स्वार्थ
क्यों समझ नहीं पाते हम दूजे की उलझन
कैसे मरते हैं रोज़ और जीते हैं जीवन
क्यों बुनते रहते हैं अपने ही स्वप्पन जाल
और उनमें रखतें हैं बस अपना ही ख्याल
कर अर्जित ज्ञान हुए हम दक्ष, प्रवीण
लेकिन दिल से हो चुके है हम संगीन
समझ नहीं पाते मानव की गुणवत्ता
भौतिकता की आड़ में भूले मानवता
भूल चुके हैं हम अपना अपनत्व यहाँ
हो चुका हैं बौना सब व्यक्तित्व यहाँ
मानवता की खोद कब्र चौराहे पर
खोज रहें हैं हैं हम अपना अमरत्व यहाँ