सोमवार, 31 जनवरी 2011

dard ka phool

दर्द का फूल

अश्कों ने सींच दिया मेरे गम  को
अब तो चारो और हरियाली है
फूल बन कर दर्द मुस्कुराता है
  चमन की फिजा ही निराली है
बन गई   दुखों    की लाखों  क्यारियाँ
बंट गई अब इक धरा सरीखी  जिंदगी
 बोए बीज आशा के हम ने भी झूम झूम
मुश्किलों के दीमक ने चाटी  जैसे जिंदगी
बेबसी के फलसफे से  लिखी इबारतें
भाग्य को  बदलने की  कोशिशें करती है
निशित अनिश्चित के झूले में झूल कर
प्रयतन का मकरंद झोली में भरती है
खिले फूल दर्द के , संग शूल सुखों से
नस नस में गर्म रक्त दौड़े मेरे प्राण से
बीज  तो था आशा का , बड़ा हुआ हताश से
गिनते है रोज़ सुख-शूल, फूलों  की ओट से






रविवार, 30 जनवरी 2011

Aur Swappan so gye

 और स्वप्पन सो गए

सूखा मरुस्थल
चमकता सूरज
 तपती रेत !!!

फैली नागफनी
कंटीली झाड़िया
केक्टस  के फूल !!!!

मृग मरीचिका
प्यासा जीवन
कुम्हलाए स्वप्पन !!!!!

बुधवार, 26 जनवरी 2011

kuch khte khte

कुछ कहते कहते

सोचा चलो तुम से  मिलते चले
अनेक  बातें है मन में
कुछ कह दे, कुछ सुनते चले
हुई जब मुलाकात तुमसे
यूं चलते चलते
कहने को तो था कुछ बहुत
पर वक़्त ही कुछ ऐसा था
सकुचा  गये तुम भी
सकुचा गये   हम भी
कुछ कहते कहते
 किस्से ही कुछ ऐसे थे
 कि बेबाक  ना होंगे कभी
फिर करके भरोसा
अपनी खुदाई पे
चुप रहे तुम भी
चुप रहे हम भी
कसक सहते सहते



Diwaanaa

दीवाना

धडकना छोड़ दिया  इस दिल ने अब तेरा नाम लेकर
किसी काफ़िर का ना बुतखाने में अब आना होगा
रूह भटके गी ना अब इंतज़ार  तेरे कभी ए  यारब
ना शमा जलेगी  अब और ना कही परवाना होगा
निगाहें जब भी कभी उठेंगी तो बस  ढूंढे गी  तुझे
लब पर  तेरा ही नाम और सामने मयखाना होगा
जला कर खाक यूं कर दिया तुमने   आशियाँ मेरा
गलियों में फिरता अब मैं नहीं , तेरा दीवाना होगा







मंगलवार, 25 जनवरी 2011

पंडित भीमसेन जोशी के निधन पर

पंडित भीमसेन जोशी के निधन पर

आवाज़ की दुनिया के दोस्तों
मैं कोई संगीतग्य नहीं जो ऐसे  महान गायक की जीवन भर की संगीत में हुई उपलब्धियों की विवेचना कर सकूं
मैं कोई साहित्यकार नहीं जो ऐसे महान कलाकार की जीवन भर की गाई हुई  रचनायों की अवलोकना कर सकू
मैं कोई धर्मकार नहीं जो ऐसे  प्रभु  के अनन्य भक्त के द्वारा गए हुए भजनों की श्रृंखला मे कोई  कड़ी जोड़ सकू
मैं तो आम जनता हूँ जो बस इतना जानती है कि " मेरे सुर में सुर मिलाने वाला जिसने हमारा सुर बना दिया+
और आम जनता को  बाँध दिया था एकता के सूत्र में.
आज वह इस दुनिया को छोड़ दूसरे जहां के सफ़र को चल पड़ा है
वहां भी वह दुनिया को अपने सुर से सुर मिला कर एक सूत्र में बांध देगा
लेकिन यहाँ इस नुक्सान की कोई भरपाई नहीं है............




सोमवार, 24 जनवरी 2011

Dil ek parinda

दिल एक परिंदा

यह सच है कि दिल की गहराई को
कोई  नाप नहीं सकता
लब है कि हमेशा मुस्कुराते  ही रहे
कितना दर्द छुपा है इस दिल में
कोई भांप नहीं सकता
जलते  ही रहे जखम जो मुझ को मिले थे
उन जख्मो से उठे धुएं को
कोई रोक  नहीं सकता
ना दो तुम बुझते हुए शोलों को और हवा
इक आग वो  भड़के गी जिसे
कोई बुझा  नहीं सकता
किश्तियाँ यूं ही किनारों पे खड़ी रह जायेंगी
दिल का कोई भी दरिया अब उनको
पार लगा नहीं सकता
ना करो तुम भी तम्मना अब
इस दिल को यूं छूने की
तन्हाई के पिंजरे में कैद
कमबख्त ऐसा परिंदा है
जिसे कोई भी हमदर्द
बेकैद   करा नहीं सकता



शनिवार, 22 जनवरी 2011

Jheel kinaare

झील किनारे

जीवन  की भागदौड़ से जब भी उकता जाता हूँ मैं
भीड़ में जब भी खुद को समझ नहीं पाता हूँ मैं
बीता कल और आने वाले कल का फर्क कर पाऊ  मैं
तन्हा झील किनारे बैठ   हर पल को  दोहराता हूँ मैं

झील का ठहरा पानी देता जीवन इस में ठहराव
परिधि में सिमटा करता इंगित सब  उतार चढ़ाव
जितना डूबो उतना गहरा छोर पकड़ नहीं पाता हूँ मैं
तन्हा झील किनारे बैठ हर पल में डूबा जाता   हूँ मैं

शंकित होता है मन क्या जीवन भी है झील के जैसा
खोज रहा अस्तित्व कि जैसे  पानी के निर्मल स्त्रोत का
जितना सोचूँ उतना विचलित पल प्रतिपल हो जाता हो मैं
तन्हा झील किनारे बैठ हर स्त्रोत  पकड़ता  जाता हूँ मैं




bhrashtachaar ....doshi kaun

भ्रष्टाचार.... दोषी कौन ?

इक दफ्तर में मैं हूँ अफसर  और दूजे में हूँ जनता आम
इक  दफ्तर में हूँ मैं भ्रष्ट और दूजे में  मैं हूँ परेशान
यह कैसा  दोहरा खेल , यह कैसा संज्ञान  ?
कभी कहलाऊँ  चोर, और कभी बन जाऊ अनजान
पहले पल ठगता  दूजो को 
खुद ठग जाता अगले पल मैं
पहले पल मैं चोरी करता
पल अगले दर्ज  रपट   कराता
खुद को देखूं और दूजो को समझू
खुद को मानू  और दूजो को पहचानू
मैं तुम और आप   भ्रष्ट सभी है
फिर क्या है यह बात
दोषी तुम हो ,मैं  सच्चा हूँ
ऐसी क्यों है बात ?
जनता मैं और सरकार  भी मैं  हूँ
व्यवस्था का भ्रष्टाचार भी मैं हूँ
जिस दिन बद्लूगा  अपने को
होगा तब तिलस्मात  !!!!!!!!



 


शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

aayaa Basant

आया बसंत

 फाल्गुनी बयार बही
अमराइयां नाच उठी
फूली सरसों,  केसर प्यारी
पुष्पित हो गई क्यारी क्यारी
धानी चूनर ओढ़  धरा ने
अभिनव छटा सर्वत्र फैला दी
कोयल ने गाया पीहू गीत
चकवा चकवी की जगी प्रीत
वन उपवन अलि गुंजो ने
गुंजारित कर दी नयी सीख
त्रिभुवन महका फिर सौरभ से
कहे उमंग बड़े गौरव से
हर पल्लव पर झूम रहा हूँ
कली कलिका को चूम रहा हूँ
छाया नव  उल्लास अनंत
झूमता  गाता महकाता इतराता
पुन: आया ऋतुराज बसंत

gole ruppiya ghoome pahiya

गोल रूप्पिया घूमे  पहिया

आसमान से टूटा तारा,    धरती पर टकराया
घूमे गाँव शहर बस्ती  में, भरमाया भरमाया
क्यों धरती के लोग खफा हैं , भेद समझ नहीं पाया
सारे मानव एक से दिखते, हाव-भाव भी मिलते जुलते
फिर क्यों फिरते जुदा जुदा , बात समझ नहीं पाया
हुआ अचंभित देख कर बचपन ,अलसाया सकुचाया
कुह्म्लाया है यौवन है फिरता अकुलाया अकुलाया
देख बुढापा पीड़ित होता , किसने इसे रूलाया
मौन निरुतर विस्मित तारा, थक कर हिम्मत हारा
ढूंढे अपने शब्द कोष में , जीवन तत्व बेचारा
एक चमक से टूटा  तंत्र  ,चौंक कर पूछा क्या है मंत्र
मैं हूँ सिक्का खूब चमकता ,सब जेबों से रोज़  फिसलता
एक के पीछे हर कोई  दौड़े अपनी अपनी मंजिल छोड़े
गोले रूप्यिया,घूमे पहिया जिसने सब को नाच नचाया


गुरुवार, 20 जनवरी 2011

ओबामा लादेन से :  मानवता के नाम पर एक उपालंभ
                            सज्जनता के आधार को करारा व्यंग्य
                            समझ लो लद गये दिन अब इस लादेन के
                            डसता था शांति परिंदों को बन कर भुजंग

लादेन ओबामा से : घूमो चाहे कितना भी भारत लंदन , छुप कर फैलाओ शान्ति सन्देश
                          मेरी तोप टैंक बन्दूक के आगे तुम्हारे  प्रयतन होंगे निस्तेज
                            लादेन हूँ मैं इतना समझ लो ,
                              खुद डरते हो मरने से क्या बदल पायोगे विश्व की भाग्य रेख ?

         

बुधवार, 19 जनवरी 2011

saath Tumhaara

साथ तुम्हारा

नहीं करते बात तो मत करो
जान तो नहीं निकल जायेगी
मुश्किल वक़्त है
उलझन में हूँ
जो मुसीबत आयी है
वह टल भी जायेगी
रहती है इच्छा हर पल रहो तुम साथ
मन का विश्वास और आस्था
जो पनपी है तुम्हारे  प्रति
बार बार देती है दिलासा और यकीं
कि दे कर दस्तकें  लौट जायेंगी
यह सब मुश्किलें
ना कर पाएंगी घर, जीवन में कभी
तुम जो चलो साथ मेरे तो
मंजिलें  भी हो जाएँ आसान
तुम जो रहो साथ मेरे तो
छू लू बढ़ के आसमान
साथ मिल जो जाए तुम्हारा बार एक
छोड़ जाऊ  धरती पर अपने  कदमो के निशां

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

Kyo aate hain yh sapne

क्यों आते हैं यह सपने ?

क्या कभी आपने नींद में आये हुए सपनो का विश्लेषण  किया है ?
क्यों आते है यह सपने ?
क्या समझा जाते है यह सपने ?
अपने और परायेपन का
भ्रम जाल फैला देते  है यह सपने
कुछ स्वप्पन है बीती घटनाओं के
कुछ स्वप्प्न है कोरी इच्छाओं के
कुछ स्वप्पन मात्र कल्पना के है
कुछ स्वप्प्न अनबूझ  पहेली जैसे
कुछ सपनो में हल मिलता है अपने प्रश्नों का
कुछ सपनो में छल मिलता है दिवा जाल सा
कुछ स्वप्पन अंदेशा देते है होने वाली घटनाओं का

रविवार, 16 जनवरी 2011

Aaj hawa asmanjas main hai

आज हवा असमंजस में है

मंद बहूँ तो सौरभ तड़पे
तेज़ चलूँ तो माटी मचले
दिशा बदलूँ तो नाविक क्रोधित
बदलूँ धारा हो मौसम परिवर्तित
रूक जाऊं तो जीवन ठहरे
क्या मै करूं कुछ तो कह रे !
आज हवा असमंजस में है !!!!!

Ham-Safar

हमसफ़र

उसके तस्सुवर में गुज़र जाती है शामो सहर
कैसे दिन बीता ,कब रात ढली ,कुछ याद नहीं
संग उसके यूं कट जाता है कड़ी धूप का सफ़र
कैसे लब हँसे,कब आँख डबडबाई ,कुछ याद नहीं
जाने कैसे सिमट कर रह जाती है  लम्बी डगर
कैसे  वह संभली ,कब लडखडाई .कुछ याद नहीं
पल पल रफ्ता गुज़र जाती है यूं लम्बी उम्र
कैसे युग बीता, रूह बेकैद हुई ,कुछ याद नहीं

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

Prakrtik chhtaa

प्राकृतिक छटा ( पहाड़ों की)

यह हसीन वादियाँ, यह दिलकश नज़ारे
कोई कैसे इनको  रखे  ,कोई कैसे भुला दे
नभांचल पर फैली फिरोजी घटाएं
मन:  पटल पर अंकित  अनुपम  छटाएं
गगन चुम्भी चोटियाँ ,यह पर्वत  मालाएं
वह बहते हुए  दरिया  वह मंजुल लताएँ
बिखरी सुनहरी अथाह  हिम  राशियाँ
हरियाली में डूबी वो गहरी घाटियाँ
वह वक्र चक्र सड़कें,  सर्पीली सुरंगे
झरनों से झरती सतरंगी तरंगे
वह लम्बे तरु देवदार के चहुँ ओर
मिलने को आतुर धरा नभ के  छोर
 निराकार निर्मल  आनंद का आभास
अचंभित हुआ जाता मन का  विश्वास 
जहां कल्पना  भी ले नव आकार
जहां ज्ञान को भी मिले इक प्रकार
विधाता से पाया  अनोखा उपहार
रचा खुद उसने बन कर  चित्रकार

krishak ki takdir

कृषक की तक़दीर

बयाँ चाहे कुछ भी हो मगर यह तो बिलकुल साफ़ है
 देश में पोषण करने वालो की तक़दीर कितनी बेज़ार है
सत्ता लोलुप सिर्फ बात बनाते है
जन जीवन सो कोसों दूर
ऑफिस में बैठ बस ठंडी हवा खातें हैं
योजनायें बनती है रोज़, ओर दफ़न हो जाती है
दफ्तर की सारी फाईलें रद्दी के भाव बिक जाती हैं
यां फिर स्टोर रूम में भोजन है मूषक का
सच  बात करते हो,  यहाँ वृथा जीवन है  कृषक का

aise desh ko kya kahiye?

ऐसे देश  को क्या कहिये

जहां हर पल को  सिसकते देखा
भूख से दम निकलते देखा
चिलचिलाती धूप से बेदम
बचपन आज बिलखते देखा
जहां इक श्वास को ले कर
सारा जीवन तडपते देखा
विचलित यौवन भटकते देखा
तर्साहत लिए बुढापा देखा
झूठ ओर सच के झीने परदे
तार तार कर फटते देखा
ऐसे देश को क्या कहिये ?

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

Ram namaami namaami namaami

राम नमामि नमामि नमामि

जब सारी दुनिया सोती है तो एक मुसाफिर जगता है
अम्बर में लटके ध्रुव तारे सा वह मार्ग इंगित करता है
हुए दिशाहीन जो पथ-भ्रष्ट उन्हें  पथ प्रदर्शित करता है
गहन तिमिर का दीपक बन कर  पथ आलोकित करता है
वह ध्यान बिंदु सा केन्द्रित हो  जग का संचालन करता है
वह गौड़ दिगंबर पूर्ण तत्व इस जग का पालन करता है
वह जीवन मृत्यु का दाता वह जड़ चेतन का अविनाशी
वह त्रिभुवन सुख का परिचायक पूर्ण समपर्ण का प्रत्याशी
पा जाने को एक झलक मन हो जाता है अति आतुर
हो श्वास सुवासित जहां भय मन का हो जाए काफूर
वह सुंदर श्याम मनोहर मंजुल वह  देव ऋषि सा सतकामी
वह कोमलांग वह वज्र समान , राम नमामि नमामि नमामि

सोमवार, 10 जनवरी 2011

vzoood

वजूद

दम तोड़ देती है तुमसे मिलने की हर ख्वाहिश
सुना है अब आरज़ू की इक अदद पहचान हूँ मैं
बेखुदी में  आकर गुज़र जाता हूँ चाहत ही हद से
सुना है वफ़ा के कायदों से बहुत अनजान हूँ मैं
मेरा साया तुम को  छू कर भी ना  गुज़रे कभी
सुना है शहर के लोगों में बहुत बदनाम हूँ मैं
तन्हा पाओ कभी अपने को तो यह मान लेना
शब्-ए-वस्ल में उभरी हुई इक मुस्कान हूँ मैं

yaadon se

यादों से

कह दो अपनी यादों से
ना पास मेरे  आया करें
नाजुक मिजाज़ दिल है
ना आ कर तड़पाया करें
तन्हाई की चादर जब भी
ओढ़ कर झाँकू झरोखे से
नेपथ्य से कोई दस्तक दे
ना मुझे झुठलाया करें
आती हुई हर आहट
बेचैन   कर जाती है मुझे
सदायें देकर अपनी हमेशा
ना मुझ को बुलाया करे
हसरतों की तम्मना  में
बीता जाता है वक़्त सारा
कह दो इन यादो को
ना वक़्त  संग बिताया  करें

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

lakshya saadhna

 लक्ष्य साधना

ढल जाती चंदा की किरने
छिप जाता सूरज उस पार
आते जाते बदलते मौसम
कर जाते बातें दो चार
भूली बिसरी चंद उम्मीदें
उमड़ कर आती है चुपचाप
जैसे पूनम की रजनी में
शांत सागर से उठे ज्वार
मन आँगन में होता  अंकुरित
कोलाहल कर  सुप्त विचार
पल्लवित होंगी सब उम्मीदें
आश  का सजता वन्दनवार
धरा लगे तब केसर क्यारी
छा जाता सौरभ  चहुँ और
लेकर श्रम कुठार हाथों में
बढ़ें   कदम   लक्ष्य की ओर
पूरन होतें है जब सपनें
गुंजित होता मेघ मल्लहार
झूमे 'नीरज '  जीवन ताल में
छू जाता जब बसंत बयार

बुधवार, 5 जनवरी 2011

shaayad tum aaye ho

शायद तुम आये हो

शाख पर कोंपल फूटी नई
सोचा शायद तुम आये हो
मंद बही पुरवाई कहीं
सोचा शायद तुम आये हो
धड़का दिल मैं, चुपचाप रही
सोचा शायद तुम आये हो
थिरका पग नस में चुभन हुई
सोचा शायद तुम आये हो
झांक रहा सुधियों का अम्बर
बाट देखता जर्रा-जर्रा
सोते जगते आठों प्रहर
लगता है जैसे तुम आये हो

Iltiza

इल्तिजा

"बहुत अच्छे लगते हो तुम  इस दिल को  "
यह बात बहुत  पहले से ही जानते थे हम
पर देख सिलवटे परेशानी की  पेशानी पर तेरी
तड़प उठेगा दिल यह भी
इस का कभी एहसास ना था
छू लिया जब हमने तेरे जजबो को
उन सर्द शामो में
सर्द हो  जायेंगे  दिल के शोले  मेरे भी
इस बात का आभास ना था
है  इल्तिजा  अब उस गर्म हवा से  जो करती है हैरान तुझे
भूले से भी ना गुज़रे  छू कर कभी  दामन तुम्हारा
गर्मी हम से झेली जाएगी उन बिगड़ी हवाओं की
ना झेला जाएगा  हम से
इस दिल का दर्द दोबारा

मंगलवार, 4 जनवरी 2011

hansi

हंसी

गर हँसना निर्भर करता है किसी घटना पर
तो हंसी वाकई बिकती है बाजारों में
गर हँसना निर्भर करता है सम्मलेन पर
तो हंसी  वाकई मिलती है त्योहारों  पर
हंसी के बदले गर तुम्हे ना मिले हंसी
तो समझ लो तुम भी शामिल हो खरीदारों में
हँसना तो एक  आदत है जो शुमार हो जीवन में
हँसना  इबादत है जिसका एह्त्माद हो जन मन  में

sankuchit yaad

संकुचित याद

बहुत याद करने पर भी ना जब आया याद  वो
सोचा, छोड़ो शायद इक  अजनबी सा  था वो
अच्छा ही हुआ चलो भूल सा गया  वो
याद आता भी भी तो ना तड़पाता जी को
हमसाया बन कर मेरा जब साथ मेरे चला वो
याद बन कर एक  अपना, बहुत याद आया वो
आता जब भी  इक पवन की तरह
यादो की बगिया महका जाता वो
सोचते है याद भी कितनी संकुचित है
चुनती है उसको जो बहला  जाता है जी को

aadmi ka vartmaan

आदमी का वर्तमान

वक़्त की दौड़ में अँधा हुआ जाता है आदमी
कुछ  पाने की चाह में सब  खोता जाता है आदमी
बंद मुट्ठी  में रेत की तरह फिसलता ही रहा
हाथो से पानी को पकड़ना चाहता है  आदमी
जिंदगी के मरहले ना लौट कर आयेंगे कभी
याद बन  रह जाएँ , स्वप्पन मिट जाएँ सभी
उजली कोरी  कल्पनाएँ धूसरित हो जायेंगी
धूल के बिखरे कणों में 'अपना कल' बटोरता आदमी

शनिवार, 1 जनवरी 2011

maun shabad ragini

मौन शब्द रागिनी

शब्दों की जब मौन रागिनी
चेतन में  गुंजित होती है
भावो की अविरल धारा
जन-मन को सिंचित करती है
प्यार भरा मन का नंदनवन
कुसुमित हो मुस्काता है
मधु चंदा  का सहज स्पर्श
स्नेह सुधा बरसाता है
तेज ताप सूरज का मद्धम
भाव ज्वार को करे नियंत्रित
तरु पल्लव शाखावालियों पर
नव कोंपल फूटे हो अंकुरित