शनिवार, 14 अगस्त 2010

Zindagi

                        ज़िन्दगी
रोज़ जीती रोज़ मरती जिंदगी
इस तरहं हर पल गुज़रती ज़िन्दगी
दायरे में सच सिमट कर रह गया
झूठ के साए में पलती जिंदगी
कर्म आईने सा धुंधला ही रहा
लोभ के सांकल से जकड़ी जिंदगी
दर्द कांटे की तरह स्थिर रहा
फूल की तरह झरती जिंदगी
यह स्वयं निज भार से बोझिल हुई
एक बुढ़िया की कमर सी जिंदगी