दो प्रेमी
दोनों ही पागल प्रेमी थे
संग वक्त गुजारा करते थे
जीवन के बदरंग पन्नो पर
रंग उतारा करते थे
संध्या की काली घिरने से
उषा की लाली चढ़ने तक
बिछी रेत की चादर पर
कुछ शब्द उभारा करते थे
सागर की बहती लहरों में
बनते -, मिटते थे रोज़ लेख
जीवन के बहते दरिया में
पर बदल ना पाए भाग्य रेख
दुनिया की बहती भाग-दौड़ में
साथ हमेशा से छूट गये
नाजुक मन से दोनों थे
दिल कांच की जैसे टूट गये