रविवार, 3 अक्तूबर 2010

ek anubhav

एक अनुभव
"अरे बेटा ! आज सुबह ४ बजे मैं उठ कर चौके में नहीं जा सकी. इस लिए आज सुबह मैंने आप को दूध नहीं दिया".
माँ ने अपने तेज  चाकू की धार से कटे हुए हाथ को पकड़ कर दर्द से करहाते हुए बोला.
आठ साल के बेटे ने अपनी माँ का सर सहलाते हुए उत्तर दिया," कोई बात नहीं आज आप आराम करो. मुझे भूख नहीं लगी है"
माँ की आँखे भर आयी और सोचने लगी "कि कौन कहता है कि रिश्तों मैं गर्माहट नहीं है , भावना नहीं है?
अगर आज आठ साल का एक बच्चा  यह बात सोच सकता है तो यही बच्चा जब जवान हो कर बहुत जिमेवारिया अपने मज़बूत कन्धों  पर उठाये गा तो क्या बदल जायेगा? क्या इस कि सोच बदल जाएगी?
नहीं नहीं .....ऐसा सोच कर माँ कि रूह कांप जाती है और उस नन्हे बालक को कलेजे से लगा कर सोचने लगती है कि गलती कही हम से होती है उस नन्ही,  कच्ची सोच को मज़बूत रंग देने में.
बालक तो एक कच्ची मिटी की किसी रचना के सामान है जिसे तराशने में कहीं कोई चूक हम से ही हो जाती है जाने अनजाने में ,और वह रिश्तो कि मर्यादा और भावनाओं को बस एक ही तराजू पर तोलने लगता है .
बालक ने माँ को किसी गहरी सोच में डूबे देख कर बोला ," आप को मालूम है मैं आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाने वाला. दीदी को तो मालूम नहीं कि वह अपने हसबंड के साथ अपने घर चली जाएगी सिर्फ मैं आप के साथ रहने वाला हूँ . और मैं किसी दूसरे घर में नहीं जाने वाला . मैं इस घर को बेचूंगा भी नहीं .
अब माँ अवाक थी और सोच रही थी कि यह सब इस को किस ने सिखलाया. शायद यही संस्कार थे जो उस नन्हे बच्चे ने माँ के गर्भ से ही ग्रहण कर लिए थे .
सिर्फ संस्कार ही एक ऐसी संपत्ति है जो पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत में मिलती है और कुछ नहीं.