रविवार, 8 अप्रैल 2012

हर्ष का शंख

हर्ष का शंख
 
ना बनते है ना मिटते है
ख्यालों के यह बादल अब
ना उमड़ते है, ना झरते है
भावों के यह दरिया अब
सूखा अब  समुंदर है ,
मरू की रेत सा रूखा
बरसता ज्वाल आँखों से
धधकता उर हुआ   भूखा
तड़प की बूँद बाकी है
करती है हवा को नम
गगन के गीत गीले हैं
हैं बोझिल धरा का मन
सच का सत्य है कडवा
कल्पना मौन बैठी है
सृजन की तूलिका का स्वर 
किये अब गौण बैठी है 
सपने में है धुंधला पन 
बहारों को बुलाएगा 
खिलेंगे गुल गुलिंस्ता में 
भंवरा गुनगुनाएगा 
करो अब बात चैती की 
रश्मि पूनम की  छाती है 
करने उर्वरा  मन को
गुलाबी फिर बुलाती है
चलो आओ  मुडेरों पर
सृजन का बीज बो दे हम
जगत हो महकता मधुमास
हर्ष  का शंख गुंजा दे हम