प्रात सुहानी
रात्रि के तामस को हरती
आती है जब प्रात सुहानी
सर्वत्र आशा की स्वर्णिम आभा
बिखरा जाती है प्रात सुहानी
रात-रात भर मौन रागिनी
अश्रु पूरित करती है
नभ से गिरती जलकण बूँदें
धरती आँचल में भर लेती है
कुसुम और तरु- पल्लवियों पर
फैली नन्ही जल- कण बूंदे
और नहीं कुछ, बस शबनम है
ऐसा बतलाती प्रात सुहानी
नव कलिका हरित वसुधा पर
पीत वसन जब धारण करती
अलि कुंजो की गुंजन से
मधुर छटा गुंजित हो जाती
अलसाया गदराया नव यौवन
उठता है अंगडाई ले कर
जीवन कर लो रस से सिंचित
ऐसा समझाती प्रात सुहानी