रविवार, 25 मार्च 2012

मन की मर्यादा

मन की  मर्यादा
दोस्त दोस्ती और दोस्तों का प्यार ,इन रिश्तो में मायनों की व्याख्या कुछ धुंधली सी होने लगी है .
अभी दफ्तर में हूँ बाद में बात करते हैं.अभी घर में हूँ बाद में बात करते हैं
तो वह बाद आना ही क्यों है जिस को हम सब जगह से छुपा कर रखना चाहते हैं
मित्रता क्या केवल रास्तों की है ?
वक्त के बहाव में कुछ उलझे हुये  जज्बातों की है ?
या फिर उमड़ते विकृत , याँ झंकृत ख्यालातों की है ?
झुझला उठते है प्रशन स्वयं , उत्तर  डरे डरे से हैं
मौन विवादित जिह्वा पर आने को रुके रुके से हैं
स्वीकार करे ना खुल कर जो ,उन रिश्तों का औचित्य है क्या
जग की मर्यादा से भारी मन , मन की  मर्यादा के  मान का क्या ?
रिश्तों में छुपता है उजला पन , उजला धूमिल  निर्ममता से
गर वक्त मिले तो अपना पन ,वरना अनजान अस्थिरता से
क्यों मन अपनाए ऐसे रिश्ते क्यों स्वीकार करे इस जड़ता को
क्यों छिन्न करे मन के सत को ,पा भेद विभेद के चक्रों को