रविवार, 31 अक्तूबर 2010

ek deep mera jalne do

एक दीप मेरा जलने दो

शैशव की भोली रातों में
जाने कितने ख्वाब बुने थे
इन ख़्वाबों को अब सजने दो
एक दीप मेरा जलने दो
हुआ भ्रमित यूं पथ से भटका
श्वास श्वास में अंकुश  अटका
मंजिल पर अब पग धरने दो
एक दीप मेरा जलने दो
हूँ साथ-साथ पर साथ की चाहत
युग-युग के इस एकाकी पन को
चाहत का स्पर्श मात्र करने दो
एक दीप मेरा जलने दो

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

fainsla

फैंसला
फैंसला जब से किया तुमको भूल जाने का
और भी ज्यादा हमे तुम याद आने लगे
सोच  जब हम ने लिया तुम से दूर जाने का
और भी ज्यादा तुम नजदीक तर आने लगे
हम तो ख्वाब में भी ना ख्वाब यह देखा किये
और तुम तस्वीर - ऐ -हकीकत बन सामने आने लगे
पलट कर जब देखते है तो हैरान होते हैं बहुत
किस तरह तुम चार सु हरदम नज़र आने लगे

Aasavari

आसावरी
गुनगुनाओ राग अब आसावरी
प्रात बेला में न लसत बिहाग री
मूँद कर निज नयन तारे सो गए
ख़तम है अब गहन तिमिर विभावरी
त्रिविद मंद समीर पूरब से बहे
उदित प्राची से कनक रस गागरी
चहचहाते कीर कोकिल मोर पिक
चढ़ अटरिया बोलते खग कागरी
तरनी तालों में कमल दल खिल उठे
कह रहे कली से भ्रमर दल जाग री
भाल बिंदिया नयन में कजरा रचाओ
लाल सिंदूर से सजाओ मांग री
पेट पर रख पैर सोये ना कोई
युग युगों के बाद जागे भाग री
प्यार की सरिता बही उर शैल से
बुझा रही है विषमता की आग री

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

Shiv - Ganga

शिव-गंगा

अखबार में छपी खबर
हरिद्वार में गंगा  बीच धार
खड़ी थी जो शिव की मूर्ति विशाल
वह ना झेल पायी गंगा का बहाव
और बह गयी कोटि मील पार
सत्य है कलियुग में -
गंगा का आवेग
शिव भी रोक नहीं पाते हैं
जाह्नवी को बांधने में
स्वयं को असमर्थ पातें है

शिव एक शक्ति है
ध्योतक है सत्य का
और सुन्दरता की आसक्ति है
जब सत्यम, शिवम् सुंदरम का
ना हो अनुपातित मिश्रण
तब शिव स्वरुप परिकल्पना का
हो जाता स्वत हनन
और दूसरी ओर यूं कहें-
गंगा परिचायक है
शक्ति स्वरुप का
करती संरचनाएं
कोटि जन मानस का
उच्च्श्रीन्ख्लता धारा की जब
सीमा लांघ जाती है
कोई भी मर्यादा उसे
बाँध नहीं पाती है

शिव और शक्ति ही
इस जग के हैं पराभास
संचालित समस्त , सौर- मंडल
कराये जीवन का एहसास

lahren

लहरें
उध्वेलित हो कर उठती लहरें
तट से टकरा जाती हर बार
तुम साथ चलो करती अनुरोध
पर तट का करते देख विरोध
सोच रहीं विषय एक बार
क्यों आती हैं हम इस तट के पास
रोक ना पाया कभी यह  हम को
ना कभी यह चला हमारे साथ

ek kathin pareeksha aur sahi

एक कठिन परीक्षा और सही

गम की काली रात भयावनी
क्रंदन करती पूर्णकाल
अश्रुपूरित नयनावलियों के
अंजन धोती बारम्बार
तेवर बदले जगवालों ने
किन्तु ना बदली मस्तक धार
जब तुम ने ही लिख डाला मस्तक
अपने स्वर्णिम  हाथों  से
श्रम कुठार ले कर चल दूंगा
ना लूँगा  दीक्षा और कहीं
एक कठिन परीक्षा और सही

है मुझे भरोसा निज स्वेद का
व्यर्थ ना यूं गिरने दूंगा
हर  एक बूँद पर स्वर्ण उगेगा
सत्य  भागीरथ व्रत लूँगा
तुम जो कर सकते हो वह कर लो
है मुझ को स्वीकार चुनौती
अपने अस्त्र ,शस्त्र और बल की
तुम करो समीक्षा और सही
एक कठिन परीक्षा और सही

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

Kahin to koyee taakat hai

कहीं तो कोई ताकत है
जो हमसे काम करवाती है
मुस्कुराते हुए विषमता में जीना सिखलाती है
तेज़ हवाओं के थपेड़ों को सह कर भी
एक नन्हे से दिए की तरह टिमटिमाती है
करती है सामना एक शक्तिशाली तूफ़ान का
होंसले की बुलन्दियो को छू कर आती है
थकती है रूकती है लेकिन दूर देख मंजिल
फिर रुके कदम उठा कर आगे बढती है
आखिर कही तो कोई ताकत है................

kahaan ho tum

कहाँ हो तुम

जहां कहीं भी नज़र दौड़ाओगे
हँसता खिलखिलाता मुझे  पायोगे
इन हवाओं में शोख फिजाओं में
अम्बर के सितारों में
धरती के  नजारों में
दरिया की रवानी में
बादल की कहानी में
तुमने मुझे कभी बुलाया ही नहीं
अपना कभी बनाया ही नहीं
क्या कहते हो "मैं कहाँ हूँ"?
जहां कोई ना पहुँच पाया
मैं तो हमेशा वहां हूँ

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

sahna padta hai dard yahaan sab ko apne hisse ka

सहना पड़ता है दर्द यहाँ सब को अपने हिस्से का

डूबा करता हूँ जब भी पीड़ा के बहते दरिया में
बह जाती है सारी आशा विकल वेदना के प्रांगन में
उच्चरित होती है सदा सर्वदा अपनी पीड़ा की कोरी कथा
कोस कोस नियति को मानव शांत करता है अपनी व्यथा
जीवन है सुख  दुःख का संगम ऐसा सब ने बतलाया था
फिर भी ना जाने क्यों इस तथ्य को आत्म-साध ना कर पाया था
क्यों बेचैन हुआ फिरता है प्राणी जीवन में झरते दुखों से
सहना पड़ता है दर्द यहाँ सबको अपने अपने हिस्से का

सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

Maut aur jeevan

मौत और जीवन

भर लेती मौत मुझे  आज अपने अंक में
याँ यूं कहो कि, बस छू कर मुझे चली गई
 सोचूँ ,पथ से भटक गई थी  क्या ?
याँ फिर अपनी मंजिल से बिछड़ गई
जितना आसान लगता है उन्हें मरना यहाँ
शायद उससे भी मुश्किल है यूं मौत के साए  से गुजरना
भयावह चीखों और चीत्कारों के समक्ष
संघर्ष जीवन का लगा बड़ा  ही सहज , सुहावना
संघर्षों में छुपा हुआ है जीवन का संविधान
अमृत समझ कर करता हूँ मैं इस विष का पान
मन्त्र मौत का तज दो इस में ही है तेरी शान
संघर्ष थमा तो होगा मृत जीते  हुए  भी यह इंसान

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

kavita

कविता
खट्टे मीठे अनुभव ख्यालों में संजोती हूँ
मोती ख्यालो के शब्दों में  पिरोती हूँ
कविता की माला स्वतः बन जाती है
गले में पहन लो तो हृदय छू जाती है
रस-छंद ज्ञान से बिलकुल अनभिग्य हूँ
फिर भी शब्दों की तान सुनाती सर्वग्य हूँ
हर पल हर क्षण जो हो जाए रूहानी है
बस इतनी सी कविता कहने की कहानी है

pathhar

पत्थर
मैं एक पत्थर जो था हिस्सा किसी ऊँचे पर्वत का
सिर उठाये खड़ा था सब से ऊपर शान से
वक्त की आंधी से गिरा जो जमीन पर
अस्तित्व के लिए ढूँढता हूँ धरातल अभी
घमंड कहो या कहो स्वाभिमान
ख़ाक होने के बाद भी जिन्दा हूँ अभी

Tum se acchi tumhaari yaad

तुम से अच्छी तुम्हारी  याद

जब भी आती याद तुम्हारी
गहरा जाती अधरों पर मुस्कान
शीतल करती मनस तपन को
मिट जाती सारी थकान
शाम ढले सूरज की लाली
लगती उषा की अरुणिम भोर
रजनी के तम की चादर काली
याद की टिम-टिम में ढूंढे छोर
तुमसे अच्छी याद तुम्हारी
ना लड़े ना रूठे ना बिगड़े कभी
तेज हवा में खुशबू जैसी
हर लम्हे को जिन्दा रखती  रही

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

basti ke log

बस्ती के लोग

क्या जाने बस्ती के लोग
कैसे शमा जली रात भर
दर्द बहे जैसे पिघले मोम
पिघल पिघल कर जली वर्तिका
जखम  सरीखा जम गया मोम
रिसता रहा ज़ख्म रात भर
कैसे सहे दर्द-ए- वियोग
क्या जाने बस्ती के लोग

diwaanaa kh kar

दीवाना कह कर यूं लोग

दीवाना कह कर मुझे यूं लोग बुलाने लगें  हैं.
नाम मेरा तेरे नाम के साथ सजाने लगें हैं
डूबा देख कर मुझे यूं उल्फत में ए दोस्त
अपने गीतों में मेरे अफ़साने सुनाने लगें हैं
भूल कर भी ना गुजरूँ तेरी गली से ए दोस्त
तेरी गली के हर मोड़ पर बाँध बनाने लगे हैं
लगता है वोह भी वाकिफ हैं मेरी ढिठाई से
इसलिए अब वह मुझ से कतराने लगें हैं

iltiza

इल्तिजा
ना देना फिर कभी यूं मेरे दरवाज़े पे तुम दस्तक
तड़प कर निकलेगी आह हम  से ना संभाली जायेगी
तन्हाईओं का  यह गश्त हम तो सह ही जायेंगे
तेरी रुस्वाईओ की पीड़ा ना हम  से झेली जायेगी
जुस्तजू की बहुत  हम ने तुम से मिलने की यूं  उम्र भर
आरज़ू तुमसे मिलने की अब हम को ता उम्र तडपाये गी

hasraten.

हसरतें

मर कर भी ना  ख़तम होगा यह इंतज़ार तेरा
हसरतें दिल की मेरे साथ दम तोड़ जायेंगी
ना खौफ है गम-ए-तन्हाई का ऐ मेरे दोस्त
 तेरी याद मेरे साथ दफ़न कर दी जाएगी
सजेंगें जब भी मेले मेरी कब्र पर यूं
दुआएं नाम की तेरे हर दम पुकारी जाएँ गी

tum choonki apne ho

तुम चूंकि अपने हो

तुम चूंकि अपने हो
भोर की झपकी के सुनहले से सपने हो
इसलिए कहते हैं
द्वार मन आँगन के
प्रेम की सांकल है
इसे तोड़  यूं गिराओ मत
रिश्ते यह अनजाने है
कोई नाम दे बुलाओ मत
बंधन कच्चे धागे के
इन्हें और यूं उलझाओ मत
जीवन के कोरे पन्नो पर
अंकित जो तेरे नाम हुए
 इन्हें इस तरह  मिटवायो मत

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

ek sansmaran

एक संस्मरण
उस दिन ऑफिस में छोटी दिवाली के दिन दिवाली पूजा का आयोजन किया जा रहा था. सारे कर्मियों का उत्साहह पूरे जोर पर था. हर कोई त्यौहार मनाने के मूड में था. काम करने में शायद ही किसी का मन लग रहा हो. वह भी त्यौहार मनाने के  शौक में डूबी हुई थी.तभी उसके के अधिकारी ने उसके काम में  कुछ भूल  सुधार करने के सलाह देते  हुए कुछ पेपर उसे वापिस कर दिए.लकिन अपने पेपर्स में कोई भी त्रुटि ना मिल पाने के कारण वह उस पेपर को लाकर पुनह अपने अधिकारी के पास गयी और बोला कि यह सब ठीक है. "सब ठीक  है जाओ जा कर सी ऍम डी से हस्ताक्षर  करवा लायो " ऐसा अधिकारी ने कहा!
अधिकारी से ऐसे सुनते ही उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया. सिनिअर से गुस्सा करना व्यर्थ होता है. बेबस सी हो कर अधिकारी के कक्ष से बाहर आ गयी और वे पेपर्स सी ऍम डी के सक्रेट्री को देदिए . बड़ी छोटी सी बात थी. लकिन उसके का लिए बड़ी ही असहज और असहनीय थी. अपने आप को सयंत नहीं कर पाई. दिल का गुबार आँखों से बह कर निकल जाना चाहता था लेकिन आंसू आँखों के कोरों पर आ कर थम जाते थे . दिल के भाव कोई जान ना पाए इस लिए ओंठो पर एक मुस्कान की लकीर खींचने की बराबर कोशिश हो रही थी.
इतने में दफ्तर के सब लोग पूजा के लिए नीचे प्रांगन में एकत्रित होने लगे और दिवाली पूजा आरम्भ हो गयी. अपनी भावनायों के उद्द्वेग को शांत करने की नाकाम कोशिश उसे पूजा में शामिल होने से रोकती रही. हर कोई उसे नीचे  पूजा में शामिल होने के लिए बुला रहा था .
किसी तरह अपने आप को सयंत करके कुछ समय के बाद वह वह अपने प्रतिबिम्ब को दर्पण में निहार कर आश्वस्त हो कर कि अब चेहरे से कोई भी भाव नहीं पढ़ पाए गा वह पूजा में शामिल हुई . आरती शुरू हो चुकी थी. लेकिन अब भी वह मानसिक रूप से वहां शामिल नहीं हुई थी. मन तो आंतरिक उद्द्वेग को रोकने क़ी कोशिश में लगा था.अचानक कोई उसके पास आकर खड़ा हो गया और धीरे से कान में कहा जाओ आरती लो और आरती की तरफ साथ साथ कदम बढाने लगा. जिस मानसिक उद्वेग को शांत करने के लिए वह पिछले एक घंटे से नाकामयाब कोशिश कर रही थी वह एक ही पल में शांत हो गया. यह वही अधिकारी था जिसके व्यवहार  ने उसे कुछ समय पहले व्यथित कर दिया था.मन उस अधिकारी के लिए श्रद्धा और प्यार से भर गया और सोचने लगी कि जब और कोई  उसके चेहरे को भी ना पढ़ पाया तो यह व्यक्ति उसके मन के भाव को कैसे पढ़ सका.
सच हम सब दोहरे माप-दंड में जीते  हैं . इंसान व्यक्तिगत रूप में बहुत अच्छा होता है लेकिन हम दफ्तर में कई बार अधिकारी के आवरण में लिपटे उस इंसान के करीब  नहीं पहुँच पाते और उसे नहीं पहचान पाते.आज  दफ्तर छोड़ने के बाद भी वह शख्स उसका एक बहुत प्यारा दोस्त और उसके जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन चुका है.

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

bachpan ki yaad

बचपन की याद
२५ साल बाद वह उस शहर में  किसी शादी के उत्सव में शामिल होने के लिए वापिस आई थी जहा उसके बचपन का कुछ हिस्सा बीता था .
शादी का उत्सव अपने पूरे जोर पर था. हर एक शख्स अपनी धुन में मस्त था . वह भी अपने परिवार के साथ उत्सव का आनंद उठा रही थी कि अचानक उसे महसूस हुआ कि कही दो आँखे उसे निरंतर देख रही है.
कुछ समय बीत जाने पर सहसा किसी ने उसके सिर पर जोर से हाथ लगाया और एक ही झटके से उसकी केश राशि को छिन्न-भिन्न कर दिया और बोला : "बड़ी देर  से मेरा तेरे  बालों को खराब करने का दिल कर रहा था " और इतना कह कर वह आगे बढ गया.  यह वह शख्स थे जो उसे बराबर देख रहा था . वह भी अचानक अपनी जगह से उठी और उसके पीछे दौड़ कर उसे कालर से पकड़ लिया और उसकी कमीज की जेब से पेन निकल कर बिलकुल सफेद कमीज़ पर जल्दी से आढ़ी तिरछी लकीरें खींच दी.यह सब इतना आनन्- फानन हुआ कि किसी को भी कुछ समझने का अवसर ही नहीं मिला कि यह क्या हुआ और क्यों हुआ
लकिन वह दोनों दुनिया से बेखबर एक दूसरे को देखते और मुस्कुराते रहे.सहसा आँखों से जल धारा बह निकली. वह दोनों बचपन के दोस्त थे और आज अचानक ३५ साल बाद मिले थे . बचपन की याद आज भी दोनों के जहन में इतनी जयादा अंकित थी कि दोनों उसे याद कर के आत्म विभोर हो रहे थे.
सच बचपन बड़ा ही सहज और सुंदर होता है.भोली यादे कभी कभी इतनी मानस पटल पर ऐसे अंकित हो जाती कि हम उसे हमेशा याद नहीं रखते लकिन जब भी वोह व्यक्ति सामने आ जाता है तो उससे जुडी सारी यादें  ज्वलंत हो जाती है.

Chhuan

छुअन

याद तुम्हारी छू जाती है
जब भी मेरा शोख बदन
थम जाती है लय श्वास की
रग-रग में दौड़े सिहरन
बन जातें कई इंद्र- धनुष
बिखरातें हैं रंग नवल
अनुपम रंगों से सज कर
महक उठते हैं पुष्प सजल
रौशन होते दीप हज़ारों
चकाचौंध होता त्रिभुवन
जाग्रत होती सुप्त चेतना
जब अनुभव होती तेरी छुअन

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

ek anubhav

एक अनुभव
"अरे बेटा ! आज सुबह ४ बजे मैं उठ कर चौके में नहीं जा सकी. इस लिए आज सुबह मैंने आप को दूध नहीं दिया".
माँ ने अपने तेज  चाकू की धार से कटे हुए हाथ को पकड़ कर दर्द से करहाते हुए बोला.
आठ साल के बेटे ने अपनी माँ का सर सहलाते हुए उत्तर दिया," कोई बात नहीं आज आप आराम करो. मुझे भूख नहीं लगी है"
माँ की आँखे भर आयी और सोचने लगी "कि कौन कहता है कि रिश्तों मैं गर्माहट नहीं है , भावना नहीं है?
अगर आज आठ साल का एक बच्चा  यह बात सोच सकता है तो यही बच्चा जब जवान हो कर बहुत जिमेवारिया अपने मज़बूत कन्धों  पर उठाये गा तो क्या बदल जायेगा? क्या इस कि सोच बदल जाएगी?
नहीं नहीं .....ऐसा सोच कर माँ कि रूह कांप जाती है और उस नन्हे बालक को कलेजे से लगा कर सोचने लगती है कि गलती कही हम से होती है उस नन्ही,  कच्ची सोच को मज़बूत रंग देने में.
बालक तो एक कच्ची मिटी की किसी रचना के सामान है जिसे तराशने में कहीं कोई चूक हम से ही हो जाती है जाने अनजाने में ,और वह रिश्तो कि मर्यादा और भावनाओं को बस एक ही तराजू पर तोलने लगता है .
बालक ने माँ को किसी गहरी सोच में डूबे देख कर बोला ," आप को मालूम है मैं आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाने वाला. दीदी को तो मालूम नहीं कि वह अपने हसबंड के साथ अपने घर चली जाएगी सिर्फ मैं आप के साथ रहने वाला हूँ . और मैं किसी दूसरे घर में नहीं जाने वाला . मैं इस घर को बेचूंगा भी नहीं .
अब माँ अवाक थी और सोच रही थी कि यह सब इस को किस ने सिखलाया. शायद यही संस्कार थे जो उस नन्हे बच्चे ने माँ के गर्भ से ही ग्रहण कर लिए थे .
सिर्फ संस्कार ही एक ऐसी संपत्ति है जो पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत में मिलती है और कुछ नहीं.

viraasat

विरासत
क्या दोगे बच्चों को  विरासत में
पूछा किसी ने एक दिन

गंभीर सोच में डूबा मन था
जीवन भर जो भाग दौड़ कर
संचित किया जो इतना धन
दे जाऊंगा इन बच्चों को
निश्चिन्त बनेगा इनका जीवन

संचित धन तो चल माया है
पीढ़ी-दर-पीढ़ी ना साथ चले
सु-संस्कारों की झोली भरो
जो जीवन भर तो साथ रहे

धन क्या खुशियाँ दे पायेगा
धन क्या भूख मिटा पायेगा
धन क्या समझेगा मानवता
धन क्या धर्म सिखा पायेगा

जो जीवन सभ्य सुसंस्कृत करदे
ऐसे भरदो तुम संस्कार
अमर रहेगा नाम तुम्हारा
मानवता पर  भी होगा उपकार

नन्ही बूंदे अच्छी बातों की
देते हैं जो जीवन पर्यंत
बन जाती है अथाह जल राशि
जिसका कभी ना होता  अंत

ekaaki

एकाकी
आज पुनह झंकृत हो बैठी
मेरे एकाकी मन की वीणा
ऐसे श्वास प्रकम्पित हो गए
जैसे तडपे जल बिन मीना

तडित दामिनी चमके अम्बर में
मैं उमड़ पड़ी बन दुःख की बदरी
नयनों से फूटें अश्रु के झरने
तालाब बने जल भर कर नद री

व्यर्थ लगे सान्त्वनाये सारी
चकनाचूर हुए  सपने
दर्द के इन उठते ज्वारो में
बेगाने  भी हुए अपने