मंगलवार, 3 जनवरी 2012

मुक्ति

मुक्ति
घोर निराशा महा काल है
संस्कृति भी कुछ सहमी सहमी
गुज़र रहा संकट में मानव
दिन में फैला निशा काल है
धूमिल होते शिष्टाचार  अब
तम के गर्भ में सुप्त पड़े हैं
अनाचार के सर्प भयंकर
डसने को तैयार खड़े हैं
प्यार वफा कसमे वादे
छिप गये  मन के तालो में
उलझ रहा है जीवन आँचल
वैमनस्य के पलते जालो में
राग द्वेष की  चादर काली
पहन के बैठा तन कर मानव
विस्मृत देव तुल्य सब गुण
बन बैठा अब भयानक दानव
दुखिया सब संसार हुआ है
टेर रहा माधव को फिर से
धर कर मोहिनी रूप जो अब फिर
मुक्त करे इस भस्मासुर से