गुरुवार, 11 नवंबर 2010

stree se

स्त्री से

क्यों बन कर लता
ढूँढती हो
किसी वृक्ष का सहारा
हो स्वयं तरुवर
जुड़ना जिस से चाहे
यह उपवन सारा

क्यों बन लहर
चाहती हो हर पल एक किनारा
हो बल्ग्य इतनी
बहो बीच सागर
बन नील धारा

ना मांगो किरण
तड़प कर यूं
सूर्य से तुम
असमर्थ है वह खुद भी
झेलने को तेजस  तुम्हारा