शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

waqt ki mhtta

वक़्त की महत्ता 

वक़्त की फैली लम्बी चादर
कटती  है जब धीरे धीरे
रेशे जैसा हर एक पल
फटता है तब धीरे धीरे
ज्ञान नहीं होता  तब हम को
टूट रहे पल के रेशों का
बना देते सन्दर्भ  बिगड़ते
सिहं तुला कन्या मेषों का
पकड़ नहीं पाते हम तब
तार तार से वक़्त के धागे
पीछे रह जाते तब दौड़ में
चाहे कितना भी जोर से भागें
रह जाती जब चादर आधी
और ना तन ढकने को काफ़ी
होती है तब खींचा-तानी
ना तुमने कही ना मैंने मानी
चादर वक़्त की ना फटने पाए
पल के रेशे  ना टूटें जाए
आने वाले हर एक पल में
आओ यह संकल्प दोहरायें