शनिवार, 14 अप्रैल 2012

आह्वान

आह्वान

तार झनझना उठे
गीत गुनगुना उठे
मिल गई जो मंजिलें
दीप झिलमिला उठे
लिए स्वप्पन जन्म जो
सब प्रफुल्लित  हो उठे
खिल गये मन सुमन
पथ सुगन्धित हो उठे
रश्मिया चमक उठी
उन्नत  है मन ललाट
गमक गमक तरंगिनी
समय की देखती है बाट
अदृश्य भय से डरा
मन के द्वार जो खड़ा
वह काल है अतीत का
ठिठुर सिकुड़ कर बढ़ा
उठे  जो पग रुके नहीं
बड़े कदम मुड़े नहीं
मंजिले जो मिल गई
वह रास्ते बने नहीं
चलो चलो चलो चलो
श्रम कुदाल ले बढ़ो
पंथ है प्रशस्त अब
स्वर्ण काल में गढ़ों