आदमी का वर्तमान
वक़्त की दौड़ में अँधा हुआ जाता है आदमी
कुछ पाने की चाह में सब खोता जाता है आदमी
बंद मुट्ठी में रेत की तरह फिसलता ही रहा
हाथो से पानी को पकड़ना चाहता है आदमी
जिंदगी के मरहले ना लौट कर आयेंगे कभी
याद बन रह जाएँ , स्वप्पन मिट जाएँ सभी
उजली कोरी कल्पनाएँ धूसरित हो जायेंगी
धूल के बिखरे कणों में 'अपना कल' बटोरता आदमी