रविवार, 3 अक्तूबर 2010

ekaaki

एकाकी
आज पुनह झंकृत हो बैठी
मेरे एकाकी मन की वीणा
ऐसे श्वास प्रकम्पित हो गए
जैसे तडपे जल बिन मीना

तडित दामिनी चमके अम्बर में
मैं उमड़ पड़ी बन दुःख की बदरी
नयनों से फूटें अश्रु के झरने
तालाब बने जल भर कर नद री

व्यर्थ लगे सान्त्वनाये सारी
चकनाचूर हुए  सपने
दर्द के इन उठते ज्वारो में
बेगाने  भी हुए अपने