शनिवार, 14 अप्रैल 2012

वक्त कहा है ?

वक्त कहा है ?
नभ पर  चमकते  भोर के तारे ने टिमटिमा कर  सुबह होने का ऐलान किया . उषा की सुनहरी किरन अपना जाल फैलाने को तैयार हो गयी
विहग वृन्द का कलरव उषा गान करने लगा .रात भर शबनम की बूंदों  से भीगी वनस्पतियाँ पुनह अपना रस बरसाने को उद्यत हो उठी .
सब तरफ गतिशीलता नव आवरण ओढ़ गतिमान हो उठी .काल स्वयं नव रथ पर आरूढ़ हो कर भ्रमण करने निकल पड़ा 
जल थल नभ की गतिशीलता जैसे मानव को  उसके  गति हीन होने का एहसास करा रही थी . चाह कर भी आलस्य के चादर से नहीं निकल पा रहा था . वक्त था कि कही थमने का नाम नहीं ले रहा था . सरपट सरपट दौड़ रहा था......आकाश में ...आदि में....अंत में......अनंत में....
और मानव आलस्य के चादर ओढ़े , ऊंघता , सूंघता ,रोता बिलखता और कभी हँसता खिलखिलाता , अपनी खीसे निपोरता बस यही सोचता है और गुहारता है कि "वक्त कहा है "
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