शनिवार, 22 जनवरी 2011

Jheel kinaare

झील किनारे

जीवन  की भागदौड़ से जब भी उकता जाता हूँ मैं
भीड़ में जब भी खुद को समझ नहीं पाता हूँ मैं
बीता कल और आने वाले कल का फर्क कर पाऊ  मैं
तन्हा झील किनारे बैठ   हर पल को  दोहराता हूँ मैं

झील का ठहरा पानी देता जीवन इस में ठहराव
परिधि में सिमटा करता इंगित सब  उतार चढ़ाव
जितना डूबो उतना गहरा छोर पकड़ नहीं पाता हूँ मैं
तन्हा झील किनारे बैठ हर पल में डूबा जाता   हूँ मैं

शंकित होता है मन क्या जीवन भी है झील के जैसा
खोज रहा अस्तित्व कि जैसे  पानी के निर्मल स्त्रोत का
जितना सोचूँ उतना विचलित पल प्रतिपल हो जाता हो मैं
तन्हा झील किनारे बैठ हर स्त्रोत  पकड़ता  जाता हूँ मैं