सोमवार, 22 नवंबर 2010

samjh, nasamjh

समझ - नासमझ

कभी कभी समझ भी इतनी नासमझ हो जाती है कि
समझ  कर भी असमंजस  मे ही रहती है
और कभी कभी नासमझ इतनी समझदार हो जाती है कि
नासमझ कर भी  समन्वित ही  रहती है
एक झिर्री का फांसला है इन दोनों के दरम्यान
पता ही नहीं चलता कि
समझ कब नासमझ और नासमझ कब समझदार हो जाती है