तुम
धीर गंभीर शांत जलधि से
परिचायक सुंदर संस्कृति के
अविरल श्रम का आह्वाहन करते
महानायक तुम कर्मस्थली के
चयनित करके सुशब्दों को
स्वर माधुर्य से करते सिंचन
तेजस्वी व्याखान प्रबलकर
विचलित ना हो कभी अकिंचन
गुरु , पितृ ,सखा ,भ्राता और प्रीतम
भिन्न रूपों में सजते हर दम
गरिमा , निष्ठां सयम निजता का
आत्मसात करते हो प्रतिपल
जाने कैसी बात है तुम में
बन जाते हो पल में मीत
नम्र, दृढ और प्रथम विजेता
जग में रहते बन रंजीत