संकुचित याद
बहुत याद करने पर भी ना जब आया याद वो
सोचा, छोड़ो शायद इक अजनबी सा था वो
अच्छा ही हुआ चलो भूल सा गया वो
याद आता भी भी तो ना तड़पाता जी को
हमसाया बन कर मेरा जब साथ मेरे चला वो
याद बन कर एक अपना, बहुत याद आया वो
आता जब भी इक पवन की तरह
यादो की बगिया महका जाता वो
सोचते है याद भी कितनी संकुचित है
चुनती है उसको जो बहला जाता है जी को