भोर का तारा
सांझ ढले अम्बर प्रांगन में
चमक रहा था भोर का तारा
खोज रहा था रश्म सुनहरी
नभ में उल्टा लटका सारा
निशि और दिन के सत्वर सच को
निगल रहा था सब का प्यारा
शून्य विज़न में एकाकी सा
सींच रहा था दर्द किनारा
अम्बर घट के अंकुर फूटे
मधुकर ने भी मोती लूटे
विस्मृत परछाईयों के पंख
अस्तव्यस्त हो बिखर कर टूटे
बाट संजोता रहा भोर की
टिम टिम रात भर करता तारा
भोर हुई तो क्षीण हो गया
दिनकर रश्म से भोर का तारा
तन्हाईयों में भीग चला था
तन्हाईयों से रीत चला था
संग सुझाता था जो जग को
तन्हाईयों में बीत चला था
करता हूँ प्रयतन मैं भरसक
ख़ोज रहा बन कर बंजारा
सहज रूप है मेरा उसमें
चमका बन कर भोर का तारा