मंगलवार, 4 जनवरी 2011

aadmi ka vartmaan

आदमी का वर्तमान

वक़्त की दौड़ में अँधा हुआ जाता है आदमी
कुछ  पाने की चाह में सब  खोता जाता है आदमी
बंद मुट्ठी  में रेत की तरह फिसलता ही रहा
हाथो से पानी को पकड़ना चाहता है  आदमी
जिंदगी के मरहले ना लौट कर आयेंगे कभी
याद बन  रह जाएँ , स्वप्पन मिट जाएँ सभी
उजली कोरी  कल्पनाएँ धूसरित हो जायेंगी
धूल के बिखरे कणों में 'अपना कल' बटोरता आदमी