गुरुवार, 8 मार्च 2012

असमंजस

असमंजस

पेशानी पर थी जो परेशानी
वो कह डाली तुमने जुबानी
तड़प उठता था सुन कर दिल
सहला दे दुःख यह फिर ठानी
बढ़ते हाथ यह रूक रूक जाते
बडबोले शब्द यूं बुद बुद करते
स्पर्श मात्र की चाह जगा कर
मुखर मौन अवलोकन करते
किन जजबो में जकड़ा है  मन
किन रीतों में उलझा है  मन
पीड़ित होता तेरे हर दर्द से
नावाकिफ सा ढोंग करे मन
हैरान शब्द  और मुक्तक हतप्रभ
बेबस मौन है असमंजस में
रफ्ता रफ्ता व्यथा बढ़ी है
सीमा चरम है असमंजस में
असमंजस में असमंजस है
चयन करू मैं  बोलो किसका
तोड़ गिराऊँ  सारी रस्मे
यां तोड़ निभाऊं  सारी रस्मे