अकेला
मन कितना आज अकेला
पीड़ाओं की गठरी भारी
दूर लगा है मेला
आशाएं दम तोड़ चुकीं हैं
आजीवन संग छोड़ चुकीं हैं
मरघट सा खामोश हुआ है
यह जीवन का रेला
मन कितना आज अकेला
हास और परिहास है झूठे
बिछड़े सब और टूटे सपनें
मन का हारिल नीलगगन में
उड़ता गेला गेला
मन कितना आज अकेला