लक्ष्य साधना
ढल जाती चंदा की किरने
छिप जाता सूरज उस पार
आते जाते बदलते मौसम
कर जाते बातें दो चार
भूली बिसरी चंद उम्मीदें
उमड़ कर आती है चुपचाप
जैसे पूनम की रजनी में
शांत सागर से उठे ज्वार
मन आँगन में होता अंकुरित
कोलाहल कर सुप्त विचार
पल्लवित होंगी सब उम्मीदें
आश का सजता वन्दनवार
धरा लगे तब केसर क्यारी
छा जाता सौरभ चहुँ और
लेकर श्रम कुठार हाथों में
बढ़ें कदम लक्ष्य की ओर
पूरन होतें है जब सपनें
गुंजित होता मेघ मल्लहार
झूमे 'नीरज ' जीवन ताल में
छू जाता जब बसंत बयार