज़ में चमक जाते हो ,कुछ नहीं मालूम
रहते हो बस साथ मेरे हर दम इक साए से
बसते हो मेरी साँसों में हर गंध में समाये से
रूक जाती यह साँसे ,जैसे रूकती सी धारा
मिट जाता तब्बसुम ,हर लब का यूं सारा
ना आते अगर तुम तब बन के सवाली
मिट जाती थी दुनिया ,दोनों हाथ थे खाली
हो मेरे दिगंबर ,हो ठाकुर तुम मेरे
सुमरिन हो तेरा नाम हर पल हर डेरे
करू कोटि नमन तुमको शत शत प्रणाम
करो विनती स्वीकार ,बनो मेरा आधार