एकाकी
आज पुनह झंकृत हो बैठी
मेरे एकाकी मन की वीणा
ऐसे श्वास प्रकम्पित हो गए
जैसे तडपे जल बिन मीना
तडित दामिनी चमके अम्बर में
मैं उमड़ पड़ी बन दुःख की बदरी
नयनों से फूटें अश्रु के झरने
तालाब बने जल भर कर नद री
व्यर्थ लगे सान्त्वनाये सारी
चकनाचूर हुए सपने
दर्द के इन उठते ज्वारो में
बेगाने भी हुए अपने