शनिवार, 14 अगस्त 2010

yaadon ke saaye

                               यादों के साए

यादो के साए ने , जब भी ली अंगडाई है
भीड़ के घेरे से एक शक्ल उभर कर आयी है .
कुछ शक्ल उभरते शिशुपन की
कुछ शक्ल उमड़ते यौवन की
कुछ शक्ल उतरते जीवन की
कुछ भोली और तुतलाती शक्लें
कुछ हंसती और इठलाती शक्लें
कुछ मात्र पहेली अनबुझ शक्लें
कुछ अनदेखी अनजानी शक्लें
कुछ जानी और पहचानी शक्लें
कुछ अपनी और बेगानी शक्लें
कुछ शक्ल कहें सुनो ज़रा रूको तुम
कुछ शक्ल कहे ज़रा और बढ़ो तुम
कुछ शक्ल सहेली संग चली बन
कुछ शकले हुई अवरुद्ध हुई गुम
शक्लों के उभरे बिम्बों से
एक शक्ल से थी मैं मुस्काई
मैंने देखा बस केवल मैं हूँ
वह शक्ल थी मेरी तन्हाई