चिंत- रेखाए.
मैं उधय्त होता करने परिवर्तित
विधि विधान के लिखे लेख
गहरा जाती है नभ मस्तक पर
आढ़ी तिरछी चिंत- रेख
हो न विचलित विपदाओं से
जो बढ़ता है पुरजोर निरंतर
कोई कूल क्या बांध सकेगा
जल धारा जब बहे चिरन्तर
प्रयतन भागीरथ ना होगा निष्फल
गंगा उतर स्वयम आएगी
रचने को संसार सुनहरा
वसुधा जगह स्वयं बनाएगी
ओ' चिंता की तिरछी रेखाओं
जा दूर कहीं नक्षत्र बनाओ
सौगंध तुम्हे है मेरे श्रम की
यूं निर्ममता से मत तडपाओ
मृत हो जाती मृदुल कल्पना
जनम तुम्हारा लेते ही
ओ'नागिन सी दिखती रेखाओं
ना यूं प्रतिभा को डस कर जाओ