शनिवार, 29 जून 2013

अवकाश

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अवकाश 

काश! मिल जाती घडी अवकाश की
रूबरू कुछ हम भी होते आराम से
वक्त का पहरा न होता काम पर
मुक्त  तो हुए  ही होते अवसाद से

तलब यूं आराम की बढती रही
जिंदगी से बेरूखी बढती रही
सांस के घरोंदो में छुपी नन्ही सी जान
बेतक्क्लुफ़ अनंत में उडती रही

यात्रा फिर प्रारंभ  हुयी  अंतहीन
चर -अचर विचर  विचर  बना कहर
अवसरों की चाह में जो था विकल
फिर रहा भटकता शाम ओ सहर

कब कहाँ मिल सका कभी अवकाश
कब कहाँ झुक सका यह आकाश
चरैवैत  चरैवैत का पढ़ा जो मन्त्र 
मिल गया सर्वत्र जीवन का सारांश