ज़िन्दगी
रोज़ जीती रोज़ मरती जिंदगी
इस तरहं हर पल गुज़रती ज़िन्दगी
दायरे में सच सिमट कर रह गया
झूठ के साए में पलती जिंदगी
कर्म आईने सा धुंधला ही रहा
लोभ के सांकल से जकड़ी जिंदगी
दर्द कांटे की तरह स्थिर रहा
फूल की तरह झरती जिंदगी
यह स्वयं निज भार से बोझिल हुई
एक बुढ़िया की कमर सी जिंदगी