स्त्री से
क्यों बन कर लता
ढूँढती हो
किसी वृक्ष का सहारा
हो स्वयं तरुवर
जुड़ना जिस से चाहे
यह उपवन सारा
क्यों बन लहर
चाहती हो हर पल एक किनारा
हो बल्ग्य इतनी
बहो बीच सागर
बन नील धारा
ना मांगो किरण
तड़प कर यूं
सूर्य से तुम
असमर्थ है वह खुद भी
झेलने को तेजस तुम्हारा