आदमी
सचमुच कितना घिनौना है वह
जो अपने अस्तित्व को
जीवन की आखिरी सीमा तक
अपने भ्रष्ट भूगोल से निकाल कर
बाहर नहीं ला सका है
और अब सिर्फ कुंठा से मन बहलाता है
औरों के अस्तित्व की कल्पित इतिहास गाथा सुनाता है
और वह भी
जो जीवन भर अपने अस्तित्व का असहनीय बोझ
अपने शीश धरे ढोता रहा सारी उम्र
हमेशा दूसरों के रास्तों पर
सिर्फ अपनी बेहयाई बोता रहा
याँ फिर वह
जो सब के सामने बार बार दूध से नहाता रहे
बातों में शब्दों से अमृत छलकाता रहे
खुलेआम सत्य निष्ठ दिखता है
किन्तु जहाँ अवसर पा जाता है
झूठ को विनम्रता से सन्धि-पत्र लिखता है