रविवार, 24 जून 2012

 फिर खिलेंगी कलिया और महके गी सरसों यारो
महके गा यह गुलशन और चहक उठे बुलबुल यारो
झूला झूले हर डाली कुछ ऐसा अलाव जगा दो
स्वप्पन्न सजा लो हर पल में और बीता युग इतिहास बना दो
सूरज  जल कर  राख हुआ है
ठंडापन सब ख़ाक हुआ है
बादल की हर आहट गुम  है
पुरवाई का साधक चुप है
चरवाहा बन कर आ जाओ
बादल हांक कर इधर तो लाओ
 

शनिवार, 23 जून 2012

समीकरण

समीकरण
 
जीवन के गणित के बदलते समीकरण जीने की परिभाषा ,परिमाप और परिणाम को भी बदल देते है ,इस बात का अनुभव शायद हर कोई करता होगा . बदलते मूल्यों के समीकरण एक बिंदु पर विभिन्न आकृतियों को निहारते , पुकारते और कभी उनसे बचते बचाते अनंत की तरफ आकर्षित होते है ..वह अनंत जहां हर समीकरण अपना अस्तित्व खो कर उन्मुक्त हो विचरण करता है .....और कुछ मायने , बेमाने कर देता है .............
 
आढ़ी तिरछी रेखायों के बीच घिरा मन वृत्त का व्यास नापने लगता है . वेग और गति के मंत्रो का सामजस्य बिठाने की कोशिश उसे फिर अनंत की तरफ खींचने लगती है .वृहद् वृत्त सहसा सिकुड़ने लगता है और परम्परा की धारा को तोड़ फिर आकर्षित होता अनत को .....
 
शायद यही जीवन है ........आत्म  वृत्त का बढ़ता और घटता व्यास ही अंतर्मन को कही अनंत से जोड़ता है ....वह अनत जहा असीमित अपरिमित और अथाह जीवन है ..........................

रविवार, 3 जून 2012

लौट आओ

लौट आओ
 
भ्रमित किया था हर आहट ने
शंकित करती हर पदचाप
यादों की  धारा में बहती
उद्वेलित हो  सुनती प्रलाप
भाव विह्ल दिल के गलियारे
जल से पूरित हुये दृग कूप
 गहराते जाते अंधियारे 
विकट हुआ प्राकृत रूप
कब आये और कब चल दोगे
वक्त को बाँध ना पाया मैं
पाया था जो रफ्ता रफ्ता
खो कर जांच ना पाया मैं
जीवित रखने को जिन्दापन
श्वास भरू यादों का  तन में 
 चिर निद्रा में  लीन हुआ तो
कब्र भाव की खोदूं मन में
 आओ पुनह लौट कर आओ
वक्त तुम्हे ना जाने देगा 
कतरा कतरा रूप तुम्हारा 
अपनी झोली में भर लेगा