शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

waqt ki mhtta

वक़्त की महत्ता 

वक़्त की फैली लम्बी चादर
कटती  है जब धीरे धीरे
रेशे जैसा हर एक पल
फटता है तब धीरे धीरे
ज्ञान नहीं होता  तब हम को
टूट रहे पल के रेशों का
बना देते सन्दर्भ  बिगड़ते
सिहं तुला कन्या मेषों का
पकड़ नहीं पाते हम तब
तार तार से वक़्त के धागे
पीछे रह जाते तब दौड़ में
चाहे कितना भी जोर से भागें
रह जाती जब चादर आधी
और ना तन ढकने को काफ़ी
होती है तब खींचा-तानी
ना तुमने कही ना मैंने मानी
चादर वक़्त की ना फटने पाए
पल के रेशे  ना टूटें जाए
आने वाले हर एक पल में
आओ यह संकल्प दोहरायें

गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

nav varsh mangalmay ho

नव वर्ष मंगल मय हो

हर सुबह आकर सरगम बनाये  नयी
मीठी तान गा कर रात सुलाए कोई
पूनम सा दिन हो महकती शाम हो
नियामतो की बख्शीश आठों याम हो
इरादे बुलंद हों   हौंसलें बुलंद हो  
साथ हो अपनों का  उड़ान स्वछंद हो
पंख अब फैलाओगे   , दूर उड़ जाओगे
क्षितिज की सीमा हो  आकाश अनंत हो  
सृजन हो नव  सपनों का आने वाले इस कल  में
सपने हो साकार सभी ,आने वाले हर पल में
नूतन आशा ,नूतन अभिलाषा और  बढे नव  हर्ष
नव रंग का मिश्रण हो  जीवन , मंगल मय हो नव वर्ष




do premi

दो प्रेमी

दोनों ही पागल प्रेमी थे
संग वक्त  गुजारा करते थे
जीवन के बदरंग पन्नो पर
रंग उतारा करते थे
संध्या की काली  घिरने से
उषा की लाली चढ़ने  तक
बिछी रेत की चादर पर
कुछ शब्द उभारा करते थे
सागर की बहती लहरों में
बनते -, मिटते थे रोज़ लेख
जीवन के बहते दरिया में
पर बदल ना पाए भाग्य रेख
दुनिया की बहती भाग-दौड़ में
साथ हमेशा से छूट गये
नाजुक मन से दोनों थे
दिल कांच की जैसे टूट गये

khwahish

ख्वाहिश

खतों -खितावत से ना मिटती है तेरे दीदार की ख्वाहिश
जी चाहता है कि अब तुझ को  आगोश में भर लें
और पी लें तेरी इन झुकी मस्त निगाहों के प्याले
बिन छुए मय को , खुद अपने को मदहोश कर लें
वादे पे तेरे हम सब्र किये जाते हैं ऐ साकी
डरते है कि कही तू वादा फरामोश ना कर ले
सजदे में झुका देंगे  सिर अपना तेरी मोहब्बत के आगे
याँ फिर वजूद  को हम अपने फ़रोश  ही कर लें

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

mohabbat

मोहब्बत

क्यों ना हो   गुमान यूं अपनी मोहब्बत का ऐ दोस्त
मोहब्बत करने वाले ही खाकसार हुआ करते है
यह हकीकत है कि  जिसने भी की अकीदत यहाँ
जमाने भर के पीकर  गम भी  आबाद हुआ करते हैं
कभी ख्वाब में भी ना गुज़रे पल एक भी जुदाई का
जुदा हो भी जाए तो भी मोहब्बत किया  करते हैं
मोहब्बत चीज़ क्या  है यह तुम  उनसे पूछो  ए दोस्त
जो दफ़न हो जाने के बाद भी मोहब्बत से जिया करते हैं

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

geet tumhare hain

गीत तुम्हारे है

कैसे कह दूं कि
मेरे गीतों में तुम ही बसे हो
कैसे कह दूं कि हर एक
हर्फ़ में अक्स है तेरा
कैसे कह दूं कि हर एक
 धुन में साज है तेरा
तुम से  ही तो गीत जवान हुए  है
गीत उसाँसे थे अब तक जो मैंने पाले
गीत प्यासे थे   अब तक जो  मैंने  रखे संभाले
हर गीत की चाहत में तुम चाहत बन कर आये
हर गीत की देहरी पर तुम आहट बन कर आये
यह गीत तुम्हारे है तुम से ही उपजे है
यह गीत वोह सारे हैं , करते तुम को सिजदे हैं

tum aaye to jeevan badla

तुम आए तो जीवन बदला

एक आग धधकती थी सीने में
ना शोला बनी , ना बुझी  कभी
एक चाह सी उठती थी मन में
ना दफ़न हुई,  ना दर्द बनी
एक नाम  उभरता था लब पर
जो सुना नहीं  , ना कहा कभी
अहसासों का दरिया चुप था 
अनुभव की लहर थी दबी दबी 
जी तो रहे थे ,पर जिन्दा कब थे 
साँसों की गति थी  थमी थमी
तुम आये तो जीवन बदला
पतझर थी, जो बहार बनी

yakeen

यकीन

कितना मिलते थे हम रोज़ ना जाने क्या हुआ
 बिछड़  गए अचानक  ,अक्सर सोचते है कि
नाम गर कभी आएगा  जुबान पर मेरा
तो क्या संभाल लोगे जिगर अपना?
रूबरू जब कभी होगा मेरा साया तुमसे
तो कर पायगे अलग वजूद अपना?
ना बदला होगा  तेरा वोह मुझ को दामन पकड़ कर बुलाना
ना बदला होगा मेरा वोह दामन झटक कर छुड़ाना
ना बदला होगा तेरा वोह नज़र से नज़र मिलाना
ना बदला होगा मेरा वोह तुम से नज़रे बचाना 
बात बात पर चहकना , इतराना, और रूठ जाना
ना बदला होगा तेरा वोह मुझ को यूं बुलाना
बिछड़ने के बाद भी है यह मुझ को यकीं
हम तुम कही दूर नहीं, बस आस-पास है  कहीं

रविवार, 26 दिसंबर 2010

kitaaben

किताबें

सब से अच्छा दोस्त है किताबें
न कुछ मांगती है
ना कुछ शिकायत करती हैं
अपने चाहने वालो को हमेशा देती है
मुंह फेर लो रूठती नहीं
पास चले जायो तो दुत्कारती नहीं
अज्ञानी का उपहास नहीं उड़ाती
बस हर दम अपने सब कुछ न्योछावर करने को उद्यत

शनिवार, 25 दिसंबर 2010

Aasha ka aagman

आशा का आगमन

आने वाली हर सुबह को सलाम
उठने वाली हर लहर को सलाम
बहती पवन के कण-कण को सलाम
धरा के चक्र को सलाम
आती ऋतुओं का स्वागत है
हर नई कोंपल का सत्कार
टिम टिम तारे का स्वागत है
दूज के चाँद का सत्कार
आशा की चादर को ओढ़े
हर एक पल को नमस्कार
जीवन को रौशन करने वाले
हर एक दीप का है सत्कार
गहन निराशा की खोह से
प्रस्स्फुटित हुई आशा की किरने
प्राची, जल,थल,नभ,पाताल के
जर्रे- जर्रे को सलाम

phool sa vyktitv

फूल सा व्यक्तित्व

फूल  सा व्यक्तित्व है उसका
करता है आकर्षित सबको
 एक शूल चुबता है तुमको
तो क्या खुशबू खो देगा  ?
फूल तो आखिर फूल रहे गा
शीश चढाओ या ठुकराओ
कोमलता में सर्वोपरि है
चाहे कितने भी शूल गिनाओ
तुम चाहे इनका करो ना सिंचन
यह तो महक फैलाएगा
कर लो कितना भी  जीवन मंथन
ऐसा सौरभ कही ना मिल पायेगा

jaane wala chala gya

जाने वाला चला गया

जाने वाला चला गया
हर पल को चुरा कर चला गया
यादो में गुज़रे अब हर पल
हर पल को रुला कर चला गया
 किया था उसको रुखसत मैंने
कुछ मन से कुछ बेमन से
 जाने कौन ,यहाँ क्या था उसका
सारे घर को लेकर चला गया
मिलेगा कभी कहीं किसी रोज़
पूछेंगे उससे किस्सा- ए- दिल
कैसे काटे है उसने भी दिन
दिल यहाँ छोड़ के चला गया

jaadaa

जाड़ा ( सर्दी का मौसम )

कितना अच्छा था वोह जाड़ा
धुंध और कोहरे से लिपटा
मद्धम हो सूरज भी सिमटा 
गर्माहट  हर पल तरसता 
दिन भर बर्फाना  ठिठुरता
रात को आग का देता भाड़ा
कितना अच्छा था वोह जाड़ा

कामकाज हो जाता सारा ठप्प
चाय के साथ बस होता गपशप
लम्बे कोट पहन सडको पर
हिम से खेले सब वृद्ध युवा जन
बड़े  उत्साह का एक  नगाड़ा
कितना अच्छा था वोह जाड़ा

हम भी तब थे छोटे छोटे
पहन गरम दस्ताने , मौजे
माँ की नज़र बचा कर के
चढ़ जाते घर के परकोटे
देवदार से लम्बे हो कर
छूते सूरज का चौबारा
कितना अच्छा था वोह जाड़ा

virh

विरह
 जब पूनम की ज्योति से धुल कर
रजनी आँचल फैलाती है
जब पवन सुरीली बाँसुरिया
तरु पल्लव से बजवाती है
 प्रीत पिया के स्निग्ध स्पर्श  की
चाहत को अकुलाती है
 विहरन वेन गीत मिलन के
रात रात भर गाती है
ऐसे में प्रेमी विलग  मन
दर्द बटोरा करते हैं
शबनम के नन्हे कतरों से   ,
 शोलों को ठंडा करतें हैं

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

vaade to toota karte hain

वादे तो टूटा करते हैं

वादों  की बात क्या करते हो
वादे  टूटा ही करते है
कच्चे सपनो के महलों जैसे
टूट के बिखरा करते हैं
बिखरी किरमिच को चुनते समय
जब कंकर चुभते हाथों में
तब दर्द उभरता सीने में
और अश्रु बहते आँखों से
स्वर पीड़ा के मुखरित होते
जब दर्द पिघलता अनायास
दिल तो मोम है पिघले गा ही
टीस उठते है तब  पाषण

बुधवार, 22 दिसंबर 2010

baat ki baat

बात की बात

बातों बातों में बात चली
बात की बात को लगी भली
फिर बातें बातों में होने  लगी
कुछ बातें रह गयी अनकही
सोचा मिलें तो बात करें
बात बात में सवाल करें
मुलाकात की बात हुई
बात करें जब रात हुई
पल में बीती लम्बी रात
बात बात में हुई ना बात
दिल की दिल में रह गई बात
अनबोली ना समझी बात

रविवार, 19 दिसंबर 2010

mamta ki janjeer

ममता की जंजीर

देख कर जुल्मो-सितम इस जगत   के
उठते  है  बवंडर तब इस शांत मन मे
मन का हारिल विरक्त  हो तब दूर नभ मे
 उड़ कर कही स्वयं से दूर जाना चाहता है
कैद  कर नहीं रख  पाती उसे सोने की दीवार
रोक नहीं पाती  किसी के चाहत के दीदार
बहला नहीं पाती उसे कोई  भी तक़रीर
सहला नहीं जाती किसी के  प्यार की तस्वीर
टूट जाते है सब  बंधन बस एक ही पल में
बाँध  पाती है उसे तो बस ममता की जंजीर

mujhe tum yaad karna

मुझे तुम याद करना

जब भी मुश्किल में तुम आओ 
मुझे तुम याद करना
स्थिति जब भी  प्रतिकूल पाओ
मुझे तुम याद करना
बन कर हल  हर प्रश्न का
बन कर  आऊँ गा मैं
बन कर ढाल हर मुसीबत के
समक्ष खड़ा  हो जाऊंगा मैं
तुम बन कर रहो 'नीरज'
इस जीवन के तरन ताल में
भंवर उठे कभी  जब  भी
तो बस जान लो इतना
झेलने को तूफ़ान
चट्टान बन जाऊं गा मैं
यह मत सोचो कि रिश्ता
 मेरा तुम से   चिर पुराना है
रहे है अजनबी ता उम्र
नहीं कोई फ़साना है
एक तार स्नेह का
मुझ को तुम से जोड़ता है
एक दीप तम का
जो हर दिशा को मोड़ता है
इसलिए बस बार इक
मैं बोलता हूँ
तुम तक पहुंची हर बला
को तोलता हूँ
और फिर कहता यही हूँ कि
 डगर हो अगर अनजान तो
मुझे तुम याद करना
लगे जब कठिन पंथ और काज
मुझे तुम याद करना

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

vishwas pyaar ka

विश्वास प्यार का

लेख हमने जो लिखे जीवन के पन्नो पर
दावा है मेरा कि तुम वह सब मिटा ना पायोगे
करोगे जितना भी जतन हमसे दूर जाने का
उतना ज्यादा तुम हमे पास अपने  पायोगे
लाख चाहे बंद करो तुम कान अपने
गीत मेरे भाव के दिल में गुंजाते पायोगे
तड़प उठोगे स्वयं को देख कर तन्हा
"प्यार कहते है किसे" तब स्वयं ही जान  जायोगे

dooriyaa

दूरियां

सृजन की तूलिका ने फिर गमक की तान छेड़ दी.
विरह की वेदना ने मिलन की हर आस भेद दी
उठे जब भी कदम तुम्हारी तरफ तुमसे मिलने को
इस जग के  लोगो ने इड़ा की झूठी शान   घेर दी
बढे अब फांसले कुछ इस तरह दरमियाँ दोनों के
कि साथ रह कर भी  प्रिया अजानी छाप बन गयी
ना समझे थे ना समझोगे तुम ऐ जहां वालो
दूरी बीच दोनों की तुम्हारी  नज़र की माप बन गयी



.

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

muskaan meri samptti

मुस्कान मेरी सम्पत्ति

सूरज का उगना
चंदा का छुपना
तारों का टिमटिमाना
ऋतुओं का चक्र
धरती का यूं घूमना
और घुमाना
नन्हे बीज का अंकुरित होना
सागर का नन्ही बूंदे बन कर
यूं उड़ जाना
बादल  बन कर धरती पर फिर बरस जाना
क्या यह सब प्रक्रिया है ?
एक रहस्य अनदेखा, अनबोला
जिसको हर मानव ने झेला
पाला पोसा और महसूसा
किया स्वीकार हर एक अजूबा
है असंभव बदलना स्वभाव नियति का
पर है स्वयं दाता वह मुस्कान अपनी का

rahsya jeevan ka

रहस्य जीवन का

जीवन को करीब से देखने की
हर कोशिश
मुझे जीवन से हर बार
कोसों दूर ले जाती है
और छोड़ देती है
एक ऐसी ऊँचाई पर
जहां से हर आदमी बौना नज़र आता है
सुख-दुःख ख़ुशी-गम के आवरण
झीने जान पड़ते हैं
मन को टटोलती हूँ
श्वसन को बटोरती हूँ
और फिर सोचती हूँ
जीवन एक रहस्य है-
इसे राज ही रहने दें.
जैसे सब बहते हैं
वैसे ही बहने दें.

Doshi kaun

दोषी कौन?

वृक्ष पर लटका पत्ता
पीला हुआ, झरा
और धरती पर गिरा

हवा के झोंको के साथ
इधर उधर उड़ा
और कही दूर जा पडा

विदम्भ्ना  कहो, या  कहो स्वभाव
दोष किसे दें ?

वृक्ष को!
जो पत्तों को बांध कर
रख नहीं पाया

हवा को!
जिसने पत्तों को
इधर-उधर उड़ाया

यां फिर पत्ते को!
जो जीवन भर
साथ दे ना पाया

जीवन में बहुत सारे सवाल हैं
जवाब कहीं नहीं है
 बस कहीं एक  समझौता है
कहीं कहीं ख़ुशी से
और
कहीं मन में मलाल है

Bargad Ka ped

बरगद का पेड़
गाँव के बाहर बरगद का पेड़
सर्दी गर्मी ,धूप और छाया
सदियों से वह सहता आया
बदलते हर मौसम की थपेड

हरा भरा वह वृक्ष सघन
गोद में जिसके बीता बचपन
संग में जिसके हुआ बड़ा
वह आज भी वहीं  अडिग खड़ा

पल- पल करके बरसो बीते
घूमा जग भर रीते-रीते
प्रतिकूल स्तिथि से जब भी घबराया
बूढ़े बरगद ने साहस बंधाया

गिर कर चड़ना और चढ़ कर गिरना
जीवन की है एक  एक कला
अंतिम चरण मंजिल पर धरना
जीवन सार है यही भला

yaachna

याचना

सौगंध तुम्हे सच कहना मुझसे
बात एक भी ना मन में रखना
जीवन की ढलती बेला में
कब तक पड़ेगा यूं सहना
मेरी अनसोयी रातों ने
तुमको भी तो जगाया होगा
मेरे दिल की आहों ने
तुम को भी तो तड़पाया होगा
अंतस में उमड़े दुःख के बादल
तुम को भी नम करते   होंगे
नयनों से छलके पानी की गागर
कोरों को गीला करते   होंगे
शून्य व्योम में भटक रहा हूँ
ना रह कर मौन निहारो मुझको
अनहत स्वर का भेद ना जानू
कुछ तो कहो, पुकारो मुझको

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

anubhav sparsh ka

अनुभव स्पर्श का

कोलाहल चंहु और
निस्तब्ध बना  पुर जोर
मधुर शब्द मौन ना

सिहरन भरा  स्पर्श्य
मंजुल मन अवश्य
व्यक्त हई कल्पना

जागे  सोया अभिलाष
अभिनंदित उल्लास
कुहुक उठी वेदना

मंगलवार, 30 नवंबर 2010

Sagar ka tat

सागर का तट और लहरें

शांत जलधि  की चंचल  लहरें
तट पर आती बारम्बार
उजड़े रूखे,सूखे तट को
नम कर जाती हैं हर बार

भर लेने को अपने आँचल में
करती हैं प्रयास निरंतर
लेकिन देख तट की तटस्थता
सिमट कर छुप जाती हर बार

निर्विकार तट देख उठे जब
सागर अंतस में भूचाल
नन्ही प्यारी चंचल लहरें
धरें सुनामी रूप विकराल

मर्यादा के तोड़े बंधन
भर ले आगोश में तट विशाल
उच्श्रीन्ख्ल लहरों को जबरन
रोक ना पाए सागर मराल

सोमवार, 22 नवंबर 2010

maafi aur dost

माफ़ी और दोस्त

मेरे हर गुनाह को वह देता है  माफ़ी 
नहीं होने देता कभी नाइंसाफी
आंसू ना बहने पाए मेरी आँखों से
इसके लिए उसकी ही आँखे हैं काफ़ी
ओढ़ के चादर वह मेरे गुनाहों की
सजा वह मेरे हिस्से की भुगतता है
चुन चुन के कंकर वह मेरी राहों के
सुगमता की  कलियाँ   हर पल  बिछाता है
वह कोई नहीं बस है दोस्त मेरा
दमकते सूर्य  से जैसे रौशन सवेरा
वह तन्हा सफ़र में हमसाया मेरा
अनाथो की बस्ती में जैसे बसेरा

samjh, nasamjh

समझ - नासमझ

कभी कभी समझ भी इतनी नासमझ हो जाती है कि
समझ  कर भी असमंजस  मे ही रहती है
और कभी कभी नासमझ इतनी समझदार हो जाती है कि
नासमझ कर भी  समन्वित ही  रहती है
एक झिर्री का फांसला है इन दोनों के दरम्यान
पता ही नहीं चलता कि
समझ कब नासमझ और नासमझ कब समझदार हो जाती है

रविवार, 21 नवंबर 2010

Swarth ka astitv

स्वार्थ का अस्तित्व
कल्पना के आकाश से
देखा जब धरातल यथार्थ  का
फटा था आँचल भोली ममता का
बस फैला था दामन स्वार्थ का
देखा मानव को चोट पहुंचाते
सब से ऊपर
देखा जीवन को रोते अकुलाते
भीतर ही भीतर
देखा अपनों को रूप बदलते
हर इक पल में
देखा बेगाने कैसे बनते अपने
केवल इक छल से
देखा सोच को होते संकुचित
जीवन दौड़ में
देखा प्यार को रोते सिसकते
हर इक मोड़ पे
क्या यही है यथार्थ
कि कामनाओं की क्षुधा
शांत करता हुआ हर व्यक्ति
चन्दन में  लिपटे भुजंग जैसा
मन में लिए बैठा है स्वार्थ.

शनिवार, 20 नवंबर 2010

mujh ko bhool jana

मुझ को भूल जाना

कुछ पाना और फिर कुछ पा कर खो जाना
 न  समझेगा  समझ कर भी यह  दर्द वह दीवाना
कहना मुस्कुरा कर यूं कि 'मुझ को  भूल जाना'
बन जाये न  सबब तन्हाई में मेरा आंसू बहाना
हो ना पायेगा अब मुझसे  इस कदर वह कह्कहाना
हँसना  वह हर बात पर  और  बेवजह ठहाके लगाना
जब कभी भी आयोगे  सामने तुम याद बन कर
उठेगी टीस दिल में ,ढह उठेगा दिल का आशिआना

badlaav jeevan ka

बदलाव जीवन का !!!

कितनी सरलता से कह दिया हम ने हवायों को
भूले से भी  न गुजरे कभी अब  वह  मेरे आँगन से
यूं कर दिया आगाह हमने  इन नभ फिजाओं को
न इठलायें कभी अब वह मेरे  मन के उपवन में
बदलते मौसमों का स्पर्श जबरन छू ही जाता है
चाहे रहो  संभल कर दूर जीवन की बदलन से

chalo bane anjaan

चलो बने अनजान

रिश्तें बेतकुल्लफ के जिए  यूं बहुत  देर हम ने
चलो बार  फिर से  एक हम  अनजान हो जाएँ
गुजारें है मधुर वो पल जो साथ साथ हमने
चलो बार फिर से  एक वह बस अरमान बन जाएँ
बहा हर  आँख से कतरा- ए - शबनम का मेरे ए दोस्त
हम दोनों के  एक ख्वाब की पहचान बन जाये
हो जब कभी भी सामना गुजरते  यूं दरीचों में
तुम्हारा अक्स मेरे  दर्द- ए- जिगर  का मेहमान बन जाये

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

stree se

स्त्री से

क्यों बन कर लता
ढूँढती हो
किसी वृक्ष का सहारा
हो स्वयं तरुवर
जुड़ना जिस से चाहे
यह उपवन सारा

क्यों बन लहर
चाहती हो हर पल एक किनारा
हो बल्ग्य इतनी
बहो बीच सागर
बन नील धारा

ना मांगो किरण
तड़प कर यूं
सूर्य से तुम
असमर्थ है वह खुद भी
झेलने को तेजस  तुम्हारा

Satta ka upbhog

सत्ता का उपभोग

मौन शब्द
हुए स्तब्ध
देख सत्ता
का प्रारब्ध

धन लोलुपता
काम भ्रष्टता
शर्मसार हुई
कर्म महत्ता

शक्ति सुयोग
हुआ दुरप्रयोग
वाह रे रक्षक
कैसा नियोग?

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

tumhaari aawaaz

तुम्हारी  आवाज़

जैसे दूर पहाड़ी के पीछे
       बजती वंशी की मीठी धुन
याँ फिर कमलन दल पर डोलते
        मंडराते भ्रमरों की गुन-गुन
जैसे साग़र के सीने से उठे
           तरंगों का कोई शोर
याँ फिर नभ में घिरी घटा को
      देख कर बोल कोई मोर
जैसे झरनों की झर-झर से
          निकला हुआ कोई संगीत
याँ फिर सनन सनन हवाओं का
           बजता हुआ कोई गीत
जिसको सुन कर किसी का  भी 
           दिल   हो जाये बेकाबू
ऐसा है  तुम्हारी
            सुरमई  आवाज़ का जादू

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

intzaar

इंतज़ार
सपना सजाया मैंने जाने कितनी बार
निष्ठुर जोगी तुम ना आए एक बार

राहों में जूही के सुमन बिछाए
दिनकर की किरणों से रौशन कराये
पलकों से पंथ बुहारा कई बार

रात की मांग मैंने चंदा से सजाई
झिलमिल तारों की चूनर ओढाई
घुंघटा ना खोला ना निहारा एक बार

निश्छल प्रेम की  मैंने भसम रमाई
क्यों नहीं तुमने मेरी  सुधि पायी
जनम जनम तेरा  करूं  इंतज़ार

सोमवार, 1 नवंबर 2010

bikhre moti chunega kaun?

बिखरे मोती चुनेगा कौन?

बंद पलक जो बुने थे सपने
खुली पलक वह हुए ना अपने
अपनों से अब मिलेगा कौन
टूटे सपने बुनेगा  कौन?
कह लेते थे दिल की बातें
आँखों से जब होती बरसातें
अब दिल की बातें सुनेगा कौन?
अश्रु आँखों के पौंछेगा कौन?
जैसे सागर तट पर मोती बिखर  गये
वैसे हम तुम दोनों बिछड़ गए
अब बिछड़ों से मिलेगा कौन?
बिखरे मोती चुने गा कौन?

रविवार, 31 अक्तूबर 2010

ek deep mera jalne do

एक दीप मेरा जलने दो

शैशव की भोली रातों में
जाने कितने ख्वाब बुने थे
इन ख़्वाबों को अब सजने दो
एक दीप मेरा जलने दो
हुआ भ्रमित यूं पथ से भटका
श्वास श्वास में अंकुश  अटका
मंजिल पर अब पग धरने दो
एक दीप मेरा जलने दो
हूँ साथ-साथ पर साथ की चाहत
युग-युग के इस एकाकी पन को
चाहत का स्पर्श मात्र करने दो
एक दीप मेरा जलने दो

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

fainsla

फैंसला
फैंसला जब से किया तुमको भूल जाने का
और भी ज्यादा हमे तुम याद आने लगे
सोच  जब हम ने लिया तुम से दूर जाने का
और भी ज्यादा तुम नजदीक तर आने लगे
हम तो ख्वाब में भी ना ख्वाब यह देखा किये
और तुम तस्वीर - ऐ -हकीकत बन सामने आने लगे
पलट कर जब देखते है तो हैरान होते हैं बहुत
किस तरह तुम चार सु हरदम नज़र आने लगे

Aasavari

आसावरी
गुनगुनाओ राग अब आसावरी
प्रात बेला में न लसत बिहाग री
मूँद कर निज नयन तारे सो गए
ख़तम है अब गहन तिमिर विभावरी
त्रिविद मंद समीर पूरब से बहे
उदित प्राची से कनक रस गागरी
चहचहाते कीर कोकिल मोर पिक
चढ़ अटरिया बोलते खग कागरी
तरनी तालों में कमल दल खिल उठे
कह रहे कली से भ्रमर दल जाग री
भाल बिंदिया नयन में कजरा रचाओ
लाल सिंदूर से सजाओ मांग री
पेट पर रख पैर सोये ना कोई
युग युगों के बाद जागे भाग री
प्यार की सरिता बही उर शैल से
बुझा रही है विषमता की आग री

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

Shiv - Ganga

शिव-गंगा

अखबार में छपी खबर
हरिद्वार में गंगा  बीच धार
खड़ी थी जो शिव की मूर्ति विशाल
वह ना झेल पायी गंगा का बहाव
और बह गयी कोटि मील पार
सत्य है कलियुग में -
गंगा का आवेग
शिव भी रोक नहीं पाते हैं
जाह्नवी को बांधने में
स्वयं को असमर्थ पातें है

शिव एक शक्ति है
ध्योतक है सत्य का
और सुन्दरता की आसक्ति है
जब सत्यम, शिवम् सुंदरम का
ना हो अनुपातित मिश्रण
तब शिव स्वरुप परिकल्पना का
हो जाता स्वत हनन
और दूसरी ओर यूं कहें-
गंगा परिचायक है
शक्ति स्वरुप का
करती संरचनाएं
कोटि जन मानस का
उच्च्श्रीन्ख्लता धारा की जब
सीमा लांघ जाती है
कोई भी मर्यादा उसे
बाँध नहीं पाती है

शिव और शक्ति ही
इस जग के हैं पराभास
संचालित समस्त , सौर- मंडल
कराये जीवन का एहसास

lahren

लहरें
उध्वेलित हो कर उठती लहरें
तट से टकरा जाती हर बार
तुम साथ चलो करती अनुरोध
पर तट का करते देख विरोध
सोच रहीं विषय एक बार
क्यों आती हैं हम इस तट के पास
रोक ना पाया कभी यह  हम को
ना कभी यह चला हमारे साथ

ek kathin pareeksha aur sahi

एक कठिन परीक्षा और सही

गम की काली रात भयावनी
क्रंदन करती पूर्णकाल
अश्रुपूरित नयनावलियों के
अंजन धोती बारम्बार
तेवर बदले जगवालों ने
किन्तु ना बदली मस्तक धार
जब तुम ने ही लिख डाला मस्तक
अपने स्वर्णिम  हाथों  से
श्रम कुठार ले कर चल दूंगा
ना लूँगा  दीक्षा और कहीं
एक कठिन परीक्षा और सही

है मुझे भरोसा निज स्वेद का
व्यर्थ ना यूं गिरने दूंगा
हर  एक बूँद पर स्वर्ण उगेगा
सत्य  भागीरथ व्रत लूँगा
तुम जो कर सकते हो वह कर लो
है मुझ को स्वीकार चुनौती
अपने अस्त्र ,शस्त्र और बल की
तुम करो समीक्षा और सही
एक कठिन परीक्षा और सही

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

Kahin to koyee taakat hai

कहीं तो कोई ताकत है
जो हमसे काम करवाती है
मुस्कुराते हुए विषमता में जीना सिखलाती है
तेज़ हवाओं के थपेड़ों को सह कर भी
एक नन्हे से दिए की तरह टिमटिमाती है
करती है सामना एक शक्तिशाली तूफ़ान का
होंसले की बुलन्दियो को छू कर आती है
थकती है रूकती है लेकिन दूर देख मंजिल
फिर रुके कदम उठा कर आगे बढती है
आखिर कही तो कोई ताकत है................

kahaan ho tum

कहाँ हो तुम

जहां कहीं भी नज़र दौड़ाओगे
हँसता खिलखिलाता मुझे  पायोगे
इन हवाओं में शोख फिजाओं में
अम्बर के सितारों में
धरती के  नजारों में
दरिया की रवानी में
बादल की कहानी में
तुमने मुझे कभी बुलाया ही नहीं
अपना कभी बनाया ही नहीं
क्या कहते हो "मैं कहाँ हूँ"?
जहां कोई ना पहुँच पाया
मैं तो हमेशा वहां हूँ

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

sahna padta hai dard yahaan sab ko apne hisse ka

सहना पड़ता है दर्द यहाँ सब को अपने हिस्से का

डूबा करता हूँ जब भी पीड़ा के बहते दरिया में
बह जाती है सारी आशा विकल वेदना के प्रांगन में
उच्चरित होती है सदा सर्वदा अपनी पीड़ा की कोरी कथा
कोस कोस नियति को मानव शांत करता है अपनी व्यथा
जीवन है सुख  दुःख का संगम ऐसा सब ने बतलाया था
फिर भी ना जाने क्यों इस तथ्य को आत्म-साध ना कर पाया था
क्यों बेचैन हुआ फिरता है प्राणी जीवन में झरते दुखों से
सहना पड़ता है दर्द यहाँ सबको अपने अपने हिस्से का

सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

Maut aur jeevan

मौत और जीवन

भर लेती मौत मुझे  आज अपने अंक में
याँ यूं कहो कि, बस छू कर मुझे चली गई
 सोचूँ ,पथ से भटक गई थी  क्या ?
याँ फिर अपनी मंजिल से बिछड़ गई
जितना आसान लगता है उन्हें मरना यहाँ
शायद उससे भी मुश्किल है यूं मौत के साए  से गुजरना
भयावह चीखों और चीत्कारों के समक्ष
संघर्ष जीवन का लगा बड़ा  ही सहज , सुहावना
संघर्षों में छुपा हुआ है जीवन का संविधान
अमृत समझ कर करता हूँ मैं इस विष का पान
मन्त्र मौत का तज दो इस में ही है तेरी शान
संघर्ष थमा तो होगा मृत जीते  हुए  भी यह इंसान

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

kavita

कविता
खट्टे मीठे अनुभव ख्यालों में संजोती हूँ
मोती ख्यालो के शब्दों में  पिरोती हूँ
कविता की माला स्वतः बन जाती है
गले में पहन लो तो हृदय छू जाती है
रस-छंद ज्ञान से बिलकुल अनभिग्य हूँ
फिर भी शब्दों की तान सुनाती सर्वग्य हूँ
हर पल हर क्षण जो हो जाए रूहानी है
बस इतनी सी कविता कहने की कहानी है

pathhar

पत्थर
मैं एक पत्थर जो था हिस्सा किसी ऊँचे पर्वत का
सिर उठाये खड़ा था सब से ऊपर शान से
वक्त की आंधी से गिरा जो जमीन पर
अस्तित्व के लिए ढूँढता हूँ धरातल अभी
घमंड कहो या कहो स्वाभिमान
ख़ाक होने के बाद भी जिन्दा हूँ अभी

Tum se acchi tumhaari yaad

तुम से अच्छी तुम्हारी  याद

जब भी आती याद तुम्हारी
गहरा जाती अधरों पर मुस्कान
शीतल करती मनस तपन को
मिट जाती सारी थकान
शाम ढले सूरज की लाली
लगती उषा की अरुणिम भोर
रजनी के तम की चादर काली
याद की टिम-टिम में ढूंढे छोर
तुमसे अच्छी याद तुम्हारी
ना लड़े ना रूठे ना बिगड़े कभी
तेज हवा में खुशबू जैसी
हर लम्हे को जिन्दा रखती  रही

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

basti ke log

बस्ती के लोग

क्या जाने बस्ती के लोग
कैसे शमा जली रात भर
दर्द बहे जैसे पिघले मोम
पिघल पिघल कर जली वर्तिका
जखम  सरीखा जम गया मोम
रिसता रहा ज़ख्म रात भर
कैसे सहे दर्द-ए- वियोग
क्या जाने बस्ती के लोग

diwaanaa kh kar

दीवाना कह कर यूं लोग

दीवाना कह कर मुझे यूं लोग बुलाने लगें  हैं.
नाम मेरा तेरे नाम के साथ सजाने लगें हैं
डूबा देख कर मुझे यूं उल्फत में ए दोस्त
अपने गीतों में मेरे अफ़साने सुनाने लगें हैं
भूल कर भी ना गुजरूँ तेरी गली से ए दोस्त
तेरी गली के हर मोड़ पर बाँध बनाने लगे हैं
लगता है वोह भी वाकिफ हैं मेरी ढिठाई से
इसलिए अब वह मुझ से कतराने लगें हैं

iltiza

इल्तिजा
ना देना फिर कभी यूं मेरे दरवाज़े पे तुम दस्तक
तड़प कर निकलेगी आह हम  से ना संभाली जायेगी
तन्हाईओं का  यह गश्त हम तो सह ही जायेंगे
तेरी रुस्वाईओ की पीड़ा ना हम  से झेली जायेगी
जुस्तजू की बहुत  हम ने तुम से मिलने की यूं  उम्र भर
आरज़ू तुमसे मिलने की अब हम को ता उम्र तडपाये गी

hasraten.

हसरतें

मर कर भी ना  ख़तम होगा यह इंतज़ार तेरा
हसरतें दिल की मेरे साथ दम तोड़ जायेंगी
ना खौफ है गम-ए-तन्हाई का ऐ मेरे दोस्त
 तेरी याद मेरे साथ दफ़न कर दी जाएगी
सजेंगें जब भी मेले मेरी कब्र पर यूं
दुआएं नाम की तेरे हर दम पुकारी जाएँ गी

tum choonki apne ho

तुम चूंकि अपने हो

तुम चूंकि अपने हो
भोर की झपकी के सुनहले से सपने हो
इसलिए कहते हैं
द्वार मन आँगन के
प्रेम की सांकल है
इसे तोड़  यूं गिराओ मत
रिश्ते यह अनजाने है
कोई नाम दे बुलाओ मत
बंधन कच्चे धागे के
इन्हें और यूं उलझाओ मत
जीवन के कोरे पन्नो पर
अंकित जो तेरे नाम हुए
 इन्हें इस तरह  मिटवायो मत

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

ek sansmaran

एक संस्मरण
उस दिन ऑफिस में छोटी दिवाली के दिन दिवाली पूजा का आयोजन किया जा रहा था. सारे कर्मियों का उत्साहह पूरे जोर पर था. हर कोई त्यौहार मनाने के मूड में था. काम करने में शायद ही किसी का मन लग रहा हो. वह भी त्यौहार मनाने के  शौक में डूबी हुई थी.तभी उसके के अधिकारी ने उसके काम में  कुछ भूल  सुधार करने के सलाह देते  हुए कुछ पेपर उसे वापिस कर दिए.लकिन अपने पेपर्स में कोई भी त्रुटि ना मिल पाने के कारण वह उस पेपर को लाकर पुनह अपने अधिकारी के पास गयी और बोला कि यह सब ठीक है. "सब ठीक  है जाओ जा कर सी ऍम डी से हस्ताक्षर  करवा लायो " ऐसा अधिकारी ने कहा!
अधिकारी से ऐसे सुनते ही उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया. सिनिअर से गुस्सा करना व्यर्थ होता है. बेबस सी हो कर अधिकारी के कक्ष से बाहर आ गयी और वे पेपर्स सी ऍम डी के सक्रेट्री को देदिए . बड़ी छोटी सी बात थी. लकिन उसके का लिए बड़ी ही असहज और असहनीय थी. अपने आप को सयंत नहीं कर पाई. दिल का गुबार आँखों से बह कर निकल जाना चाहता था लेकिन आंसू आँखों के कोरों पर आ कर थम जाते थे . दिल के भाव कोई जान ना पाए इस लिए ओंठो पर एक मुस्कान की लकीर खींचने की बराबर कोशिश हो रही थी.
इतने में दफ्तर के सब लोग पूजा के लिए नीचे प्रांगन में एकत्रित होने लगे और दिवाली पूजा आरम्भ हो गयी. अपनी भावनायों के उद्द्वेग को शांत करने की नाकाम कोशिश उसे पूजा में शामिल होने से रोकती रही. हर कोई उसे नीचे  पूजा में शामिल होने के लिए बुला रहा था .
किसी तरह अपने आप को सयंत करके कुछ समय के बाद वह वह अपने प्रतिबिम्ब को दर्पण में निहार कर आश्वस्त हो कर कि अब चेहरे से कोई भी भाव नहीं पढ़ पाए गा वह पूजा में शामिल हुई . आरती शुरू हो चुकी थी. लेकिन अब भी वह मानसिक रूप से वहां शामिल नहीं हुई थी. मन तो आंतरिक उद्द्वेग को रोकने क़ी कोशिश में लगा था.अचानक कोई उसके पास आकर खड़ा हो गया और धीरे से कान में कहा जाओ आरती लो और आरती की तरफ साथ साथ कदम बढाने लगा. जिस मानसिक उद्वेग को शांत करने के लिए वह पिछले एक घंटे से नाकामयाब कोशिश कर रही थी वह एक ही पल में शांत हो गया. यह वही अधिकारी था जिसके व्यवहार  ने उसे कुछ समय पहले व्यथित कर दिया था.मन उस अधिकारी के लिए श्रद्धा और प्यार से भर गया और सोचने लगी कि जब और कोई  उसके चेहरे को भी ना पढ़ पाया तो यह व्यक्ति उसके मन के भाव को कैसे पढ़ सका.
सच हम सब दोहरे माप-दंड में जीते  हैं . इंसान व्यक्तिगत रूप में बहुत अच्छा होता है लेकिन हम दफ्तर में कई बार अधिकारी के आवरण में लिपटे उस इंसान के करीब  नहीं पहुँच पाते और उसे नहीं पहचान पाते.आज  दफ्तर छोड़ने के बाद भी वह शख्स उसका एक बहुत प्यारा दोस्त और उसके जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन चुका है.

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

bachpan ki yaad

बचपन की याद
२५ साल बाद वह उस शहर में  किसी शादी के उत्सव में शामिल होने के लिए वापिस आई थी जहा उसके बचपन का कुछ हिस्सा बीता था .
शादी का उत्सव अपने पूरे जोर पर था. हर एक शख्स अपनी धुन में मस्त था . वह भी अपने परिवार के साथ उत्सव का आनंद उठा रही थी कि अचानक उसे महसूस हुआ कि कही दो आँखे उसे निरंतर देख रही है.
कुछ समय बीत जाने पर सहसा किसी ने उसके सिर पर जोर से हाथ लगाया और एक ही झटके से उसकी केश राशि को छिन्न-भिन्न कर दिया और बोला : "बड़ी देर  से मेरा तेरे  बालों को खराब करने का दिल कर रहा था " और इतना कह कर वह आगे बढ गया.  यह वह शख्स थे जो उसे बराबर देख रहा था . वह भी अचानक अपनी जगह से उठी और उसके पीछे दौड़ कर उसे कालर से पकड़ लिया और उसकी कमीज की जेब से पेन निकल कर बिलकुल सफेद कमीज़ पर जल्दी से आढ़ी तिरछी लकीरें खींच दी.यह सब इतना आनन्- फानन हुआ कि किसी को भी कुछ समझने का अवसर ही नहीं मिला कि यह क्या हुआ और क्यों हुआ
लकिन वह दोनों दुनिया से बेखबर एक दूसरे को देखते और मुस्कुराते रहे.सहसा आँखों से जल धारा बह निकली. वह दोनों बचपन के दोस्त थे और आज अचानक ३५ साल बाद मिले थे . बचपन की याद आज भी दोनों के जहन में इतनी जयादा अंकित थी कि दोनों उसे याद कर के आत्म विभोर हो रहे थे.
सच बचपन बड़ा ही सहज और सुंदर होता है.भोली यादे कभी कभी इतनी मानस पटल पर ऐसे अंकित हो जाती कि हम उसे हमेशा याद नहीं रखते लकिन जब भी वोह व्यक्ति सामने आ जाता है तो उससे जुडी सारी यादें  ज्वलंत हो जाती है.

Chhuan

छुअन

याद तुम्हारी छू जाती है
जब भी मेरा शोख बदन
थम जाती है लय श्वास की
रग-रग में दौड़े सिहरन
बन जातें कई इंद्र- धनुष
बिखरातें हैं रंग नवल
अनुपम रंगों से सज कर
महक उठते हैं पुष्प सजल
रौशन होते दीप हज़ारों
चकाचौंध होता त्रिभुवन
जाग्रत होती सुप्त चेतना
जब अनुभव होती तेरी छुअन

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

ek anubhav

एक अनुभव
"अरे बेटा ! आज सुबह ४ बजे मैं उठ कर चौके में नहीं जा सकी. इस लिए आज सुबह मैंने आप को दूध नहीं दिया".
माँ ने अपने तेज  चाकू की धार से कटे हुए हाथ को पकड़ कर दर्द से करहाते हुए बोला.
आठ साल के बेटे ने अपनी माँ का सर सहलाते हुए उत्तर दिया," कोई बात नहीं आज आप आराम करो. मुझे भूख नहीं लगी है"
माँ की आँखे भर आयी और सोचने लगी "कि कौन कहता है कि रिश्तों मैं गर्माहट नहीं है , भावना नहीं है?
अगर आज आठ साल का एक बच्चा  यह बात सोच सकता है तो यही बच्चा जब जवान हो कर बहुत जिमेवारिया अपने मज़बूत कन्धों  पर उठाये गा तो क्या बदल जायेगा? क्या इस कि सोच बदल जाएगी?
नहीं नहीं .....ऐसा सोच कर माँ कि रूह कांप जाती है और उस नन्हे बालक को कलेजे से लगा कर सोचने लगती है कि गलती कही हम से होती है उस नन्ही,  कच्ची सोच को मज़बूत रंग देने में.
बालक तो एक कच्ची मिटी की किसी रचना के सामान है जिसे तराशने में कहीं कोई चूक हम से ही हो जाती है जाने अनजाने में ,और वह रिश्तो कि मर्यादा और भावनाओं को बस एक ही तराजू पर तोलने लगता है .
बालक ने माँ को किसी गहरी सोच में डूबे देख कर बोला ," आप को मालूम है मैं आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाने वाला. दीदी को तो मालूम नहीं कि वह अपने हसबंड के साथ अपने घर चली जाएगी सिर्फ मैं आप के साथ रहने वाला हूँ . और मैं किसी दूसरे घर में नहीं जाने वाला . मैं इस घर को बेचूंगा भी नहीं .
अब माँ अवाक थी और सोच रही थी कि यह सब इस को किस ने सिखलाया. शायद यही संस्कार थे जो उस नन्हे बच्चे ने माँ के गर्भ से ही ग्रहण कर लिए थे .
सिर्फ संस्कार ही एक ऐसी संपत्ति है जो पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत में मिलती है और कुछ नहीं.

viraasat

विरासत
क्या दोगे बच्चों को  विरासत में
पूछा किसी ने एक दिन

गंभीर सोच में डूबा मन था
जीवन भर जो भाग दौड़ कर
संचित किया जो इतना धन
दे जाऊंगा इन बच्चों को
निश्चिन्त बनेगा इनका जीवन

संचित धन तो चल माया है
पीढ़ी-दर-पीढ़ी ना साथ चले
सु-संस्कारों की झोली भरो
जो जीवन भर तो साथ रहे

धन क्या खुशियाँ दे पायेगा
धन क्या भूख मिटा पायेगा
धन क्या समझेगा मानवता
धन क्या धर्म सिखा पायेगा

जो जीवन सभ्य सुसंस्कृत करदे
ऐसे भरदो तुम संस्कार
अमर रहेगा नाम तुम्हारा
मानवता पर  भी होगा उपकार

नन्ही बूंदे अच्छी बातों की
देते हैं जो जीवन पर्यंत
बन जाती है अथाह जल राशि
जिसका कभी ना होता  अंत

ekaaki

एकाकी
आज पुनह झंकृत हो बैठी
मेरे एकाकी मन की वीणा
ऐसे श्वास प्रकम्पित हो गए
जैसे तडपे जल बिन मीना

तडित दामिनी चमके अम्बर में
मैं उमड़ पड़ी बन दुःख की बदरी
नयनों से फूटें अश्रु के झरने
तालाब बने जल भर कर नद री

व्यर्थ लगे सान्त्वनाये सारी
चकनाचूर हुए  सपने
दर्द के इन उठते ज्वारो में
बेगाने  भी हुए अपने

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

Beti ki vidaayi

बेटी की विदाई

अंगना में बाजे शहनाई
कल तक थी जो मेरी साँसे
हुई वह  आज पराई
अंगना मैं बाजे शहनाई

दुल्हन का श्रींगार रचा  कर
तारों से  मांग सजा कर
आशीष दे कर भर- भर झोली
करूं मैं उसकी विदाई
अंगना मैं बाजे शहनाई

खुशियों की बरात है आयी
फूलो की सौगात है लाई
देख चन्द्र विधु की झांकी
हुई मैं आज सौदाई
अंगना मैं बाजे शहनाई

बेटी तो है अनमोल खजाना
विदा हुई तो दर्द यह जाना
संचित कर के बाबुल अंगना
पिया घर जा कर समाई
अंगना मैं बाजे शहनाई

आशंकित मन क्यों घबराए
पिया घर जा कर सब सुख पाए
ठाकुरजी से लेत बलैयां
आँख मेरी क्यों भर आयी
अंगना में बाजे शहनाई

बेटी तो है धन ही पराया
पास इसे अपने कौन रख पाया
पिया संग जा बसे अपने घर में
यह सोच मैं करूं विदाई
अंगना में बजे शहनाई

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

Hriday hmesha baccha rehta

हृदय हमेशा बच्चा रहता

गर ह्रदय हमेशा रहता बच्चा
निष्कपट निस्वार्थ और भोला-भाला   
उन्बूझ रहस्य से अनभिग्य ,मतवाला
उन्मुक्त सोच होती वसुधा पर
न  होता कल्पना का   कोई रखवाला
जीवन होता रस से पूरित
और पनपता सीधा सच्चा
गर ह्रदय हमेशा रहता बच्चा

विसंगतियों को लग  जाता  जाला
न निस्वार्थ प्रेम पर  होता ताला
मैं उत्सुकता में   हर पल जीता
मेरा नव रचना में  हर पल बीता
भेद-भाव न होता दिल  में
 मन हर प्राणी को समझे  अच्छा
गर ह्रदय हमेशा रहता बच्चा

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

chint rekhaayen

चिंत- रेखाए.

मैं उधय्त होता करने परिवर्तित
विधि विधान के लिखे लेख
गहरा जाती  है नभ मस्तक पर
आढ़ी तिरछी चिंत- रेख
हो  न विचलित  विपदाओं से
जो बढ़ता है पुरजोर निरंतर
कोई कूल क्या बांध सकेगा
जल धारा जब बहे चिरन्तर
प्रयतन भागीरथ ना होगा निष्फल
गंगा उतर स्वयम आएगी
रचने को संसार सुनहरा
वसुधा  जगह स्वयं बनाएगी
ओ' चिंता की तिरछी रेखाओं
जा दूर कहीं नक्षत्र बनाओ
सौगंध तुम्हे है मेरे श्रम की
यूं निर्ममता से मत तडपाओ
मृत हो जाती मृदुल कल्पना
जनम तुम्हारा  लेते ही
ओ'नागिन सी दिखती रेखाओं
ना यूं प्रतिभा को  डस कर जाओ

शनिवार, 11 सितंबर 2010

Nayee ranjish ko bayaan kare

रंजिश को बयाँ करें

उदास है मंज़र
गुमसुम हैं चिडियों के चह-चहे
तन्हाई है चार सू
कोई तो जाकर उनसे कहे
ग़मगीन है शाम
उजड़े चमन के जलजले
घुटता है दम यहाँ
कोई भला कब तक सहे
उठी जब निगाह
तो जाना शर्मिंदा था मैं
रुकी जब सांस
तो जाना जिन्दा था मैं
डुबो कर मेरे लहू में
मुझे यूं जाने वाले
आह है बाकी
नई रंजिश को बयाँ करे

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

Hindi diwas per

हिंदी दिवस

अपने ही घर में आज अगर मेरे बच्चे मेरी माँ (यानि अपनी नानी) से अनजान है तो दोषी में खुद हूँ
आज हमें क्यों आवश्यकता आन पड़ी है अपने ही देश में अपनी ही मात्र भाषा की दिवस मनाने की
क्यों हमें आवश्यकता आन पड़ी है अपने आप को यह याद दिलाने की कि हिंदी हमारी अपनी है
हम हिंदी भाषी है
किसी भी पशु पक्षी को कोई भी नहीं सिखाता कि कैसे बोलो
चिड़िया चह-चहाती है
तोता टें- टें करता है
सब अपनी बोली बोलते है
फिर हम हिन्दुस्तानी क्यों नहीं ?

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

Thakur ka gaanv

ठाकुर का गाँव

सडकों पर फैले हज़ारों यूं कंकर
आँगन में बिखरा वो धेनु का गोबर
काँटों में जकड़े वो नन्हें धूल के कण
हाथ में माखन लिए दौड़ें बाल गण
बिताया है बचपन जहां नंगे पाँव
ऐसा है मेरे ठाकुर का गाँव!!

वो मिटटी की खुशबू खनक चूड़ियों की
पनघट पर जाती हंसी ग्वालिनो की
बारिश में  ढहते वो कच्चे मकान
ग्राहक को तरसे वो खाली दुकान
माटी के चूल्हे में जलता अलाव
ऐसा है मेरे ठाकुर का गाँव!!

वही घाट, कुंजें वो  वीथि गोवर्धन
वही तीर कालिंदी हुआ  कालिया मर्दन
वो डार कदम्ब की और वही निधिवन
वही वाटिका गोप   माधव की चितवन
भर भर पिघलता उसके रस का जमाव
ऐसा है मेरे ठाकुर का गाँव!!

जहाँ जाने  को मन हो यूं बेताब
जहां मधुरता का आये सैलाब
जहाँ अनमना मन भी हो जाए शांत
जहाँ जाने से मिटें सारे भ्रांत
जहाँ चपलता में आये ठहराव
ऐसा है मेरे ठाकुर का गाँव!!

बुधवार, 8 सितंबर 2010

Var do he bhagwan

वर दो हे भगवान्

हो यशस्वी ,हो तेजवान
रहे स्वस्थ और हो ' बलवान
दीर्घायु   हो शिर्शायण 
ऐसा वर दो हे भगवान्
चमके माँ की आँख की तारा 
बने पिता का सबल सहारा
कर्मठ को कर बने महान
ऐसा वर  दो हे भगवान्
हो सत्यवान करे पुरषार्थ
प्रयत्न हमेशा करे निस्वार्थ
हो मुट्ठी में उसके  जहान
ऐसा वर दो हे भगवान्

Jeevan ki chatri

जीवन की छतरी

जैसे तेज़ बारिश में
छतरी साथ नहीं देती है
बौछार यहाँ वहां तहां से
बदन को भिगो जाती है
वैसे ही
विपरीत काल में
आशा की चादर साथ नहीं देती है
निराशा यहाँ वहां तहां से
जीवन को छू जाती है

laghuta Jeevan Ki

लघुता जीवन की

हरे दरख्तों की
फलों से लदी झुकी
लचकती हुई डालियों के बीच
आसमान को छूती
सूखी शुष्क शाखा
कराती है अपने बौनेपन का एहसास
लघुता यूं जीवन की
इंसान के परिमाप को बढाती है
लकिन अंदर से कितना खोखला कर जाती है
चाह कर भी मानव
सब से मिल नहीं पाता है
और एक जैसा होते हुए भी
अपने को दूसरों  से भिन्न पाता है

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

Tumhara ehsaas

तुम्हारा एहसास

आकर मुझे यूं , जब मुझसे चुराया तुमने
जागते हुए कोई  ख्वाब दिखाया तुमने
भूल चुके थे कभी दर्द भी होता है सीने में
चुपके से आकर यह एहसास जगाया तुमने
अपने हाथो की लकीरों में मुझे यूं बसाया तुमने
प्यार का  दस्तूर हर वजह निभाया तुमने
मर कर भी ना कभी होंगे जुदा हम दोनों
हर सांस की  आवाज़ में यह गीत सुनाया तुमने
कितने तन्हा , बिन तुम्हारे थे यह जाना हमने
जी कर भी ना जिन्दा थे यह माना हमने
जल उठेंगे हज़ारो  चिराग यूं राहों में
अपने प्यार का दिया , जब  दिल में जलाया तुमने

रविवार, 5 सितंबर 2010

Jeevan hai vyapaar

जीवन एक व्यापार

यह जीवन है एक व्यापार
देना पड़ता है मूल्य यहाँ
कुछ मिलता नहीं उपहार
प्रकृति की यह अतुल संपदा
भरपूर खजाने सौरभ के
लूट लूट जग हुआ अचंभित
अनभिग्य रहा वह व्यवहार से
अब होने लगे खजाने  खाली
ओ' प्राकृतिक सम्पदा के वाली
बदले में मांग रही यह धरा
हमसे जीवन का अनुपम प्यार

 आओ समझे रीत व्यापर की
आज नकद और कल उधार की
जो बोया  है सो पायो गे
जैसा काटो वह खाओ गे
जीवन के इस रंग मंच पर
अभिनय करता मानव जीवन
तरह तरह के किरदारों का 
मंचन करता मानव  जीवन
सारा  जीवन होम करने पर ही
मिलता है  कफ़न गज चार
यह जीवन है एक व्यापार

शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

Angna mahke harsrigaar

अंगना महके हरसिंगार

तरु नव कोंपल फूटे सुरभित
     डार- डार पर गुन्चे कुसुमित
         लाये वासंती बयार
            अंगना महके हरसिंगार

झरे फूल हो धरा सुशोभित
   कहती कर मन को सम्मोहित
       कब हुआ हूँ मैं बेकार
          अंगना महके हरसिंगर

देखो कैसे पुष्प है गर्वित
   जीवन सार है इसमें गर्भित
     प्रयत्न ना होता निष्फल बेकार
अंगना महके हरसिंगार

swarth

स्वार्थ

क्यों समझ नहीं पाते हम दूजे की उलझन
कैसे मरते हैं रोज़ और जीते हैं जीवन
क्यों बुनते रहते हैं अपने ही स्वप्पन जाल
और उनमें रखतें हैं बस अपना ही ख्याल
कर अर्जित ज्ञान हुए हम दक्ष, प्रवीण
 लेकिन दिल से हो चुके है हम संगीन
समझ नहीं पाते मानव की गुणवत्ता
भौतिकता की आड़ में भूले मानवता
भूल चुके हैं हम अपना अपनत्व यहाँ
हो चुका हैं बौना सब व्यक्तित्व यहाँ
मानवता की खोद कब्र चौराहे पर
खोज रहें हैं हैं हम अपना अमरत्व यहाँ

बुधवार, 1 सितंबर 2010

koyee anjaanaa sa

कोई अनजाना सा

झांक कर चिलमन से मुझे यूं , चुपचाप चला जाता है कोई
दूर से कर के इशारा मुझे यूं , पास अपने बुलाता है कोई
ता उम्र जख्म जो मिले है जमाने से,
चुपचाप उनको सहला जाता है कोई
दहकती है एक आग हर वक्त जो सीने में,
अपनी साँसों की गर्म हवाओं से बुझाता है कोई
खौफ -ए- रुसवाई की चादर में लिपटा सा वो है
खुल कर सामने आने से कतराता है कोई


      

vafaa

वफ़ा

फिर यूं कभी वादा  ना हम से किया करो
गर हो कभी यह इल्म  इसके संग  जिया करो
वर्ना बेवफाई का सबब ना पूछ पाओगे
भीड़ में खो जायगें, ना ढूंढ पाओगे
वफ़ा जब लौट कर आएगी हम को आजमाने को
बचेगा कुछ भी ना अवशेष हम को मनाने को
लौटा ना पाएंगी तुम्हारी दस्तकें मुझको
मुझे यूं मौत ले जाए , तुम खड़े मौत को तरसो.

शनिवार, 28 अगस्त 2010

Udaasi Ki Fitrat

उदासी की फितरत

उदासी कर गयी हर वर्क पर यूं दस्तखत
बहार सी रूह भी पतझर बन गयी  यारो
ख़ुशी ना दर कभी आयी मेहमान बन कर भी
रस्म-ए-मेहमानवाजी  भी बिसर गयी यारो
ना करो अब दवा इस मर्ज़ उदासी का
उदासी  की फितरत ही बन गयी यारो

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

ek vyktitv

एक व्यक्तित्व

एक व्यक्तित्व
  उजला-उजला सा
     रहस्य सरीखा
      खुलता-खुलता  सा
दिन चढ़ता तो ,दिनकर जैसा
तेज,  प्रतापी, प्रबलकर वैसा
है उन्नत भाल
भुज विशाल
तुरग चाल
स्वछंद मुखर
मुस्कान अधर
दिन भर रहता ,बिलकुल व्यस्त
शाम ढले , सूर्य होता अस्त
तो बन जाता बिलकुल  चंदा सा
मृदु कोमल ठंडा ठंडा सा
उसकी कंठ मिठास
देती दिलासा
और विश्वास
वह कल भी था , आज भी है
और कल भी रहेगा
मेरे आस-पास !!!!!!
एक व्यक्तित्व

बुधवार, 25 अगस्त 2010

batlaaye kaun

बतलाये कौन?

बेचैन हैं उनसे मिलने को
         यह उनको जा बतलाये कौन
             एक दर्द छिपा है सीने में
                  यह उनको जा दिखलाए कौन ?
मेरे शहर के लोगों का  अब
      तारुफ़ हैं मेरी तन्हाई से
           ना करदूं सिजदा बेबस हो  कर
                वाकिफ है मेरी रुसवाई से
एक कसक सी  उठती है सीने मे
अब उनको जा समझाए कौन?

समझ दीवाना छोड़ दिया है
      मेरे शहर के लोगो ने
          उल्फत में भी जी लेता हूँ
                  मान लिया है लोगो ने
अब सुर्ख आँखों के सबब को
पूछे कौन ,बतलाये कौन ?

koyee sath nahi deta

कोई साथ नहीं देता

अब गम भी साथ नहीं देता
   हम जैसे गम के मारों  का
        कोई मर्ज़  भी साथ नहीं देता
               हम जैसे दर्द के मारों का
माझी भी  साथ नहीं देता
   हम जैसे मझधारो का
       दरिया भी साथ नहीं देता
          हम जैसे टूटे दश्त किनारों का
मधुबन भी साथ नहीं देता
     हम जैसे पतझारों का
            अपना गाँव नहीं बसता
                  हम जैसे बंजारों का
जाने वालों की क्या चिंता
         आने वाले की फिक्र करे कोई
                 अब रोक लिया है मार्ग
                        किसी ने आती हई बहारों का

Shubh kaamnaayen

शुभ कामनाएं

बन  राज हंस, जीवन सरिता पार करो तुम
बन दीपक  इस जग तम का नाश करो तुम
मानवता के बन कर सजग प्रहरी
मानव  का कल्याण करो तुम
बन मेहा उल्लास का बरसो आँगन में
बन नेहा परिहास का झांको चिलमन से
बन सुमन कचनार की महको उपवन में
बन वसंत बयार कि  गुजरो मधुबन से
हो पर्वत की तुहिन श्रृंखला आसमान को छू कर आयो
हो दानिश, कि भेद क्षीर-नीर का कर   पायो
बढे सामर्थ्य तुम्हारा कि दिन-ओ-दिन  करो तरक्की
करे कामना यही कि ईश दे तुम को शक्ति

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

Rone walon se

रोने वालों से

रोने से मिल जाती अगर मंजिल
तो आज एक दरिया आंसू का मेरा भी होता
रोने से कट जाता कठिन सफ़र यूं
तो शबनम के हर कतरे पे मेरे आंसू का निशां होता
यूं रोने से बदल जाता नसीबा अगर
रो- रो कर मैंने भी हाल बेहाल किया होता
ऐ रोने वाले! समझ ले तू मर्म रोने का
पछताए गा वर्ना कि सिवा रोने के कुछ और किया होता

kha do sab se

कह दो सब से

कह दो ! इन घटाओं से
     नभ में छा जाएँ
          फिरोजी आलम  बनाए
कह दो ! इन हवाओं से
       मस्त सन सनाएँ
          नया सरगम बनाएं
कह दो!  इन बहारों  से
      कोई गीत गुन गुनाएं
              उत्सव मनाएं
आयी शुभ वेला है
    संग उत्साह अलबेला है
        होने को स्वयं सिद्ध
             कोई चल पड़ा अकेला है

सोमवार, 23 अगस्त 2010

Neer Ki dhara

नीर की धारा

जैसे नीरद से बहती नीर की धारा
      धो देती है धरती का कलुष सारा
वैसे ही नैनो से बहती अश्रु धारा
        कर देती है ख़तम मन-मुटाव  सारा

ओढ़ चुनरिया इन्द्रधनुष की सतरंगी
    सज जाती है धरा दुल्हन सी नवरंगी
नव सृजन की लिए कामना करती अभिनन्दन
      निश्चलता से हाथ जोड़ करती जगवंदन

हो जाता है मानस मंथन अश्रु वर्षा से
शीतल हो  जाता अंतस संतप्त विधा से
धुल जाता अवसाद होता व्यक्तित्व निखार
हो जाता है मानव उधय्त करने को पुरषार्थ

(अपने जनम दिन पर स्वयं को विशेष उपहार )

रविवार, 22 अगस्त 2010

main hoon pani

मैं हूँ पानी

जब तक मैं पानी हूँ
         बहते दरिया का
                  तभी तक है मुझ में रवानी
मिल जाता हूँ किसी बादल से
          तो हूँ संगीत बारिश का
                    हो जाता रूहानी
मिलता हूँ हवा से
              ले कर रूप शबनम का
                  भरता  हूँ  कली कलिका में
                       एक  खुशबू  सुहानी  
गर मिल जाऊ किसी जौहड़ से
         सड़ जाता हूँ खड़ा -खड़ा
                    तो काल ही
                          है  मेरी निशानी
ठहरे जीवन 
तो रुक जाएँ साँसें
         बस चारों तरफ
            मौत की छा जाये चुप्पी
और चलता है जीवन
       उमंग देता है अंतस  में
            बस यही है मेरी कहानी

शनिवार, 21 अगस्त 2010

Praat Suhani

प्रात सुहानी

रात्रि के तामस को  हरती
       आती है जब प्रात सुहानी
                सर्वत्र आशा की स्वर्णिम आभा
                      बिखरा जाती है प्रात सुहानी
रात-रात भर मौन रागिनी
         अश्रु पूरित करती है
              नभ से गिरती जलकण बूँदें
                 धरती आँचल में भर लेती है
कुसुम और तरु- पल्लवियों पर
       फैली नन्ही जल- कण बूंदे
              और नहीं कुछ, बस शबनम है
                        ऐसा बतलाती प्रात सुहानी
नव कलिका हरित वसुधा पर
     पीत वसन जब धारण करती
           अलि कुंजो की गुंजन से
                मधुर छटा गुंजित हो जाती
अलसाया गदराया नव यौवन
     उठता है अंगडाई ले कर
           जीवन कर लो रस से सिंचित
              ऐसा समझाती प्रात सुहानी

ek khwaab

एक ख्वाब
जो हकीकत मान बैठी थी जिंदगी
हर एक रूह में
खुद को ढूँढती थी जिंदगी
साबुत दर्पण में
टूटे बिम्ब से यह एहसास हुआ
कि टूटे दर्पण में
अपना बिम्ब जोड़ती थी जिंदगी

Muskuraahat

मुस्कराहट

पूछा हम ने एक दिन मुस्कराहट से
कहाँ रहती हो ?
आंधी की तरह आती हो
तूफ़ान की तरह  चली जाती हो
एक झलक दिखला कर गुम हो जाती हो!
मुस्कुरा कर बोली यूं
सीप के मोती में
पूनम की ज्योति में
पवन की ताल में
सागर उत्ताल में
जिसमे भी निश्छलता पाओगी
उसकी मुस्कराहट में मुझे
दमकता हुआ पाओगी

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

ktra-a-aansoo

कतरा- ए- आंसू

आज फिर !
हमने अपने चेहरे को
आंसूओ से धोया है
और लोग !
कहते हैं चेहरे की
खूबसूरती में निखर आया है.
ऐ रोने वाले ! सीख के रोने का सलीका
वरना लोग क्या जाने
तेरे आंसू का हर एक कतरा
दिल के समुंदर में
तूफ़ान लाया है !

khamoshi ki baat

ख़ामोशी
खामोश ख़ामोशी ! 
अपनी रह पर
निरंतर  चलती रही
निर्झर सरिता नद !
इसे पास बुलाते रहे
सूखे पत्ते !
इसे अपनी खडखडाहट से
निमंत्रण देते रहे
सागर अपने आगोश में
समेटने को व्याकुल रहा
चंदा अपना साथी
बनाने को आतुर रहा
पर ख़ामोशी
खामोश निगाहों से तकती रही
तन्हा ही खामोश राहों पर
चलती रही

khamoshi

ख़ामोशी

कौन कहता है?
ख़ामोशी
बात नहीं करती
गुप- चुप गुप-चुप रहती है
कुछ इज़हार नहीं करती!
होना पड़ता है
खामोश इसे सुनने के लिए
बडबोले के साथ
मगर यह
बात नहीं करती

bin tumhare

बिन तुम्हारे
जी रहे थे और जी ही लेंगे
बिन तुम्हारे
पर!
भुला ना पायेंगे
वोह पल
जो बीते संग तुम्हारे
जाने वाले! इतना तो
बताते जाना
कब लौट कर आओगे
तुम!  फिर पास हमारे

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

Paisa yaan pyaar

पैसा याँ प्यार
सच है! 
ज़रूरी है, जीवन में पैसा
     पर पैसा ही ज़रूरी है
            यह विचार कैसा?
चुन लो जो चुनना है
 पर!
 यह भी ख्वाब तुम्हारा अपना है
क्या चाहिए?
प्यार की गूँज यां पैसे की खनखनाहट
प्यार की ठंडक यां पैसे की गर्माहट
बांटो तो बढे
दिनों दिन प्यार का रंग
दूना चढ़े
पैसे में फिसलन है
हाथ में फिसलता है
जेब से खिसकता है
चाहत हो मन में इसकी अगर
तो सारा जीवन ही फिसलता है
प्यार और पैसा!!!
बिलकुल विरोधाभास है
भेद ना कर पाए जो इन दोनों में
उसका जीवन ही कास है

Jeevan ka ytharth

जीवन का यथार्थ

जी रहे हैं जो यहाँ, उन्हें मौत का इंतज़ार है
मर रहे है जो उन्हें एक श्वास की आस है
जो मिला वह व्यर्थ है, जो ना मिले वह अर्थ है
समेट लूं यह विश्व सारा इसमे क्या अनर्थ है
तू समझ इस प्राण के अभिसार को ऐ ना-समझ
पी चुके भर-भर समंदर फिर भी लकिन प्यास है
ना है अपरिचित और ना ही कुछ विस्मृत हुआ
देख अपना हाल मन स्वयं से अचंभित हुआ
पा लिया सब कुछ मगर एक फांस सी चुभती रही
जीत चुके अब जगत सारा, इस जीत  पर ही त्रास है

Trishnaay jeevan ki

तृष्णा जीवन की

भटकाती रहती हैं तृष्णाए जीवन की
फिर भी हसरत बाकी
हद है पागलपन की
सुख बोया दुःख काटा
हर सौदे में घाटा
सारा विष पी कर भी
मैंने अमृत बांटा
भटकाती रहती है
इच्छाए जीवन की
फिर भी हसरत बाकी
हद है पागल-पन की

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

Akelaa

अकेला

मन कितना आज अकेला
पीड़ाओं की गठरी भारी
दूर लगा है मेला
   
आशाएं दम तोड़ चुकीं हैं
आजीवन संग छोड़ चुकीं हैं
मरघट सा खामोश हुआ है
यह जीवन का रेला
मन कितना आज अकेला

हास और परिहास है झूठे
बिछड़े सब और टूटे सपनें
मन का हारिल नीलगगन में
उड़ता गेला गेला
मन कितना आज अकेला

रविवार, 15 अगस्त 2010

vrishti

वृष्टि
टापुर टुपुर वृष्टि पड़े
   पपीहा पीयू बोल उठे
       लगी सावान की यह झड़ी
             क्यों पिया से दूर पड़ी
पिया गए हैं विदेश
       भेजा पांति ना सन्देश
           आयी मिलने की घडी
                उठे तन में क्लेश
सुन दामिनी की चाप
     बड़े मन में संताप
         छाये घटा घनघोर
             विरह का ना कोए छोर
वृष्टि की टप-टप
      देती विरह की ताल
             जैसे अंसुवन सींचे
                      राग मेघ मल्हार

pyaar

प्यार
प्यार का कोई नाम नहीं, प्यार का परिमाप नहीं
प्यार की कोई सीमा नहीं, बिन प्यार जीना नहीं
प्यार एक भक्ति है
 सूर मीरा तुलसी की शांत अभिव्यक्ति है
प्यार आसक्ति है
मनोबल बढाती है, विषमता में जीना सिखलाती है
मोहन की राधा सी , आह्लाह्दिनी शक्ति है
प्यार सखा भाव है
कृष्ण की  सुदामा को ,त्याग के सुख की छाँव है
प्यार माँ की ममता है
मरुथल की तपन में देती शीतलता है
प्यार गुरु की गुरुता है
देख कच्ची शिष्य नीवं , देती उसे दृढ़ता है
क्या प्यार एक वासना है?
नहीं, कामदेव से वन्दित एक सशक्त उपासना है
सृजन का यह रूप है , सार्थकता लिए जीवन में
एक सुनहरी धूप है
प्यार एक भावना है जो दिल से दिल को पिरोती है
सब एक माला के मोती हो , ऐसे सपने संजोती है

gungunaayen geet koyee

गुनगुनाएं गीत कोई

आओ छेड़ें साज-ए- दिल
     एक नयी सरगम बनाए
           भूल जाएँ सारे दुःख को
                   हर्ष का छंद  गुनगुनाएं
जिंदगी तो बेवफा है
        ना बावफा समझो इसे
              रास्ते में फूल ओ' कांटे
                    जो भी चाहे चुन ले इसे
साफ़ करके मार्ग कंटक
          फूल राहों में बिछाएं
                    हो उजाला नव सृजन का
                        प्यार का दीपक जलाएं
स्वप्पन बनते और मिटते
     क्यों भला कैसे भला
            नव रंगों से जीवन चित्रित
                     है जीवन की अजब कला
आयो समझे जीवन मिश्रण
       धूप छाँव से है बना
              दुखों की ढलती संध्या में
                     सुख के सूरज से जला

Talaash

तलाश
एक जीवन
        जो जीवंत हुआ
                उसके आने से
आज मृत हुआ
        उसके जाने से
सन्नाटा है
      खामोशी है
               चहु और वीराना है
                              उजड़ा चमन
                                       टूटा आशियाना है
क्यों आये तुम
         जब दूर तुम्हे जाना था
अपने पन का प्रपंच क्यों
         जब रहना ही बेगाना था
कोरे कागज़ पर
     लिख कर
          कुछ तदबीर तुमने
बदल ही डाली
            हाथ की लकीर तुमने
ना लौट कर आयोगे
          मालूम है हमको भी
                     ना जाने क्यों
                                    तलाशते हैं
                                             हम तुम को ही

yaad tumhari

याद तुम्हारी
शाम ढले जब नील गगन में
हौले से चंदा मुस्काये
याद तुम्हारी संग पवन के
बिना पंख उड़ कर आ जाए
मन के नभ में याद के बादल
उमड़ घुमड़ कर घिर आते हैं
जलकन जैसे नन्हे संस्मरण
शुष्क बदन को नम करते हैं
रात ढले जब तरन ताल पर
नवल चांदनी रस बरसाए
याद तुम्हारी निशिगंधा सी
मेरा मन आँगन महकाए

piya se

पिया से!
सखी री! मेरे नैना  नीर भरे
कारे बदरा घिर घिर आये
       सावन के झूले पड़े
            कैसे बढ़ाऊं प्रेम की पींगे
                  सैया है मोसे लड़े
                     मोरे नैना नीर भरे
काल रात्रि हुई शरद पूर्णिमा
       विधु अंगार बने
                साज श्रिंगार वृथा लगत सब
                         कंटक सेज सजे
                                मोरे नैना नीर भरे
वासन वासंती, रूप सांवरा
         कुंडल कान धरे
                  पिया मोरे मोहि सुधि लीजो
                                 कर जोरे  अरज करें
                                                 मोरे नैना नीर भरे

shela re

सहेला रे
आ मिल जुल गायें
जन्म मरण का साथ ना भूले
अब के बिछड़े रहा नहीं जाए

सहेला रे!
आ कदम बढायें
विचलित हो पग , पथ ना भूलें
बन संरंक्षक रह दिखाएँ

सहेला रे!
आ हाथ मिलाएं
जीवन की अंतिम वेला तक
सुख दुःख बांटे वचन निभाएं

vire vedna

विरह वेदना
अंसुवन से गीली धरती पर
    बिलख रहे हैं मेरे गीत
        मद्धम होने लगा सुनो तो
                मेरी साँसों का संगीत
विरह की अग्नि में जल कर
       भस्म हो गयी कंचन काया
         बार एक यह बतला दो
                कब आओगे मन के मीत
संग मरण के बुने जो सपने
     सांस तोड़ते सिसके-सिसके
             तुम आओ तो जीवन जी लूं
                    चुपके कहती अनबोली  प्रीत
गुंजन करती यह ख़ामोशी
         मन को समझाये बारम्बार
                रच डालें संसार नया एक
                           ना निभ पाए इस जग की रीत

chalo le chalo

चलो ले चलो

सागर में उठत हिलोर
      ओरे मांझी !
           खेवो मोरी नैया
                   चलो ले चलो तट की और
घिर आये बदरा
       कारे कजरारे
             छिप गया दिनकर
                      भागे उजियारे
                               फ़ैला तिमिर चहुं और
                                       चलो रे चलो
                                                 ले चलो तट की और
आशंकित मनवा
       आस लगाये
            पंथ निहारे
                  नयन बिछाए
                          देखे पूरब की और
                                    चलो ले चलो
                                              ले चलो तट की और
दूर क्षितज़ में
        पंख फैलाए
           आशा का एक दीप जलाए
                   बाट ताकत है चकोर
                              चलो ले चलो
                                           ले चलो तट की और
दुखियारा मेरा
        मन मुरझाये
              पिया मिलने को
                        तडपत  हाय
                                  जैसे पतंग संग डोर
                                         चलो ले चलो
                                                 ले चलो तट की और

kam ka kam hai pending hona

काम का काम है पेंडिंग होना
दिन भर क्यों है काम का रोना
  काम का काम है पेंडिंग होना
        यूं कब तक श्रम करे कोई
            यूं कब तक व्यस्त रहे कोई
             हरी की कमल नाभ से लम्बे
                  कैसे काम को ख़तम करे कोई
काम का स्वामी काम देव
      जिसको संहारे महादेव
          काम का प्याला पी ले जो
                  भूले सारे जग के भेद
ना दिनमें चैन ना रात में निद्रा
           धारण करता मन व्याकुल मुद्रा
                   प्रयतन करने का काम नियंत्रण
                        विफल हुआ जाता मानव प्रण
साकाम और निष्काम का भेद
        जब करे अंतर्मन तो मिटे क्लेश
                 इस काम और उस काम का अंतर
                       जो कर पाए वह सिद्ध योगी वेश
काम गलत तो हुए नाकाम
       काम सही तो कामयाब
              महिमा जिस की गाये हरी, राम
                      जो नर समझे वह  हुआ नायाब

ek inch maryaadaa

एक इंच मर्यादा
गिरी के हिम शिखरों पर फैली सुनहरी धूप
नभ में उमड़ घुमड़ते रस छलकाते पानी के कूप
संध्या काल में पानी की गोद में डूबता सूरज
कुसुमावालियों पर चमकते नन्हे पानी के जलकन
जैसे तुम्हारा यह रूप
और इसे छू लेने की कामना
और तुम्हारा भी यूं व्याकुल हो
प्रकृति की तरह मुझ अम्बर में समाना
शायद हो ना पायेगा कभी संभव
क्योंकि इन के बीच फांसला है
एक इंच मर्यादा का
जिसे तोड़ने का साहस
ना तुम में है
और ना मुझ में

chait chandni

चैत चांदनी
यह चैत चांदनी कहती है
आओ हम दोनों साथ चलें
हाथों में डालें हाथ चलें
कुछ तुम ना कहो
कुछ हम ना कहें
ऐसी कोई बात करें

kartvay bodh

कर्तव्य बोध
उठो वत्स कर्तव्य निष्ठ हो
यूं कब तक शौक मनाओ गे
उड़ा जा रहा वक़्त पंख बिन
कैसे लौटा कर लाओगे
बीता पल जो वह कल था
पल आने वाला फिर कल होगा
कल और कल की चिंता में
इस पल का चिंतन कब होगा
नियति का यूं मान फैंसला
कब तक ठोकर    खाओगे
उठो बढ़ो कर्तव्य निष्ठ हो
स्वयमेव सिद्ध हो जाओगे

mera geet diya ban jaaye

मेरा गीत दिया बन जाए
अंधियारा जिस से शरमाये
उजिआरा जिस को ललचाये
ऐसा देदो दर्द मुझे  तुम
मेरा गीत दिया बन जाए
इतने अश्रू दो मुझको
हर राहगीर के चरण धो सकूं
इतना निर्धन करो
हर दरवाज़े पर  सब खो सकूं
ऐसी पीर भरो  प्राणों में
नींद आये ना जन्म-जनम तक
इतनी सुध-बुध हरो
सांवरिया खुद बांसुरी बन जाए
ऐसा देदो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया  बन जाए

prem ki saankal

प्रेम की सांकल
मन के द्वारे
   प्रेम की सांकल
   तुम आओ तो खोलूँ
रजनी का आँचल लहराय
सारा आलम जब सो जाए
अमवा डाली डाल हिंडोल
संग तुम्हारे डोलूँ
वीणा स्वर मंजरियाँ चुप हैं
गीतों की धुन गुम-सुम गुम-सुम
प्रेम मजुषा आसव पी कर
मधुकर गुंजन बोलूँ
मृत अंतस हो जीवन सिंचित
संचारित नव चेतंताय
पूरण परम पद पा जायूं
एक बार तुम्हे हो लूं

kh maa

कह माँ

नाना हम से  क्यों रूठे हैं
तोता मैना के किस्से कहते
चिरिया बुलबुल की बातें करते
कैसे चुप हो कर बैठे hain
पल्लू से पोंछी भीगी पलकें
बालक को बाहों में भर के
आसमान में इंगित करके
मां बोली फिर साहस भर के
सप्त ऋषि के पीछे चमके
आसमान में जो सुंदर तारा
वही तो हो विश्वाश हमारा
तेरा नाना अब सब का प्यारा

kaise tum ko paanoo

कैसे तुम को पाऊँ

कैसे ढूँढू कहाँ जाऊ
  तुम्ही कहो , तुम्हे कैसे पाऊ
      ढूंढें मैंने स्थान वह सारे
         जहां बीते जीवन संग तुम्हारे
            सूना घर आँगन वन उपवन
                   सूना मन का है नंदनवन
                        कैसे अब तुम्हरी सुधि पाऊ
                             कैसे ढूँढू , कहाँ जाऊ
किस से करूंगी क्षमा-याचना
     किसको मैं अब दूं निमंत्रण
         कौन पूछेगा प्रश्न व्यथा के
            कौन करेगा उत्साह वर्धन
                कैसे इस मन को समझाऊँ
                    तुम्ही कहो तुम्हे कैसे पाऊँ
जब विदा किया पर साल था तुमने
     लिया था वादा अंक मैं भर के
           पुनह लौट कर जब भी आना
               आना मेरे ही  द्वारे सज के
                      विस्मित खड़ी आज चौराहे पर
                              हुई अचंभित किस दिशी जाऊं
                                      कैसे ढूँढू कहाँ जाऊ
                                            तुम्ही कहो तुम्हे कैसे पाऊँ

dil to hai dil

दिल तो है दिल

दिल तो आखिर दिल ही रहेगा
हो तुम दूर ,पर पास हो मेरे
कैसे यह विश्वास करेगा
छू लेते बस हाथ तुम्हारा
जीवन भर यह त्रास रहेगा
संग तुम्हारे बीतें पल फिर
जन्मान्तर तक आस करेगा
पुनह छोड़ कर ना जाओ गे
ऐसा क्या परिहास करेगा ?
दिल तो आखिर दिल ही रहेगा

swappan main papa

स्वप्पन में पापा
रात स्वप्पन मे आकर सहसा
तुमने जो आवाज़ लगाई
अर्धचेतन विक्षिप्त अवस्था से
जैसे मैंने सुधि पाई
ब्रह्म अनामय रूप निरख कर
 ज्ञान विधा  विधुत लहराई
परम तत्त्व में हों विलीन हम
जीवन भर इच्छा यही पाई
काल चक्र से हुआ मुक्त जब
क्यों मन देने लगा दुहाई
ना हो क्षोभित ना हो व्याकुल
अब ना कर मन को यूं सौदाई
उठो बढ़ो जियो वर्तमान में
श्रम तप धीरज की बात दोहराई
अवसादों का वसन हटा कर
खुशियों की चादर औडाई
अकस्मात फिर टूटी तंत्रा
टूटा स्वप्पन खुल गयी निद्रा
रस से सराबोर था तन मन
और ना था अब धूमिल जीवन
तुम्हे अंगीकार किया ईश्वर ने
जान बहुत मैंने सुख पाया
बहुत दिनों से निद्रालु था
पुनह निद्रा के अंक समाया

kaise likhoon

कैसे लिखूं

उर की बात कहूं कैसे
   कैसे जिह्वा तक लायूं मैं
       कैसे झेलूँ मन संताप
        कैसे मन को समझाऊँ मैं
निज रोदन को राग बनाया
      तार सप्तक से स्वर मिलाया
        हृदय वेदना कम करने को
           नयनों ने फिर नीर बहाया
कंठ हुया अवरुद्ध जान
     भावों को लेखन ने संभाला
           भावों की पीड़ा को अनुभव कर
               लेखन भी निस्तेज हो गया
अब तुम्ही कहो मैं कैसे लिखूं

rachna

रचना
जब शांत धरा का कोलाहल
    मन को उकसाने लगता है
  जब शांत गिरी का आँचल भी
           वज्र गिराने लगता है
पानी की नन्ही बूंदों पर
       तूफ़ान मचलने लगता है
तब वैरागी पागल मन
      कविता रचने लगता है

aansoo nahi to aur kya hai

आंसू नहीं तो और क्या है
शांत धरा के अंतस में
    भावों के बिखरे कुण्डों से
      जब पानी के चश्मे बहते हैं
           वह आंसू नहीं तो और क्या है
उत्कंठित धीर गगन से जब
     नीरद वृष्टि करता है
       पानी की नन्ही वह बूंदे
          आंसू नहीं तो और क्या है
सुडोल गिरी के अंचल से
      अंतर्मन से स्रावित हो
          जब निर्झर फूटा करते हैं
             वह आंसू नहीं तो और क्या है
मानव मन का ज्वाला मुखी
     अवसादों का लावा लेकर
        जब आँखों से बहता है
           वह आंसू नहीं तो और क्या है

aansoo maun ho gya

और मेरा आंसू मौन हो गया
दिल जब पिघला,  आँखों से निकला
     गालों पर आकर गौण हो गया
            मेरा आंसू मौन हो गया
हर आँगन सूना सूना सा
       हर वीथि रीती  रीती सी
          हर दस्तक सहमा सहमा सा
             हर आहट फीकी फीकी सी
बंधन छूटे रिश्ते झूठे
    प्यार के धागे बेबस हो टूटे
         एक दूजे पर आश्रित प्राणी
             सहसा रिश्ते में कौन हो गया
                      मेरा आंसू मौन हो गया

Tum kya jaano hridye ki peeda

तुम क्या जानो हृदय की पीड़ा

तुम ने तो उन्मुक्त गगन में
  कलरव करते देखे पक्षी
        दिन भर करते क्रीडा
           तुम क्या जानो हृदय की पीड़ा
क्या जानो खग कैसे सोता
    क्या जानो खग कैसे रोता
       कहीं दूर वह दाना चुगने
           दिन भर उड़ता फुगने फुगने
             सांझ ढले तो चले चाँद संग
                ढूंढें अपना नीड़ा
              तुम क्या जानो हृदय की पीड़ा
क्या जानो मिलने को तड़पे
    क्या जानो वह मिल कर तड़पे
        सारा दिन वह व्याकुल रहता
          हर आहट पर चौंक के उठता
            चौंच उठाये वह राहें तकता
               भूले अपनी ईडा
                तुम क्या जानो हृदय की पीड़ा

kho gya re mera bachpan

खो  गया रे मेरा बचपन
तुम क्या रूठे ,सब जग रूठा
      पीहर से भी नाता छूटा
         देख विषमता मनोबल टूटा
            कैसी यह जीवन की  उलझन
                खो गया रे मेरा बचपन
आज फूल भी लगे शूल सा
    तप्त लगें नम हवा के झोंके
         सब के गल का फांस बन गयी
             जो थी हर  एक दिल की  धड़कन
                    खो गया रे मेरा बचपन
काल चक्र यूं चलता जाए
       अमिट छाप यूं गढ़ता  जाए
           मस्तक की धुंधली रेखाएं
               होने ना देती परिवर्तन
                  खो गया रे मेरा बचपन