शनिवार, 29 जून 2013

अवकाश

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अवकाश 

काश! मिल जाती घडी अवकाश की
रूबरू कुछ हम भी होते आराम से
वक्त का पहरा न होता काम पर
मुक्त  तो हुए  ही होते अवसाद से

तलब यूं आराम की बढती रही
जिंदगी से बेरूखी बढती रही
सांस के घरोंदो में छुपी नन्ही सी जान
बेतक्क्लुफ़ अनंत में उडती रही

यात्रा फिर प्रारंभ  हुयी  अंतहीन
चर -अचर विचर  विचर  बना कहर
अवसरों की चाह में जो था विकल
फिर रहा भटकता शाम ओ सहर

कब कहाँ मिल सका कभी अवकाश
कब कहाँ झुक सका यह आकाश
चरैवैत  चरैवैत का पढ़ा जो मन्त्र 
मिल गया सर्वत्र जीवन का सारांश

शनिवार, 22 जून 2013

जल प्लावन

जल प्लावन

इतना खौफनाक मंजर . जल निमग्न धरती ....टूटते पहाड़ .............लुद्कते पत्थर .....धंसती जमीन .....
जो जिंदगियां ख़तम हो गयी ..उनका खोने का गम और जो जीवन को पागए  उनका जीवन के लिए संघर्ष .......
उफ! प्रकृति भी मानव के स्वार्थीपन से निष्ठुर हो गयी 
कब संभले गा .......कब ...कब ...आखिर कब ......


 मौन तुम
मौन हम
मौन यह धरा, गगन
चक्र यह विनाश का
 कितना सरल
कितना  सघन
त्राहिमाम त्राहिमाम
थाम  ले जरा लगाम
कंकरों  की ठोकरों  से
ध्वस्त  आज
जन विहान
सरल रेख हुयी  वक्र
 चक्र अब हुआ कुचक्र
भावनाएँ  चूर हुयी
श्वास गया बिखर बिखर 
ऐ! जरा इंसान जाग
बदल अपनी रेख भाग
मत नष्ट कर वसुंधरा
क्षिति जल पवन
गगन और आग
 तड़प उठी पुकार अब
मच गयी गुहार सब
छोड़ गर्व और गुमान
प्रकृति को कर झुक सलाम



जगत नियंता

जगत नियंता
धरा की बेबसी
 दृगों की व्याकुलता
मन की अकुलाहट
  तन की शिथलता
इन सब अनभिज्ञ
अपने अस्तित्व के
वर्चस्व को
स्थापित करने में
सलंग्न है
और प्रकृति
का क्रोध है
चरम सीमा पर
द्वंद्व में पिस रहा है
जगत !!!!!