शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

intzaar

इंतज़ार
सपना सजाया मैंने जाने कितनी बार
निष्ठुर जोगी तुम ना आए एक बार

राहों में जूही के सुमन बिछाए
दिनकर की किरणों से रौशन कराये
पलकों से पंथ बुहारा कई बार

रात की मांग मैंने चंदा से सजाई
झिलमिल तारों की चूनर ओढाई
घुंघटा ना खोला ना निहारा एक बार

निश्छल प्रेम की  मैंने भसम रमाई
क्यों नहीं तुमने मेरी  सुधि पायी
जनम जनम तेरा  करूं  इंतज़ार