रविवार, 15 अगस्त 2010

swappan main papa

स्वप्पन में पापा
रात स्वप्पन मे आकर सहसा
तुमने जो आवाज़ लगाई
अर्धचेतन विक्षिप्त अवस्था से
जैसे मैंने सुधि पाई
ब्रह्म अनामय रूप निरख कर
 ज्ञान विधा  विधुत लहराई
परम तत्त्व में हों विलीन हम
जीवन भर इच्छा यही पाई
काल चक्र से हुआ मुक्त जब
क्यों मन देने लगा दुहाई
ना हो क्षोभित ना हो व्याकुल
अब ना कर मन को यूं सौदाई
उठो बढ़ो जियो वर्तमान में
श्रम तप धीरज की बात दोहराई
अवसादों का वसन हटा कर
खुशियों की चादर औडाई
अकस्मात फिर टूटी तंत्रा
टूटा स्वप्पन खुल गयी निद्रा
रस से सराबोर था तन मन
और ना था अब धूमिल जीवन
तुम्हे अंगीकार किया ईश्वर ने
जान बहुत मैंने सुख पाया
बहुत दिनों से निद्रालु था
पुनह निद्रा के अंक समाया