गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

do premi

दो प्रेमी

दोनों ही पागल प्रेमी थे
संग वक्त  गुजारा करते थे
जीवन के बदरंग पन्नो पर
रंग उतारा करते थे
संध्या की काली  घिरने से
उषा की लाली चढ़ने  तक
बिछी रेत की चादर पर
कुछ शब्द उभारा करते थे
सागर की बहती लहरों में
बनते -, मिटते थे रोज़ लेख
जीवन के बहते दरिया में
पर बदल ना पाए भाग्य रेख
दुनिया की बहती भाग-दौड़ में
साथ हमेशा से छूट गये
नाजुक मन से दोनों थे
दिल कांच की जैसे टूट गये