स्वार्थ का अस्तित्व
कल्पना के आकाश से
देखा जब धरातल यथार्थ का
फटा था आँचल भोली ममता का
बस फैला था दामन स्वार्थ का
देखा मानव को चोट पहुंचाते
सब से ऊपर
देखा जीवन को रोते अकुलाते
भीतर ही भीतर
देखा अपनों को रूप बदलते
हर इक पल में
देखा बेगाने कैसे बनते अपने
केवल इक छल से
देखा सोच को होते संकुचित
जीवन दौड़ में
देखा प्यार को रोते सिसकते
हर इक मोड़ पे
क्या यही है यथार्थ
कि कामनाओं की क्षुधा
शांत करता हुआ हर व्यक्ति
चन्दन में लिपटे भुजंग जैसा
मन में लिए बैठा है स्वार्थ.