शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

lakshya saadhna

 लक्ष्य साधना

ढल जाती चंदा की किरने
छिप जाता सूरज उस पार
आते जाते बदलते मौसम
कर जाते बातें दो चार
भूली बिसरी चंद उम्मीदें
उमड़ कर आती है चुपचाप
जैसे पूनम की रजनी में
शांत सागर से उठे ज्वार
मन आँगन में होता  अंकुरित
कोलाहल कर  सुप्त विचार
पल्लवित होंगी सब उम्मीदें
आश  का सजता वन्दनवार
धरा लगे तब केसर क्यारी
छा जाता सौरभ  चहुँ और
लेकर श्रम कुठार हाथों में
बढ़ें   कदम   लक्ष्य की ओर
पूरन होतें है जब सपनें
गुंजित होता मेघ मल्लहार
झूमे 'नीरज '  जीवन ताल में
छू जाता जब बसंत बयार