गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

प्रयत्न

प्रयत्न  
शब्दों का कोलाहल लो फिर हुआ मौन
मनघट के देहरी  से यह झाँक रहा कौन
उत्सव है यादों का  अम्बर तक मेला है
शिशिरों  के मौसम में वसंत का रेला है
रह रह कर बहते हैं मुग्ध हए नैन
न्योता है मंगल मय रीझ उठे बैन
किंकिन से नुपूरों की गुंजित मधुशाला है
मन के दौराहे की अब निशित पग शाला है
रुष्ट हुये झंझावात ,दिनकर की शक्ति से
मन के आये मीत जो तुम निश्छल भक्ति से
द्वारों के वन्दनवार कोकिला सजाती है
आस युक्त उत्कंठा दूर खड़ी लजाती है
आये जो अब तो ना जाने पायोगे
मंजिल पर धरे जो पग अब ना लड़ खडायोगे
खोल द्वार प्राची के अरुणिमा सजा लो अब
तप्त सुप्त स्वप्प्नो को फिर से जगा लो अब
गीत मधुर वासंती फिर धरा में गूंजेगे
भागीरथ प्रयत्नों को फिर से सब पूजेंगे